प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में बड़े ही आत्मविश्वास के साथ दिल्ली में एक चुनावी सभा में कहा था कि ‘जो देश चाहता है वही दिल्ली चाहती है’। वैसे तो उन्होंने और भी कई हल्की बातें अपने भाषण में कीं। परंतु भाजपा के दिल्ली चुनाव हारने के बाद इस वाक्य की $खासतौर पर मीडिया द्वारा यहां तक कि $खुद भाजपा के भीतर व भाजपा के शिवसेना जैसे सहयोगियों द्वारा समीक्षा की जाने लगी है। दिल्ली के चुनाव में आज तक किसी भी प्रधानमंत्री ने अपनी पार्टी के पक्ष में पांच-पांच जनसभाएं नहीं संबोधित कीं। अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्र बनाकर कोई भी प्रधानमंत्री दिल्ली विधानसभा के चुनाव नहीं लड़ा। और अपने भाषण में भी किसी प्रधानमंत्री ने ऐसी शब्दावली का प्रयोग नहीं किया जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा किया गया। चुनाव प्रचार के दौरान सा$फ नज़र आ रहा था कि भाजपा युद्ध स्तर पर चुनाव लडक़र किसी भी $कीमत पर दिल्ली चुनाव जीतना चाह रही है। $खबरों के मुताबि$क नरेंद्र मोदी के दिल्ली विजय के इस अति महत्वाकांक्षी मिशन को परवान चढ़ाने में मीडिया प्रचार व पोस्टर युद्ध पर न केवल अरबों रुपये फूंक दिए गए बल्कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भी एक अनुमान के अनुसार लगभग अपने सवा लाख स्वयं सेवकों को दिल्ली चुनाव जीतने की $गरज़ से चुनाव प्रचार में झोंक दिया। परिणामस्वरूप आम आदमी पार्टी जोकि अपने सीमित संसाधनों से चुनाव लड़ रही थी उसे रिकॉर्ड बहुमत यानी 70 में से 67 सीटों पर विजयश्री हासिल हुई। भारतीय जनता पार्टी द्वारा प्रधानमंत्री व संघ स्तर पर इतनी मश$क्$कत किए जाने के बाद तथा सभी चुनावी तिकड़मबाजि़यां व हथकंडे इस्तेमाल किए जाने के बावजूद इस प्रकार मुंह की खाने के बाद यह सवाल उठना ज़रूरी हो गया है कि क्या वास्तव में प्रधानमंत्री का यह कथन सही है कि ‘जो देश चाहता है वही दिल्ली चाहती है’?
लोकसभा चुनाव में अपनी भारी बहुमत से हुई विजय के बाद भाजपा का विजय रथ महाराष्ट्र,झांरखंड तथा हरियाणा होते हुए दिल्ली पहुंचा था। अब इस विजय रथ की दिल्ली के बाद पश्चिम बंगाल व बिहार जैसे बड़े राज्यों में रवानगी होनी थी। परंतु पार्टी की दिल्ली दुर्गति के बाद विजय रथ के पहिए दिल्ली में ही निकल गए दिखाई देने लगे हैं। कल तक जो उद्धव ठाकरे अपनी $खस्ताहालत के चलते भाजपा के झंडे तले अपनी इज़्ज़त बचाने के लिए $खामोश हो गए थे उन्होंने दिल्ली चुनाव के बाद अपने सुर बदल लिए हैं। भाजपा के अंदर से ऐसे स्वर उठने लगे हैं जिसे शुभ संकेत नहीं कहा जा सकता? समाचारों के अनुसार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने तो स्पष्ट रूप से यह कह दिया है कि बिहार विधानसभा चुनाव संघ स्वयं अपनी देख-रेख में लड़ेगा। देश की जनता इस बात पर भी आश्चर्यचकित है कि जगह-जगह मुख्यमंत्रियों के शपथ ग्रहण समारोह में पहुंचने वाले नरेंद्र मोदी ने अरविंद केजरीवाल के शपथ समारोह में शिरकत करने का न्यौता आ$िखर क्यों ठुकरा दिया? कहीं उन्हें दिल्ली चुनाव परिणाम के बाद यह डर तो नहीं सताने लगा था कि रामलीला मैदान में उनकी उपस्थिति में कुछ वैसा ही नज़ारा सामने आ सकता है जैसाकि हरियाणा के कैथल में प्रधानमंत्री नेरंद्र मोदी की मौजूदगी में हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के साथ पेश आया था? उधर दूसरी ओर पश्चिम बंगाल में ममता बैनर्जी,बिहार में नीतिश कुमार व लालू प्रसाद यादव तथा उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं ने दिल्ली में आम आदमी पार्टी की विजय पर न केवल संतोष ज़ाहिर किया है बल्कि $खुशी भी जताई है। केवल देश में ही नहीं बल्कि अमेरिका व चीन जैसे कई देशों के मीडिया ने भी दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणामों पर अपनी टिप्पणी करते हुए इसी बात का अंदेशा ज़ाहिर किया है कि क्या नरेंद्र मोदी का तिलिस्म जो मात्र 9 महीने पूर्व लोकसभा 2014 के चुनावों में दिखाई दे रहा था वह अब टूटने लगा है? और स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा बोले गए इस वाक्य ने कि देश जो चाहता है वही दिल्ली चाहती है,और भी संदेह पैदा कर दिया है।
हालांकि इस विषय पर किसी अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचना तो बहुत जल्दबाज़ी की बात है। परंतु कुछ बातें तो निश्चित रूप से ऐसी हैं जिन्हें नज़रअंदाज़ करना $कतई मुनासिब नहीं है। नरेंद्र मोदी की जिस भाषण शैली की प्रशंसा देश में की जाती है तथा उनका जो भाषण लोकसभा चुनाव के समय देश की तीस प्रतिशत जनता को पसंद आया उन भाषणों के समय-काल ‘भाषणों’ में उठाए जाने वाले मुद्दे तथा उन विषयों को अपने भाषण में प्रयोग करते समय वक्ता के आत्मविश्वास पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। नरेंद्र मोदी के भाषण में प्राय: कांग्रेस व कांग्रेस परिवार अर्थात् नेहरू-गांधी परिवार निशाने पर होता था। उनका भाषण लोकसभा चुनावों से पूर्व कुछ ऐसे विषयों पर आधारित रहता था जो समाज में विभाजन की रेखा खींचते थे। जैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उनके द्वारा गुलाबी क्रांति यानी मांस का निर्यात के विषय पर दिया गया भाषण। वे जनता की सहानुभूति अर्जित करने के लिए बेबात की बात खड़ी करने में भी महारत रखते हैं। उदाहरण के तौर पर अमेठी में जब लोकसभा चुनाव के दौरान प्रियंका गांधी ने कहा कि मैं नीची राजनीति नहीं करती इस पर मोदी जी देश में घूम-घूम कर यह कहने लगे कि मुझे नीच कहा गया है। यही कहकर वे बड़ीचतुराई से जनता के समक्ष ‘बेचारे’ बनकर पेश होते थे । कांग्रेस के भ्रष्टाचार व मंहगाई के दौर से त्रस्त जनता ने उन्हें स्वीकर किया। एक टीवी चैनल को साक्षात्कार के दौरान जिसे $िफक्स साक्षात्कार भी कहा गया मोदी जी ने यह भी कहा कि नेहरू-गांधी परिवार एक चाय वाले को प्रधानमंत्री बनते देखना नहीं चाहता? उन्होंने अपनी बेचारगी दर्शाकर राहुल गांधी को शहज़ादा की उपाधि देकर तथा कांग्रेस से त्रस्त जतना के बीच कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देकर बड़ी ही आसानी से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की पुश्तपनाही हासिल करते हुए देश को एक वैकल्पिक नेतृत्व का सपना दिखाया।
ज़ाहिर है अब इन बातों को 9 महीने बीत चुके हैं। देश अब लगभग कांग्रेस मुक्त हो चला है। अब सोनिया व राहुल या कांग्रेस के विरोध का भाषणों में कोई औचित्य नहीं है। अब गुलाबी क्रांति का लॉलीपॉप भी नहीं चलने वाला। अब समय है अपनी 9 महीने की सरकार की उपलिब्धयां बताने का। अब अगर पुन: मोदी जी सिकंदर को गंगा किनारे बिहार में बुलाते हैं तो गोया देश का प्रधानमंत्री अशिक्षित कहलाएगा। लिहाज़ा भाषण की लंतरानी भी अब देश नहीं सुनने वाला। अब तो जनता यही जानना चाहती है कि जिस गुलाबी क्रांति के विषय में आप मतदाताओं को वर$गला रहे थे वह मांस निर्यात के कारोबार 9महीने में बंद क्यों नहीं किए गए? बजाए उसके इस दौरान इस व्यवसाय में और इज़ा$फा होने का समाचार है? 9 महीने पूर्व आप काले धन की एक-एक पाई देश में वापस लाकर प्रत्येक व्यक्ति के खाते में 15-15 लाख रुपये जमा करवा रहे थे ज़ाहिर है 9 महीने की आपकी सत्ता में अब जनता जानना चाहती है कि कहां है काला धन और कहां हैं हमारे खाते के 15 लाख रुपये? जनता जनधन योजना की ‘टा$फी’ से संतुष्ट नहीं होने वाली? यूपीए सरकार में किसानों के भूमि अधिग्रहण के संबंध में जो $कानून किसानों की सुविधा हेतु बनाए थे उसे भी आपने बदलकर कारपोरेट व उद्योग घरानों की सहूलियत वाला तथा किसान विरोधी $कानून बना दिया। न तो वह मंहगाई रुक सकी जिसे 9 महीना पहले आप स्वयं मुद्दा बनाया करते थे। न तो किसानों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याएं रुक रही हैं। न ही नारी पर होने वाले वार में कमी आई है? देश का $गरीब किसान आज भी बदहाल व परेशान है। परंतु आपके नाम के कहीं मंदिर बन रहे हैं तो कहीं आप दस लाख की $कीमत वाला सूट पहनकर अमेरिकी राष्ट्रपति का स्वागत करते दिखाईदे रहे हैं? आपके 9 महीने के शासनकाल में अनेक सांसद तरह-तरह की अन्यायपूर्ण व बेसिर-पैर की बातें करते फिर रहे हैं? अल्पसंख्यकों के धर्मस्थलों पर देश में कई जगह हमले की $खबरें हैं। परंतु दिल्ली चुनाव परिणाम से पूर्व आपने किसी भी ऐसे विवादित विषय पर संज्ञान लेने की ज़रूरत महसूस नहीं की? जब दिल्ली चुनाव परिणाम 67-3 से आपको आईना दिखाया फिर कहीं जाकर दिल्ली पुलिस कमिश्रर को सरकार ने तलब कर दिल्ली क ेईसाई धर्मस्थलों व स्कूल पर होने वाले हमले के विषय में जानकारी लेने की कोशिश की।
जनता रंगीन अथवा मंहगे कपड़ों से या लच्छेदार भाषणों से सम्मोहित नहीं होती। उसे वादों पर अमल चाहिए। और सकारात्मक परिणाम चाहिएं। जिस प्रकार काठ की हांडी केवल एक बार चढ़ती है उसी प्रकार सत्ता को नीचा दिखाकर,लोगों को सब्ज़बा$ग दिखाकर जनता से झूठ-$फरेब का आडंबर रचकर एक बार सत्ता पर तो $काबिज़ हुआ जा सकता है परंतु परिणाम शून्य होने पर दिल्ली जैसे चुनाव परिणाम की ही उम्मीद की जानी चाहिए। और इन हालात में अब स्वयं नरेद्र मोदी का यह चिंतन कि जो देश चाहता है वही दिल्ली चाहती है वास्तव में अब यह एक राष्ट्रीय चिंतन भी बन चुका है।
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Tanveer Jafri
Columnist and Author
Tanveer Jafri, Former Member of Haryana Sahitya Academy (Shasi Parishad),is a writer & columnist based in Haryana, India.He is related with hundreds of most popular daily news papers, magazines & portals in India and abroad. Jafri, Almost writes in the field of communal harmony, world peace, anti communalism, anti terrorism, national integration, national & international politics etc.
He is a devoted social activist for world peace, unity, integrity & global brotherhood. Thousands articles of the author have been published in different newspapers, websites & news-portals throughout the world. He is also a recipient of so many awards in the field of Communal Harmony & other social activities
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