– घनश्याम भारतीय –
इस प्रसिद्व शेर से उस देश भक्त समाजसेवी के संघर्षों और उपलब्धियों की कहानी उभारती है जिन्हें हम पूर्वांचल के गांधी कहते हैं। यह कोई अतिश्योक्ति नही अपितु वह सच्चाई है जिससे कभी मंुह नही मोड़ा नही ता सकता। गंाधीवादी विचारधारा से ओत प्रोत होकर उन्होंने सरकारी नौकरी का परित्याग कर जब राष्ट्र सेवा का ब्रत लिया तो कभी पीछे मुड़कर नही देखा। गुलामी की जंजीरों से भारत मां के मुक्ति के आंदोलन से लेकर आजाद भारत में उन्होंने संघर्ष का जो नमूना पेश किया वह शदियों तक नही भुलाया जा सकता। राज्य सरकार में कई बार मंत्री रहकर भी उन्होंने हमेशा पीड़ित मानवता की ही आवाज बुलंद की।
यह कोई और नही बल्कि बापू जयराम वर्मा थे जिन्होंने गंाधीवादी विचाार धारा के आवरण से स्वयं को आजीवन ढके रखा। उनका जन्म गुलामी के गहन गहवर में 4 फरवरी 1904 को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन फैजाबाद और अब अंबेडकरनगर जिले के टांडा तहसील के बड़ागांव में नन्हकू चौधरी और नेपाली देबी के पुत्र के रूप में हुआ था। उनके पिता साधारण किसान थे। यह वह दौर था जब भारत की धरती अंग्रेजों के खूंखार पंजे से लहू लुहान थी और उसका आर्तनाद देशभक्तों को झकझोर रहा था। स्थानीय स्तर पर प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद उन्होंने राजकीय इन्टर कालेज फैजाबाद से इंटर और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक और गणित में परास्नातक की डिग्री हासिल की और टांडा के प्रसिद्व शिक्षण संस्थान एचटी इंटर कालेेज में अध्यापन कार्य में जुट गए। उनको करीब से जानने वाले बताते हैं कि टांडा में शिक्षण कार्य करते हुए वे अंग्रेजों के खिलाफ होने वाले आंदोलनों की रूपरेखा तैयार करने के लिए होने वाली बैठकों में शामिल होने से स्वयं को नही रोक पाये। परिणाम यह हुआ कि विद्यालय प्रबंध तंत्र उनसे खफा होगया तो उन्होंने नैाकरी को लात मार करस्वतंत्रता आन्दोलन में कूदने का निर्णय ले लिया। 1942 के भारत छोड़ा ओन्दोलन सहित कई अन्य आन्दोलनों में सक्रिय भागीदारी के चलते उन्हें कई बार वाराणसी और फैजाबाद में कठोर जेल यातनाएं भी सहनी पड़ी। उनके जेल में रहते ही उनकी पत्नी प्राना देवी की मौत ने उन्हें तोड़ दिया फिर भी वह हिम्मत नहीं हारें।
इसी बीच १९४६ में बाराबंकी से निर्विरोध विधायक होने के बाद शुरु हुआ उनका सियासी सफर जीवन के अंतिम क्षण तक चलता रहा। आजादी के बाद पहले आम चुनाव से लेकर १९६७ तक ४ बार कांग्रेस के टिकट पर लगातार विधायक निर्वाचित हुए जयराम वर्मा इसी बीच १९६७ में डॉ संपूर्णानंद के मुख्यमंत्रित्व काल में उप मंत्री बने। यह पद चंद्रभानु गुप्ता व सुचेता कृपलानी के शासनकाल में भी कायम रहा। लेकिन १९६७ में मतभेदो के चलते कांग्रेस को अलविदा कह कर किसान नेता चौधरी चरण सिंह के साथ मिलकर जन कांग्रेस नामक दल का गठन किया। तब अल्पमत में आने के चलते चंद्रभानु गुप्त के त्यागपत्र देने के बाद १ अप्रैल १९६७ को मुख्यमंत्री बने चौधरी चरण सिंह सरकार में जयराम बर्मा सामुदायिक विकास, पंचायती राज, कृषि एवं गन्ना विकास मंत्री बनाए गए। यहां से किसानों के लिए तमाम अहम फैसले लिए। कुछ महीने बाद पार्टी का नाम बदल कर भारतीय क्रांति दल रखा गया। जिसके टिकट पर १९७० में टांडा से विधायक चुने जाने के बाद कृषि और गन्ना विकास विभाग के कैबिनेट मंत्री बनाए गए।
बताते हैं कि १९७४ में आपातकाल लागू होने के बाद कुछ बिंदुओं पर चौधरी चरण सिंह से भी मतभेद हुआ। फिर कमलापति त्रिपाठी की सलाह पर बीकेडी छोड़कर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के हमराह हो गए। १९७६ में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जय राम वर्मा को भारतीय बीज निगम का चेयरमैन नियुक्त किया। अगले वर्ष कांग्रेस की पराजय की जिम्मेदारी लेते हुए श्री वर्मा ने इस पद से इस्तीफा दे दिया। जबकि इंदिरा गांधी नहीं चाहती थी कि वह इस्तीफा दे। फिर १९८० में हुए लोकसभा चुनाव में फैजाबाद से सांसद चुने गए जय राम वर्मा १९८५ में टांडा से विधायक चुने जाने के बाद राज्यपाल द्वारा उंहें स्पीकर नियुक्त किया गया ।फिर नारायण दत्त तिवारी के मंत्रिमंडल में नियोजन मंत्री भी बनाए गए। सबसे बड़ी बात यह रही कि चुनाव से पूर्व तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उन्हें हिमाचल प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त किया। जिसे उन्होंने क्षेत्र के मोह में ठुकरा दिया था।
वास्तव में जयराम वर्मा गांधी विचारधारा के वह जुझारु व्यक्ति थे जो क्षेत्र व समाज के विकास के लिए संघर्ष को अपनी सियासी पूजी मानते थे। और जीवन की सार्थकता भी इसी को समझते रहे। उन्होंने राजनीति के साथ-साथ सामाजिक व शैक्षिक क्षेत्र में भी बड़े-बड़े काम किए। तमाम शिक्षण संस्थानों की स्थापना किया और कई अनेक शिक्षण संस्थानों की प्रबंध कार्यकारणी से जुड़े रहे। यही नहीं पिछडे और दलित समाज के सैकड़ों बेरोजगारों को सरकारी नौकरी से जोड़कर उन्होंने इस समुदाय के स्तर को ऊंचा उठाने का भी प्रयास किया। राम जन्मभूमि अयोध्या में पर्यटन कार्यालय खोलने के साथ-साथ अपने गृह क्षेत्र से होकर तमाम रेलगाड़ियां शुरु कराने, फैजाबाद और अकबरपुर में उनके ठहराव सुनिश्चित करने का श्रेय भी उन्हें ही जाता है। डॉ राम मनोहर लोहिया के बाद इस जिले के वे दूसरे राजनीतिक व्यक्ति थे जिन्होंने विदेशों में भारतीय तिरंगे का मान बढ़ाया। १९६८ में वे सरकार के आमंत्रण पर कृषि संबंधी अध्ययन के लिए अमेरिका गए। सांसद रहते हुए सरकारी कार्यों में हिंदी के प्रयोग संबंधी अध्ययन के लिए रूस, जर्मनी, फ्रांस, हालैंड, ऑस्ट्रेलिया, मिश्र, कनाडा एव ग्रेट ब्रिटेन की यात्राएं भी की। उनके संघर्षों के चलते ही उन्हें पूर्वांचल का गांधी भी कहा जाने लगा। वह मानवीय गुणों के पोषक होने के साथ-साथ मानवता के रक्षक, न्याय प्रिय व्यक्तित्व, संघर्षशील नेता, साहसी व धैर्यवान व्यक्तित्व, सरस व आदर्श पुरुष की भूमिका पर सदैव खरे उतरे। खाली समय में वे चरखे पर सूत भी कातते थे।रह-रहकर उन पर सवर्ण विरोधी होने के आरोप भी लगते रहे फिर भी वह इससे कभी विचलित नहीं हुए। इसी बीच १३ जनवरी १९८७ को उन्होंने सदा के लिए आंखें मूँद ली। आज उनके हजारों अनुयाई उनके कारवां को गति देने में जुटे हुए हैं।
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