वाकया 5 अप्रैल 2011 का है जब जंतर-मंतर पर अन्ना अपने समर्थकों के साथ आ बैठे थे। मांग थी कि भरष्टाचार खत्म करने के लिए यूपीए सरकार जनलोकपाल कानून बनाये। आंदोलन कब, कहां, कैसे और किसलिए को लेकर अन्ना समर्थकों ने काफी मंथन किया था। लॉटरी से तय हुआ था कि जनलोकपाल को लेकर आंदोलन किया जाए लेकिन यह तय नहीं हो पाया था कि इसमें राजनीतिज्ञों को बुलाया जाए कि नहीं। तब तक उत्साही समर्थक कुछ नेताओं को न्योता दे चुके थे और नियुक्ति घोटाले में जेल काट रहे हरियाणा के नेता ओ पी चौटाला और भाजपा नेता उमा भारती वायदे के मुताबिक वहां पहुंच गई। आंदोलन को समर्थन मिलने लगा था लिहाजा अन्ना रूपी गांधी के नेहरू बने अरविंद केजरीवाल और उनके समर्थक नहीं चाहते थे कि भरष्टाचार के खिलाफ छिड़ी लड़ाई में •ा्रष्ट नेताओं को मंच पर जगह दी जाए। जंतर मंतर पर पहुंचे नेताओं के खिलाफ हूटिंग हो गई और दोनों नेताओं को बैरंग वापस लौटना पड़ा था। इसके बाद अलग अलग पड़ावों से होता हुआ यह आंदोलन लग•ाग दो साल चला, अन्ना जेल गये और जेल से निकलकर रामलीला मैदान में ऐसे अनशन पर ऐसे बैठे कि यूपीए सरकार हिल गई। फिर इस आंदोलन की धुरी रामलीला मैदान और जंतर मंतर बना रहा और उसी जंतर मंतर पर अरविंद केजरीवाल की पार्टी आप का गर्•ााधान हुआ। अन्ना और देश की पहली महिला आईपीएस अफसर किरण बेदी सरीखे लोग राजनीति में उतरने के पक्ष में नहीं थे जबकि अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसौदिया, प्रशांत •ाूषण वगैरह राजनीति में पारी खेलने की तैयारी कर चुके थे। आगे चलकर अन्ना ने रालेगण सिद्धि का रुख कर लिया और इस तरह आंदोलन की कोख से आप का जन्म हुआ। केजरीवाल अपनी पार्टी से अन्ना और किरण बेदी को जोड़ने के लिए मशक्कत करते रह गये लेकिन दोनों नहीं माने। किरण बेदी को तो उन्होंने दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाने तक का प्रस्ताव दे दिया लेकिन वह ंडिगी नहीं । केजरीवाल अपना कारवां लेकर आगे बढ़ गये और वर्ष २०१३ के अंत में हुए दिल्ली विधानसभा के चुनाव में वो कर दिखाया जिसकी उम्मीद किसी को नहीं थी। मुख्यमंत्री बने और फिर तो हौसला इतना बढ़ गया कि पूरे देश में न केवल लोकस•ाा का चुनाव लड़ा बल्कि काशी में जाकर सीधे नरेंद्र मोदी से टकरा गये।
दिल्ली सरकार का सचिवालय प्लेयर्स बिल्डिंग आप के सफर का पहला पड़ाव था जबकि लोकस•ाा चुनाव दूसरा। दो साल की उम्र में सफलता असफलता का स्वाद चख चुकी आप जब तीसरे पड़ाव यानी कि दोबारा हो रहे दिल्ली विधानसभा की तरफ बढ़ी तो शुरू में तो लगा कि मोदी रथ के घोड़े की लगाम आप नहीं थाम पाएगी लेकिन अपने धुन के पक्के केजरीवाल नहीं माने और मोदी रथ को रोकने के लिए आगे कदम बढ़ा दिये। दिल्ली की चमचमाती सड़कों, गगनचुंबी इमारतों, राजधानी की लाइफलाइन बन चुकी मेट्रो के साथ साथ गलियों तक में जब केजरीवाल की आवाजे गूंजने लगी तो मोदी मैजिक के सहारे दिल्ली फतह करने का मंसूबा पाले बैठी भाजपा की जमीन खिसकने लगी। इसी बीच चुनावी शंखनाद से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रामलीला मैदान में दस जनवरी को हुई रैली ने भाजपा को आईना दिखा दिया। 11, अशोका रोड से लेकर रायसीना हिल्स तक कोलाहल बढ़ गया और मोदी के सिपहसलारों को यह चिंता सताने लगी कि यदि मोदी रथ राजधानी में रुका तो इस साल के अंत में बिहार में होने वाला चुनाव मोदी के लिए वॉटरलू साबित होगा। फिर चुनावी माइक्रो मैनेजमेंट के धुरंधर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने मोदी के घोड़े की तरफ केजरीवाल के बढ़ते कारवां को रोकने के लिए उन्हीं के सिपाहियों किरण बेदी, शाजिया इल्मी और विनोद कुमार बिन्नी को आगे कर दिया। किरन बेदी उम्र व प्रशासनिक अनु•ाव के मामले में केजरीवाल से वरिष्ठ हैं और साख •ाी खूब कमाई है। इसीलिए हाल में चार राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों से अलग दिल्ली में किरण को भाजपा का न सिर्फ चेहरा बल्कि मुख्यमंत्री का उम्मीदवार •ाी घोषित कर दिया गया। स्थानीय नेता, जगदीश मुखी, डा. हर्षवर्धन, विजय गोयल और सतीश उपाध्याय स•ाी हाथ मलते रह गये। जगदीश मुखी जैसे अनु•ावी नेता और मनोज तिवारी जैसे नौसिखियों ने किरण का विरोध करने की गलती की तो चौबीस घंटे में ही यू टर्न लेना पड़ गया।
दरअसल जम्मू-कश्मीर चुनाव में मिले झटके के बाद भाजपा कुछ •ाी दावा करे जमीनी हकीकत वह समझ रही है। कश्मीर रणनीति उसकी विफल रही, यह बात अलग है कि वह ग्यारह से पच्चीस सीटों तक पहुंच गई। झारखंड में •ाी सहयोगियों के साथ बहुमत मिला न कि अकेले। इन दोनों राज्यों के परिणाम के बाद विपक्ष ने मोदी मैजिक पर हमला तो बोला लेकिन रस्म अदायगी से इसलिए आगे नहीं बढ़ पाया कि वह खुद निराशा की गर्त में डूबा हुआ है। चार राज्यों के चुनाव में एक और बात साफ हो गई कि अब भाजपा की लड़ाई लगातार कमजोर हो रही कांग्रेस से नहीं बल्कि उन क्षेत्रीय दलों से है जो कि अलग अलग राज्यों में मजबूती से अपनी जमीन बचाये हुए हैं। आप के उदय से पहले तक दिल्ली में मुकाबला सीधे कांग्रेस व भाजपा में होता था। 1993 में जब राजधानी में दोबारा विधानसभा गठित हुई तो पहले चुनाव में भाजपा को सफलता मिली थी और मदनलाल खुराना के नेतृत्व में उसकी सरकार बनी थी जबकि बाद के तीन चुनाव लगातार कांग्रेस जीती और शीला दीक्षित ने पन्द्रह सालों तक दिल्ली में राज किया किन्तु आप के अस्तित्व में आने के बाद वर्ष 2013 में जो चुनाव हुए उसने दिल्ली की सियासत की तस्वीर बदल दी। इस चुनाव के बाद आप ने न केवल सरकार बनाई बल्कि कांग्रेस को तीसरे पायदान पर लाकर खड़ा कर दिया। सवा साल का जो मौका मिला उसका ला•ा कांग्रेस नहीं उठा पाई। पार्टी ने युवाओं का मिजाज •भांपकर अरविंदर सिंह लवली के रूप में युवा प्रदेश अध्यक्ष तो दे दिया किन्तु लवली इस दौरान न तो संगठन खड़ा कर पाये और न ही कार्यकर्ताओं में जोश •ार पाये। हार की डर से चुनावी मैदान में पीठ अलग दिखा दिया। ऐन मौके पर पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने चुनावी जंग में न उतरने का ऐलान कर न केवल पार्टी को मुश्किल में डाल दिया बल्कि किसी को बहुमत न मिलने की स्थिति में आप का फिर से समर्थन करने की बात कहकर गलत संदेश दे दिया। मजबूरी में कांग्रेस को अजय माकन को कमान देनी पड़ी किन्तु उससे चुनावी जंग में कोई खास फर्क पड़ता नहीं दिख रहा है और इन्द्रप्रस्थ में आप का मुकाबला आप से हो गया है। •ाले ही किरण बेदी क•ाी आप में नहीं रहीं लेकिन वह अन्ना व केजरीवाल की अनन्य सहयोगी रही हैं। अन्ना आंदोलन ने जो वैकल्पिक राजनीति का खाका खींचने की कोशिश की थी उसे •ारने के लिए आंदोलन के सिपाही आमने सामने हैं। भाजपा द्वारा किरण बेदी को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित करने के बाद मोदी बनाम केजरीवाल की लड़ाई केजरीवाल बनाम किरण में तब्दील हो गई है। तेजी से बदल रही दिल्ली की चुनावी फिजां में अब चुनाव टेस्ट मैच की तरह नही बल्कि ट्वेंटी-ट्वेंटी की तरह लड़ा जा रहा है।
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परिचय : –
विद्याशंकर तिवारी
वरिष्ट पत्रकार व् लेखक
वर्तमान – : क्रोनिकल समूह की राजनीतिक पत्रिका प्रथम प्रवक्ता में कार्यकारी संपादक
पूर्व – : विद्याशंकर तिवारी पिछले पच्चीस साल से पत्रकारीय लेखन कर रहा है। दैनिक जागरण, अमर उजाला, राष्ट्रीय सहारा जैसे राष्ट्रीय अखबारों में दिल्ली में मुख्य संवाददाता, मेट्रो संपादक, ब्यूरो प्रमुख, व राजनीतिक संपादक के रूप में कार्य करने के अलावा इलेक्ट्रॉनिक चैनल्स में भी वरिष्ठ पदों रहे हैं !
राजनीति, समाज व समसामयिक विषयों पर लेखन के साथ-साथ न्यूज चैनल्स पर होने वाली बहस में भी लेखक की भागीदारी रहती है।
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