– निर्मल रानी –
यह एक कड़वा सच है कि हमारे देश के सत्ताधीश आसानी से सत्ता से अलग नहीं होना चाहते। यही वजह है कि जब चुनाव में उन्हें पराजय का मुंह देखना पड़ता है तो वे अपनी हार की नाना प्रकार की दलीलें पेश करने लगते हैं। ऐसा ही एक सबसे आसान बहाना या दलील यह भी है कि चुनाव में बेईमानी की गई या चुनाव प्रक्रिया पारदर्शी नहीं थी अथवा वोटिंग मशीन के माध्यम से घोटाला किया गया आदि। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड राज्यों के चुनाव परिणाम आने के बाद भी ऐसी ही आवाज़ बुलंद की गई। इस बार ईवीएम अर्थात् इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में धांधली का आरोप लगाने वाली सबसे मुखरित आवाज़ उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री व बहुजन समाज पार्टी प्रमुख सुश्री मायावती की थी। इसके पश्चात उत्तराखंड में अपनी हार का मुंह देखने वाले हरीश रावत ने तथा पंजाब में प्रत्याशित सफलता प्राप्त न कर पाने वाले आम आदमी पार्टी प्रमुख अरविंद केजरीवाल ने भी मायावती के सुर से अपना सुर मिलाते हुए ईवीएम की विश्वसनीयता पर उंगली उठाई। सीधेतौर पर यह कहा जा सकता है कि चूंकि इन तीनों ही नेताओं की पार्टियों ने अपने-अपने राज्यों में पराजय का मुंह देखा इसलिए इन्हें ईवीएम द्वारा की गई मतदान प्रक्रिया अविश्वसनीय नज़र आ रही है। परंतु उक्त नेताओं द्वारा उठाई जाने वाली यह आवाज़ कोई पहली अथवा नई आवाज़ नहीं है।
सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी के कई वरिष्ठ नेता भी इसके पूर्व ईवीएम को अविश्वसनीय व संदिग्ध बताते हुए इस प्रणाली का विरोध कर चुके हैं। भाजपा प्रवक्ता जीवीएल नरसिम्हाराव तो ईवीएम की विश्वसनीयता पर प्रश्र उठाते हुए एक पुस्तक तक लिख चुके हैं। 2010 में प्रकाशित हुई ‘डेमोक्रेसी एट रिस्क’ नामक इस पुस्तक की प्रस्तावना लाल कृष्ण अडवाणी द्वारा लिखी गई है। इस पुस्तक को लिखने की आवश्यकता भाजपा नेताओं ने उस समय महसूस की थी जबकि अप्रत्याशित रूप से 2009 में मनमोहन सिंह के नेत्त्व वाली यूपीए सरकार की सत्ता में पुन: वापसी हुई थी। आज 2017 में ईवीएम की ‘कारगुज़ारी’ पर जश्र मनाने वाले यही भाजपाई उस समय ईवीएम की विश्वसनीयता पर संदेह कर रहे थे। लालकृष्ण अडवाणी से लेकर सुब्रमण्यम स्वामी तक कई वरिष्ठ भाजपाई नेता इवीएम की विश्वसनीयता को संदेहपूर्ण नज़रों से देखते रहे हैं। वैसे भी ईवीएम के प्रयोग को लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्थिति पर नज़र डालना भी ज़रूरी है। क्या वजह है कि जर्मन जैसे प्रगतिशील देश में इसके प्रयोग को केवल इसलिए असंवैधानिक करार दे दिया गया क्योंकि मतदाता चुनाव में अपनी भागीदारी को पारदर्शी रूप से नहीं देख सकते थे? इसी प्रकार आयरलैंड में ईवीएम मशीनों को लोकतंत्र की हत्यारी बताकर इन्हें कबाड़ में फेंक दिया गया। अमेरिका में ब्रेव हैरिस द्वारा ईवीएम से होने वाले घोटाले का जैसे ही पर्दाफाश किया गया उसी समय अमेरिका के 64 प्रतिशत राज्यों मेें ईवीएम का इस्तेमाल बंद हो गया। इस समय केवल भारत,युक्रेन,नाईज़ीरिया तथा वेनेज़ुएला जैसे गरीब अथवा विकासशील देशों में ही इन मशीनों का प्रयोग किया जा रहा है। जबकि पाकिस्तान,नेपाल,भूटान व कंबोडिया जैसे देशों में ईवीएम के प्रयोग की योजना बन रही है।
आज ज़रूरत इस बात की है ईवीएम के प्रयोग की वकालत करने वालों तथा इसका विरोध अथवा इसपर संदेह करने वालों को राष्ट्रवाद अथवा राष्ट्रविरोधी जैसे आडंबरपूर्ण चश्मे से देखने के बजाए इस नज़रिए से देखा जाना चाहिए कि आिखर देश की लोकतंात्रिक प्रक्रिया में भाग लेने वाले राजनैतिक दल व इससे जुड़े वरिष्ठ नेतागण ईवीएम मतदान प्रक्रिया व मतगणना पर उंगली उठाते ही क्यों हैं? क्या लोकतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया में यह ज़रूरी नहीं कि इसमें लोक विश्वास भी शामिल हो? तर्क जब कुतर्क पर उतर आए तो ऐसे जवाब दिए जा सकते हैं कि भारतीय जनता पार्टी जब यूपी व उत्तराखंड में धांधली करा सकती थी तो उसने पंजाब में क्यों नहीं कराया? ज़ाहिर है ऐसे तर्क देने पर भाजपाईयों को भी यह बताना पड़ेगा कि यदि ईवीएम भरोसेमंद है तो 2009 के चुनाव परिणाम के बाद उन्हें ईवीएम चुनाव प्रणाली क्यों खटकने लगी थी? उत्तरप्रदेश व उत्तराखंड के चुनाव परिणामों में ईव्ीएम द्वारा हेराफेरी की गई हो ऐसा ज़रूरी तो नहीं है परंतु यह तो ज़रूरी है कि उत्तर प्रदेश में सत्ता में रह चुकी बसपा जैसी पार्टी की प्रमुख तथा इस बार भी सत्ता में वापसी की उम्मीद लगाए बैठी मायावती द्वारा उठाई जाने वाली आवाज़ को चुनाव आयोग द्वारा प्रत्येक पहलू से संतुष्ट किया जाए?
पूरा विश्व जब आधुनिकीकरण की राह पर आगे बढ़ रहा हो तो निश्चित रूप से पुरानी प्रणालियां व तौर-तरीके भी पीछे छूट जाते हैं। वक्त और ज़रूरत के अनुसार भी कई रास्ते अिख्तयार करने पडऩे पड़ते हैं। बैलेट पेपर व बैलेट बॉक्स को त्याग कर ईवीएम की ओर बढऩा भी एक ऐसा ही कदम है। परंतु जहां ईवीएम में कई अच्छाईयां हैं वहीं इसमें कई कमियां भी हंै। बैलेट पेपर के विरोध में एक तर्क यह भी है कि इसमें बेइंतहा कागज़ का इस्तेमाल होता है जिसका सीधा असर जंगल में लकड़ी की कटान पर पड़ता है। परंतु बैलेट पेपर द्वारा मतदान के पक्षकार कहते हैं कि पांच वर्ष में एक बार बैलेट पेपर में जितना कागज़ इस्तेमाल होता है उससे अधिक कागज़ एक दिन के अखबार प्रकाशित होने में लग जाता है। दूसरी तरफ एक बैलेट बॉक्स तो कई बार प्रयोग में लाया जा सकता है जबकि ईवीएम को प्रत्येक दस वर्ष बाद बदलना होता है। इन मशीनों को चलाने के लिए तकनीकी प्रशिक्षण की भी ज़रूरत होती है। ईवीएम द्वारा किए जाने वाले मतदान में 64 से अधिक उम्मीदवार हिस्सा नहीं ले सकते जबकि बैलेट पेपर में ऐसा नहीं है। हां ईवीएम व बैलेट पेपर के मतदान में एक मुख्य अंतर इस बात का ज़रूर है कि मतदान पत्र के प्रयोग के समय देश के विभिन्न क्षेत्रों से बूथ कैपचरिंग किए जाने की खबरें आती रहती थीं जोकि ईवीएम का इस्तेमाल शुरु होने के बाद आनी बंद हो गईं। वैसे भी बूथ कैपचरिंग कानून व्यवस्था तथा सुरक्षा से जुड़ा विषय था इसकी जि़म्मेदारी मतपत्र द्वारा की जाने वाली मतदान प्रणाली पर दोष के रूप में नहीं डाली जा सकती।
भाजपा प्रवक्ता जीवीएल नरसिम्हराव द्वारा लिखित पुस्तक ‘डेमोक्रेसी एट रिस्क’ में यह संदेह व्यक्त किया गया है कि चूंकि मशीन से भी गलतियां हो सकती हैं लिहाज़ा ईवीएम गलती नहीं कर सकती यह कहना ठीक नहीं है। इसी पुस्तक में ईवीएम से चुनाव कराने के चुनाव आयोग के फैसले,ईवीएम में होने वाली धांधली की संभावनाओं,हैकिंग की संभावना,असुरक्षित सॉफ्टवेयर व हार्डवेयर तथा ईवीएम के प्रयोग की संवैधानिक स्थिति जैसे विषयों पर तो प्रश्र उठाया ही गया है साथ-साथ चुनाव प्रक्रिया में पारदर्शिता व चुनाव प्रक्रिया के सत्यापन को सुनिश्चित करने की आवाज़ भी उठाई गई है। निश्चित रूप से आज का सबसे बड़ा सोचने व चिंतन करने का गंभीर विषय यही है कि बजाए इसके कि हम यह देखें कि ईवीएम के पक्ष या इसके विरोध में किसने आवाज़ उठाई। और यह सोचें कि उसने आवाज़ इसलिए उठाई क्योंकि वह चुनाव में पराजित हुआ है। आज देश की सरकार को यह सोचने की ज़रूरत है कि चुनाव आयोग के सहयोग से वह हर कीमत पर यह सुनिश्चित करे कि देश की लोकतंात्रिक चुनाव व्यवस्था में प्रत्येक मतदाता को इस मुद्दे पर शत-प्रतिशत संतुष्ट होना चाहिए कि उसने जिसके पक्ष में मतदान किया है उसका मत उसी के खाते में गया है तथा उसके साथ किसी तरह की हेराफेरी नहीं की गई है। लोकतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया में लोक विश्वास का होना जीत व हार से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है।
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निर्मल रानी
लेखिका व् सामाजिक चिन्तिका
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं !
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