– संजय रोकड़े –
इस हादसे में मरने वाले छोटे बच्चों की मौत से मुझे गहरा सदमा पहुंचा है। इस हादसे को लेकर मैं व्यक्तिगत रूप से दुखी हूं और पीढ़ा महसूस कर रहा हूं। हादसे में बच्चों को गवां देने वाले अभिभावकों के साथ मेरी पूरी संवेदना व सहानूभुति है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने टवीट के माध्यम से एटा में हुए स्कूली बच्चों की बस दुर्घटना पर खेद जताते हुए यह बात कही है। सच पूछो तो हमारे देश में बच्चों खासकर स्कूली बच्चों की सुरक्षा कभी भी राजनीतिक नुमांइदों की चिंता का सबब नही रही है। बच्चे भी कभी नेताओं की सुरक्षा में शामिल होते तो शायद उत्तर प्रदेश के एटा जिलें में इस तरह की हृदय विदारक सड़क दुर्घटना नही होती। स्कूल-बस गांवों में रहने वाले छात्रों को लेकर अलीगंज जा रही थी कि अचानक कोहरे की वजह से रास्ते में बालू-लदे ट्रक से टक्कर हो गई। टक्कर इतनी जोरदार थी कि बस के सामने के परखच्चे उड़ गए और वह खड््डे में जा गिरी। इतनी बड़ी दुर्घटना सिर्फ दो वाहन चालकों की लापरवाही का नतीजा नहीं है, बल्कि इसके पीछे गुनाहों की लंबी फेहरिस्त है, जिसकी शिनाख्त जरूरी है। इस हादसे में हैरान करने वाली बात तो ये है कि जिस स्कूली बस से दुर्घटना हुई है, उसका पंजीकरण तक नहीं था। ग्रामीण क्षेत्रों में डग्गामार बसों को अक्सर स्कूलों में लगा दिया जाता है। चालकों-परिचालकों की काबिलियत व अनुभव का भी कोई परीक्षण नहीं किया जाता है। अगर सचमुच कस्बों-देहातों में चल रहे पब्लिक स्कूलों की जांच कराई जाए तो दो-चार प्रतिशत भी निर्धारित मानकों का पालन करते हुए नहीं मिलेंगे। अक्सर देखा जाता है कि जिला प्रशासन के आदेश को निजी यानी पब्लिक स्कूल मानते ही नहीं है। राज्यों के शिक्षाधिकारियों की भी वे नहीं सुनते। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद पब्लिक स्कूल न वाहनों की गुणवत्ता का ध्यान रखते हैं और न सेवा-शर्तें पूरी करते हैं। गहराई में जाकर देखें तो कस्बों और छोटे शहरों में बड़े महानगरों की देखा-देखी में पब्लिक स्कूलों की बाढ़ सी आ गई है। ये स्कूल ज्यादातर किसी स्थानीय नेता, नवधनाढ्य या ठेकेदार जैसे लोगों के होते हैं, जिनका शिक्षा से कोई सरोकार नहीं होता, इनका मसकद सिर्फ मुनाफाखोरी होता है। वे स्कूल तो खोल लेते हैं, लेकिन मानक कभी पूरे नहीं करते है। स्कूलों में न निर्धारित खेल मैदान होते हैं, न पुस्तकालय, न ही प्रयोगशाला। यहां तक कि शिक्षक भी दिहाड़ी मजदूरों जैसे ही रखे जाते हैं। स्कूलों में चालक के वेतन को लेकर भी कोई संजीदगी नही होती है। छात्रों को लाने-ले जाने के लिए जिस तरह की बसें और चालक रखने चाहिए, उसका भी कोई मानक नहीं होता है। अफसरों को घुस देकर मान्यता भर ले ली जाती है। जब सब कुछ रामभरोसे ही चल रहा होता है तो नतीजा तो इसी रूप में सामने आएगा।
बता दे कि इस भयानक सड़क दुर्घटना में दो दर्जन से ज्यादा स्कूली बच्चों की मौत हो गई है और ढाई दर्जन गंभीर रूप से जख्मी हुए हैं। यह सड़क हादसा घोर चिंता का सबब है। स्कूली वाहनों की दुर्घटनाएं पहले भी हुई हैं, लेकिन यह हाल के बरसों का कहीं ज्यादा भीषण हादसा है। जिन परिवारों के अपने नौनिहाल खो गए हैं, उन पर क्या बीत रही होगी! क्या उनके दुख को किसी मौखिक सांत्वना या मुआवजा राशि से हल्का किया जा सकता है?
इतना बड़ा हादसा होने के बावजूद एक बार फिर हमारे शासन-प्रशासन के नुमांइदे सामान्य तौर पर इसे सड़क दुर्घटना बताकर अपने कर्तव्य की इतिश्री करने में जुट गए है। इस तरह के हादसे बार-बार क्यों होते है उस पर अंकुश कैसे लगे इस पर ईमानदार पहल करने की कोई भी कोशिश नही की जा रही है। ठीक उसी तरह से जैसे पिछले हादसों में होते आया है, खानापूर्ति के लिए कुछ मृत बच्चों के पालकों को मुआवजा दिया जाएगा, जांच के नाम पर एक कमेटी बना दी जाएगी और समय के साथ-साथ सब कुछ सामान्य हो जाएगा। बच्चों का एक्सीडेंट क्यों और किसकी गलती के चलते हुआ उस असल कारण पर पर्दा ड़ालने का ही काम किया जा रहा है। बच्चों की सुरक्षा को लेकर जिस तरह से हमारे नीति-निर्माताओं का रवैया है उसको देखते हुए तो नही लगता है कि इस तरह की दुर्घटनाओं का अंत होगा,न ही भविष्य में ऐसे हादसों को रोकने का कोई कारगर उपाय सुझता है।
इस हादसे में तो प्रथमदृष्टया दोषी स्कूल प्रशासन ही दिखाई दे रहा है। जब ठंड की वजह से स्थानीय जिला प्रशासन ने सभी स्कूलों को स्कूल-बंदी के आदेश दे दिए थे तो फिर क्यों जेएस विद्या निकेतन पब्लिक स्कूल खुला था। निजी स्कूलों की इस तरह की मनमानियां देश के हर इलाके से समय – समय पर सामने आती रही है, लेकिन देखने में आया है कि हमारे राजनेता स्कूल माफियाओं के आगे हमेशा नतमस्तक ही दिखाई दिए है। अभी भी नियम स्कूल प्रशासन ने तौड़ा और नतीजा बच्चों को भुगतना पड़ा। हालकि यह हादसा अपने पीछे कई सवाल छोड़ गया है। सबसे पहला और अहम सवाल तो ये है कि जब हमारे नीति-निर्माताओं व स्कूल संचालकों ने हमारे नौनिहालों की सुरक्षा की ङ्क्षचता नही है तो फिर सवाल उठता है कि अभिभावक कितने चिंतित है। सवाल हमारे बच्चों की जिंदगी का जो है, ऐसे कैसे किसी के हाल पर छोड़ा जा सकता है। भारत में आज भी 31 करोड़ से अधिक आबादी सिर्फ छात्रों की है और इनमें करोड़ों नन्में-मुन्ने छोटे बच्चे है। इनके संबंध में कभी भी यह नही सोचा गया कि आखिर इतनी बड़ी आबादी को स्कूलों तक सुरक्षित कैसे पहुंचाया जाए?
आज भी ऐसे अभिभावकों की खासी कमी है जो स्कूल प्रशासन व स्कूलों में संचालित किए जा रहे वाहन चालकों की मनमानी पर सवाल खड़ा करते हो। हालाकि ऐसे अभिभावकों की संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती हैैं, जो मनमाने तरीके से बच्चे ढ़ोने वाले वाहन चालकों की शिकायत जिला प्रशासन या स्कूल प्रशासन से करते हैं और सुनवाई न होने पर उनका वाहन बदल देते है। समाज में ऐसे अभिभावक भी कम ही दिखाई देते है जो अपने बच्चों को स्कूल पहुंचाने के लिए खुद वक्त निकाल पाते हो। कितने अभिभावक हैं, जो अपने बच्चे को वैन तक छोडऩे और लेने के लिए पहले से खड़े रहते हैं, ताकि वैन से उतरने के बाद बच्चा किसी हादसे का शिकार न हो? स्कूली वाहनों के बड़े-बड़े हादसे होने के बाद भी ज्यादातर अभिभावक चेतते नही है। अभी भी इस बात को लेकर कोई संवेदनशील नही दिखई देते है कि स्कूलों में शिक्षक-अभिभावक मीटिंग में वाहन की गड़बड़ी, चालक की अनियमितता पर बात की जाती हो? आश्चर्य तो इस बात का है कि अभिाभावकों को इतना भी पता नही है कि उनके नौनिहालों की सुरक्षा के लिए स्कूल बस या वैन में ‘स्पीड गवर्नरÓ होना चाहिए। होने को तो स्कूल बसों में सीसीटीवी भी होने चाहिए, पर शायद ही ऐसा हो। सच तो ये है कि हमारी पढऩे वाले नौनिहालों का बड़ा हिस्सा आज भी संसाधनों का मोहताज है। कहीं इसे नदी-नाले पार करके स्कूल पहुंचना पड़ता है, तो कहीं लंबी दूरी चलकर। शहरी आबादी को जरूर स्कूली बस या वैन सेवा उपलब्ध है, पर वह कितनी सुरक्षित है, इस पर बार-बार बहस करनी पड़ती है। यानी हमारे पास बच्चों को स्कूल तक सुरक्षित पहुंचाने की कोई सुविचारित नीति नहीं है।
सही मायने में हम चाहे तो थोड़ी सी सजगता दिखा कर भी बहुत से हादसों पर अंकुश लगा सकते है। इस मौके पर कुछ माह पूर्व भदोही में हुए हादसे का जिक्र करना भी लाजिमी हो जाता है- जब एक स्कूल वैन मानव रहित रेल क्रॉसिंग पर एक ट्रेन से जा टकराई थी। उस हादसे में बचे बच्चों ने बताया कि उनकी वैन का ड्राइवर ईयर- फोन लगाकर गाने सुनता हुआ चलता था और गाना खत्म होने के पहले उन्हें स्कूल या घर पहुंचा देने का दम भरता था। सब उसकी गलतियों की अनदेखी करते रहे। इस बार भी वैसी ही अनदेखी सामने आई है, 27 सीट की बस में 40 बच्चे भरे थे। यह रोज होता था, मगर किसी ने आवाज नहीं उठाई। याने बच्चों की सुरक्षा को लेकर चंद अभिभावकों को छोड़कर सबके सब भेड़ चाल में शामिल है। खुदा ही मालिक है कि तर्ज पर बच्चों को स्कूलों के हवाले छोड़ दिया जाता है। एटा में हुए स्कूली बस हादसे के बाद यह सवाल फिर मौजूं हो गया है। हादसे में कई बच्चों की जानें गईं, कुछ अन्य लोगों की भी। इसका दोष किस पर मड़ा जाए? सुबह की धुंध इसका एक कारण भर हो सकती है, मगर क्या यह सच नहीं है कि चालक अनियंत्रित था और इसी कारण टक्कर इतनी तेज हुई कि आवाज दूर तक सुनी गई? हादसे का बड़ा जिम्मेदार स्कूल का अति-उत्साही प्रबंधन भी तो है, जिसने सर्दी और कुहासे के कारण प्रशासन की ओर से घोषित बंदी के बावजूद स्कूल खोलने की गैर-जिम्मेदाराना हरकत की। हां, बड़ा सवाल उस तंत्र से भी होना चाहिए, जिसकी जिम्मेदारी ये सारी व्यवस्थाएं सुनिश्चित करने की है। उस तंत्र की कार्य-प्रणाली की भी पड़ताल होनी चाहिए। यदि ऐसा होने लगे, तो न स्कूल मनमानी कर पाएंगे, न वाहन चालक। अभिभावक भी सचेत रहेंगे। पर सच तो ये है कि जब तक नियमावली का कड़ाई से पालन नहीं किया जाएगा, तब तक किसी निरापद स्थिति की कल्पना एक भूल ही होगी।
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संजय रोकड़े
पत्रकार ,लेखक व् सामाजिक चिन्तक
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लेखक पत्रकारिता जगत से सरोकार रखने वाली पत्रिका मीडिय़ा रिलेशन का संपादन करते है और सम-सामयिक मुद्दों पर कलम भी चलाते है।
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