{ वसीम अकरम त्यागी * } मैं किसी धर्म में दुर्गा हूं, लक्ष्मी हूं, सरस्वती हूं, काली हूं, तो किसी मज्हब में मैं मरियम हूं, तो इस्लाम में हजरत खदीजा, और बीबी फातिमा हूं, कोई शायर मुझे बेटी कहता है तो कोई अपने आंगन की चिड़िया, कोई गुड़िया कहता है तो कोई लख्ते जिगर. मगर हर जगह मेरी ही अस्मत खतरे में है मुझे डर लगता है अपने घर से निकलते हुऐ, मुझे डर लगता है अकेले जाते हुऐ, मैं घबराती हूं इंसानों को देखकर मां का पेट हो या उसके बाहर की दुनिया मैं कहीं भी महफूज नहीं हूं। कभी मुझे दुनिया में आने से पहले ही मार दिया जाता है तो कभी सरे राह मेरी इज्जत लूटी जाती है मुझे इंसानी श्कल नुमा भेड़िये अपनी हवस का शिकार बनाते हैं। अगर उनसे बचती हूं तो घरेलू हिंसा का शिकार होती हूं लोग मुझे दान की उपभोग की वस्तू समझते हैं। जन्म से लेकर मृत्यू तक मेरे साथ भेद भाव होता है. ये भेद भाव करने वाले कोई गैर नहीं हैं कहीं पर मेरे माता पिता हैं तो कहीं पर कोई और मैं क्या करुं ? मैं चाहती हूं फहमीदा रियाज बनना मगर लोग मुझे कुछ और बना देते हैं मैं चाहती हूं सुनीता विलियम्स, भूमिका चावला, पाटिल बनना मगर इंसानी शक्ल में घूमने वाले भेड़िये मुझे नोच कर खा जाते हैं। हर कोई मुझे रौशनी कहता है मगर मैं कैसी रौशनी हूं जो अब अंधेरों से खौफजदा हो गई हूं ? आखिर इन सबका जिम्मेदार कौन है ? कहीं पर मैं 77 साल की बूढ़ी होकर इस बलात्कार रूपी दंश को झेलती हूं तो कभी पांच साल की बच्ची होकर भी मेरे साथ एसी हैवानी घटनायें घटी जाती हैं. मैं पूछना चाहती हूं समाज से कि आखिर इन घटनाओं जिम्मेदार कौन है ? अपनी बेबसी पर रोते हुऐ मुझे ये जुमला क्यों याद आता है कि “हर मर्द बलात्कारी नहीं होता मगर हर बलात्कारी मर्द ही होता है ” अभी तो ठीक से एक छमाही भी नहीं गुजरी जब एक प्रतिभा का कत्ल हुआ था और आज ये पांच साल की बच्ची उन भेड़ियों का शिकार है हुई है। मगर अफसोस इस समाज ने मेरे लिये ये कैसी परिभाषाऐं घड़ी हैं कि अगर मेरे साथ ये बलात्कार होता है समाज कहता है कि मेरी इज्जत चली गई. जब कि इज्जत तो बलात्कारी की जानी चाहिये थी जैसे एक जेब कतरे की जेब काटने पर पकड़े जाने पर जाती है एक चोर की जाती है। मगर मेरे साथ यहां भी इंसाफ नहीं है उफ्फ ये कैसा समाज है ? ये कैसी परिभाषायें हैं ? ये कैसे इंसान हैं जिनके बीच रहकर घुटन महसूस होती है। क्या सिर्फ इसलिये कि मैं एक लड़की हूं ? जिसके साथ रोजाना देश भर में में बलात्कार की घटनायें तमाम कोशिशों के बावजूद होती रहती हैं। जिन्हें रोकने के लिये प्रदर्शन भी किये जाते हैं और कैंडल मार्च भी निकाला जाते हैं , मगर नतीजा कुछ खास नहीं निकलता। शायद वक्त आ गया है कि हमें इस समस्या से लड़ने के लिए एक दो जगहों पर नहीं बल्कि पूरे देश में एक साथ मिलकर लड़ना होगा। सिर्फ हंगामे से बात नही बनेगी, समस्या को समझना भी होगा। एक दूसरे को दोषी ठहराने से बात नही बनेगी, खुद के अन्दर झांकना भी होगा। घटना के बाद ही आवाज़ उठाने से नही होगा, कोई घटना फिर किसी के साथ नही हो इसकी तैयारी करनी होगी। यही मेरी कोशिश है यही मेरी संक्षिप्त कहानी है, अगर इस कहानी को पढ़कर इस इबारत को पढ़कर आपके दिल में मेरे लिये दया का समुंद्र उफान मार रहा है तो दिलाईये मुझे न्याय शुरुआत कीजिये अपने घर से अपने पड़ोस से मेरा रोना बस इतना ही नहीं है कि मेरे साथ अस्मतदरी होती है बल्कि रोना ये है भी है कि मेरे साथ घर से लेकर बाहर तक सारी दुनिया एक जैसी है जहां पर मेरे साथ भेद भाव होता है कर दीजिये उसे खत्म. उखाड़ कर फेंक दीजिये उन धारणाओं को जो मुझे कैद करके रखना चाहती हैं ताकी फिर कोई रौशनी अंधेरों से डर ना सके । और कोई यह न कह सके कि खौफजदा शहजादी है।
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* वसीम अकरम त्यागी
उत्तर प्रदेश के जिला मेरठ में एक छोटे से गांव अमीनाबाद उर्फ बड़ा गांव में जन्म
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एंव संचार विश्विद्यलय से पत्रकारिता में स्नातक और स्नताकोत्तर
समसामायिक मुद्दों और दलित मुस्लिम मुद्दों पर जमकर लेखन। यूपी में हुऐ जिया उल हक की हत्या के बाद राजा भैय्या के लोगों से मिली जान से मारने की धमकियों के बाद चर्चा में आये ! फिलहाल मुस्लिम टूडे में बतौर दिल्ली एनसीआर संवाददता काम कर रहें हैं
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