रचनाएँ
1-
ये छत के छज्जों से लटकती लड़कियां/
मुझे लगता है ऐसा/
जैसे /
रुढ़िवादी,अहंकारी नकचढ़ी/
सदियों से सीना तान खड़ी इन छतों को झुकाने के कोशिश में हैं….
2-
इंसान को भगवान् ने बनाया/
या भगवान को इंसानों ने/
इस बहस से परे/
मैं गढ़ना चाहता हूँ-
इक भगवान, अल्लाह,गॉड
जो भी तुम कहते हो/
जिसका चेहरा हो रोटी-सा गोल/
और आँखे सेब या संतरे सी तकती हो टुक-टुक/
नाक आम-सी नुकीली/
उंगलियाँ भिन्डी-सी नाजुक/
और हथेलियाँ पराठे-सी फैली हुई/
चेहरा दूध-सा सौम्य/
और मक्खन-सा कोमल दिल/
देह दाल या सब्जी सी पीली/
और जिस्म से आती हो ऊसने भात की सी खुशबू/
ये भगवान् सबसे शक्तिशाली भले न हो/
न ही बिग बॉस सा सबको घूरता हो हरदम/
भले ही इसके हाथों में हथियारों का जखीरा न हो/
भले ही अधर्म के नाश का इसके सर बीड़ा न हो/
पर ये सहज सुलभ होना चाहिए/
इसे होना होगा हर जगह मौजूद/
इसे यत्र तत्र सर्वत्र होना चाहिए……./
3-
मिडिल क्लास लटकती हुई लाशें हैं…
जो हवा के रुख से
पेंडुलम की तरह हिलती डुलती रहती है
इसकी कलाई थामे कुछ शातिर लोग इस पार से उस पार
जमीन से मंच तक
और मंच से पंच हो जाते हैं
पर इनकी स्थिति स्थायी बनी रहती है…
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अमरजीत गुप्ता
प्रगतिशील लेखक, कवि एवं चिन्तक
– अवज्ञा जनसंस्थान में कार्यरत
– मोती लाल नेहरु कालेज दिल्ली से राजनीत शास्त्र में परास्नातक
– दिल्ली में करते हैं है
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सभी रचनाएं बहुत ज़बरदस्त …………… विशेषकर ”भगवान्”(मैंने स्वयं ही नाम दे दिया )शुभकामनाएँ एवं बधाई रचनाकार को