‘‘सर्वोच्यता संविधान की या सांसदों की’’

samvidhan{संजय कुमार आजाद**,,}
वर्ष 2013 भारतीय राजनीतिज्ञों के लिए अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण बीत रहा है। शायद राजनीति दलों पर शनि का साढ़ेसाती चल रहा हो तभी तो जून-जुलाई-2013 में भारतीय न्यायालय का जलजला इन राजनीतिक दलों पर गिरा। फैसलों के पहाड़ ने भारतीय राजनीति को अपराध मुक्त करने का जो प्रयास किया वह अगस्त के मानसून सत्र में भारतीय सांसदों ने संसद में पहाड़ को बहाने की भी भरपूर कुत्सित प्रयास कर रखा है। जून माह में राजनीतिक दलों के खजानों पर केन्द्रीय सूचना आयोग ने चोट किया और आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष अग्रवाल और एसोशिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफार्मस के अनिल बेंरवाल की आवेदन पर विचार करते हुए कहा कि छः राजनीतिक दलों-कांग्रेस, भाजपा, भाकपा, माकपा, राकांपा एवं बसपा सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत सार्वजनिक प्राधिकार के मानदंड को पूरा करते हैं। क्योंकि राजनीति दलों को सरकार द्वारा सस्ते में मिलने वाले भूखंड, बंगला, आयकर में छूट, सरकारी प्रचार माध्यमों से प्रचार करने के मुफ्त समय ये सभी सरकारी सहायता हैं जो अप्रत्यक्ष रूप से राजनीतिक दलों को मिल रहा है। अतः भारतीय नागरिकों के कर से जो लाभ राजनीतिक दल को मिलता है तो भारतीय नागरिकों को भी उसके बारे में जानकारी मांगने या जानने का पूरा अधिकार है। काले धनों से संचालित होने वाले राजनीतिक दल अपने आय या अन्य स्रोत बतायें, यह तो वैसा ही जैसा कि रेत की दिवार तैयार कर उपर हेलीपैड बनाने का स्वप्न देखना। फलतः इस मुद्दे पर दूसरों के बारे में जानने का हक रखने वाले राजनीतिक दल और उसके सिपहसलार अपने सारे विरोधों को भूलाकर एक मंच से गुर्रान लगे। इस हमाम में सब दल नंगे नजर आए। राजनीति शुचिता के बगैर लोकतंत्र के बजाय राजतंत्रीय व्यवस्था उचित है। इसी के अभाव में आज देश लोकतंत्र को वेंटिलेटर पर रखकर ये राजनीतिक दल देश के आम नागरिकों का खून चूस रहा है। अप्रत्यक्ष रूप से अर्जित आय द्वारा नियंत्रित ये दल राजनीति के लोकतंत्रीय ढांचा के आड़ में राजनीति को बाहुबलियों, अपराधियों और थैलीशाहों का रखैल बना दिया गया है। आज राजनीति करना आम नागरिकों के बस की बात नहीं है। राजनीति के अवैध आय ने अपराधियों को राजनीति में आमंत्रण दिया। फलतः उच्चतम न्यायालय ने जन प्रतिनिधि कानून 1951 की धारा 8(4) को निरस्त करने का सही कदम उठाया । जिस तरह से जम्मू कश्मीर के लिए धारा 370 देशद्रोही तत्वों के लिए कवच है उसी प्रकार यह धारा 8(4) है जो किसी भी सांसद या विधायक को सजा मिलने पर फैसले को चुनौती देने के लिए तीन माह का वक्त देता है तथा ट्रायल कोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक फैसला आने  जिसमें वर्षों लगते तब तक जनप्रतिनिधि अपना कार्यक्रम भी पूरा कर लेता सुरक्षा प्रदान कर पद का उपभोग करने का अधिकार देता है। इस प्रकार 8(4) की धारा जनप्रतिनिधियों का रक्षा कवच था। जबकि जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 8(3) में आमलोगों को दो या दो साल से ज्यादा की सजा मिलने पर चुनाव लड़ने की इजाजत नहीं देता है किंतु धारा 8(4) सांसदों और विधायकों को यह छूट देता है। कैसा कानून है इस देश में आम नागरिकों के लिए अलग और माननीयों के लिये अलग? उपरोक्त धारा 8(4) को निरस्त करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश एक के पटनायक और एस.जे. मुखोपाध्याय ने फैसला दिया कि-‘अब अगर सांसद या विधायक को दो साल या उससे ज्यादा की सजा होती है तो उसकी सदस्यता तब तक निलम्बित रहेगी जब तक अंतिम फैसला में वह बरी नहीं हो जाता। इसके अलावा जेल में रहते हुए या हिरासत में है तो लोकसभा और विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ सकते हैं। न्यायालय ने लिली थामस और गैर सरकारी संगठन ‘लोक प्रहरी’ के जनहित याचिका पर उपरोक्त अहम फैसला सुनाया। इतना नहीं नहीं कोर्ट ने जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 4 और 5 का हवाला देते हुए स्पष्ट किया है कि कैद में रहते हुए नेता को वोट देने का अधिकार भी नहीं होगा और ना ही वे चुनाव लड़ सकेंगे। जेल जाने के बाद उन्हें नामांकन करने का भी अधिकार नहीं होगा। भारतीय लोकतंत्र की राजनीतिक सुचिता में यह फैसला अत्यंत महत्वपूर्ण है।

sansad bhawanइसके बाद न्यायालय के जलजलों का साया राजनीतिक दलों के आय और उसके प्रतिनिधियों से होता हुआ उसके रैलियों पर भी गिरा। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश उमानाथ सिंह और महेन्द्र दयाल की बेंच ने फैसला दिया कि जातिगत रैलियां संविधान के खिलाफ है और ये समाज को बांटने का काम करती है। लगे हाथ कोर्ट ने इय मामले में राजनीतिक दलों सपा, बसपा, कांग्रेस और भाजपा को नोटिस थमाते हुए केन्द्र और राज्य सरकार से भी जबाव मांग लिया। उपरोक्त फैसलों से तिलमिलाया हर राजनीतिक दल आज इन मुद्दों पर एक है और न्यायपालिका का पर कतरने एवं उसके फैसलों को उलटने के लिए प्रतिबद्ध दिख रहा है। अभी हाल में पड़ोसी मुल्क चीन में वहां के पूर्व रेल मंत्री लिऊ झिजुन को भ्रष्टाचार और पद का दुरुपयोग करने के आरोप में मृत्युदंड की सजा सुनायी। चीनी पूर्व रेल मंत्री पर 25 वर्षों में 80 करोड़ युआन के घोटालों में शामिल रहने और 64 करोड़ युआन की रिश्वत लेकर अपने ग्यारह लोगों को ठेका देने और पदोन्नति देने का आरोप है। क्या भारतीय संसद चीन की कार्य पद्धति से सीख लेने की या अपने देश के कानून को कड़ाई से हर किसी पर लागू कराने की हिम्मत रखती है? कदापि नहीं। इस देश का कानून दो जून की रोटी के जुगाड़ में लड़ रहा आम नागरिकों के लिए है। इन तथाकथित स्वंभू माननीयों के लिए तो कानून उनके पैर की जूती है। तभी तो अगस्त के मानसून सत्र में संसद में न्यायपालिका और विधायिका की टक्कर होने की पूरी संभावना दिख रही है।

भारतीय न्यायपालिका का उपरोक्त फैसला चुनावी राजनीति में व्याप्त बुराईयों को दुरुस्त भर करना है और भारतीय संविधान में हर नागरिक के बराबर होने संबंधी प्रावधानों को लागू भर करना है। भारतीय राजनीति में आय, अपराधी और जाति ये विशेष हिस्से रहे हैं किंतु लोकतंत्र के लिए ये घातक है। भारतीय संविधान की मूल भावना के ये उलट है। संसदीय लोकतंत्र में कानून का साम्राज्य हो, हर नागरिक कानून के सामने समान हो यह देखना न्यायपालिका का काम है और न्यायपालिका इस दृष्टि में सक्षम है तथा भारतीय संसदीय प्रणाली का जीवन रक्षक न्यायपालिका हीं है।

भारतीय लोकतंत्र के मंदिर में वर्तमान में लोकसभा में 543 में 162 सांसद यानि 30 प्रतिशत मौजूदा सांसदों पर आपराधिक मामला तथा 76 सांसदों यानि 14 प्रतिशत मौजूदा सांसदों पर वैसे आपराधिक मामला चला रहा, जिसमें पंाच साल से ज्यादा सजा का प्रावधान है। राज्यसभा के 232 में 40 यानि 17 प्रतिशत पर आपराधिक 16 सदस्यों पर यानि 07 प्रतिशत पर गंभीर आपराधिक आरोप है। वहीं वर्तमान 4032 विधायकों में 1258 विधायक (36 प्रतिशत) पर आपराधिक मुकदमें चल रहे हैं, उनमें 605 विधायकों (15 प्रतिशत) पर पांच साल से अधिक सजा वाले मुकदमे हैं। झारखंड में एक विधायक सावना लकड़ा हत्या के जुर्म में उम्र कैद काट रहे हैं। वर्ष 2009 के चुनाव में झारखंड में अपने हालफनामें में 55 विधायकों ने अपने ऊपर आपराधिक मामले दर्ज होने की बात कही, वहीं वर्तमान में 81 में 26 विधायक ऐसे हैं, जिनपर आपराधिक मामला चल रहा है। दलों के लिहाज से झारखंड मुक्ति मोर्चा के 82 प्रतिशत, समाजवादी पार्टी के 48 प्रतिशत, बहुजन समाज पार्टी के 34 प्रतिशत, भारतीय जनता पार्टी के 31 प्रतिशत तथा कांग्रेस पार्टी से 21 प्रतिशत दागी लोग चुने गए। लोकसभा में 30 प्रतिशत और राज्यसभा में 17 प्रतिशत दागी लोग माननीय बने बैठे हैं।

न्यायालय के फैसलों और उपरोक्त आंकड़ों के परिप्रेक्ष्य में यदि भारत की संसद कोई फैसला करती है, जिससे अपराधी प्रवृति के राजनीतिज्ञों पर अंकुश लगे तब तो मानसून सत्र में सभी राजनीतिक दल की एकजुटता लोकतंत्र के मंदिर के प्रति लोगों की आस्था को बचा पाएगा। भारतीय संविधान में संसद की सर्वोच्चता को इसलिए अक्षुण्ण रखा गया है जिससे भारतीय मतदाताओं की सर्वोच्चता संवैधानिक रूप से स्थापित हो। न्यायपालिका को आखिर क्यों लोकतंत्र में लगे दाग को हटाने के लिए आगे आना पड़ा, यह विधायिका को सोचना चाहिए। न्यायालय का यह फैसला ना तो विधायिका के क्षेत्र में दखल है और ना ही संसद की सर्वोच्चता को चोट पहुंचाना बल्कि यह फैसला तो संसद को गरिमा देना और लोकतंत्र के मंदिर के प्रति मतदाताओं का आस्था प्रगाढ़ करना है। भारतीय संविधान के मूल प्रारूप और ढ़ाचों के विपरीत जब भी कुछ होगा या करने का प्रयास होगा तो संसद की सर्वोच्चता को निरस्त होना ही होगा क्योंकि संविधान से ऊपर संसद हो ही नहीं सकता। सर्वदलीय बैठकों में जिस तरह के सुर अपराधियों के बचाव में निकले, वह लोकतंत्र के लिए घातक है। संसद को सर्वोपरि रखते हुए उसके हाथ में देश काल और परिस्थितियों के अनुरूप संवैधानिक व्यवस्था में संशोधन करने का अधिकार इसलिए निहित है जिससे जनता की अपेक्षाओं को पूरा किया जा सके। इसलिए संसद को संशोधन का अधिकार नहीं है कि वे अपने मनमाफिक संशोधन कर संसद में अपराधियों को बैठाए या असंवैधानिक कुकृत्य से सने लोगों का संरक्षण कर संविधान की धज्जियां उड़ाए। संसद सर्वोच्च है इसका अर्थ ये कदापि नहीं कि इसके आड़ में सांसद ही अपने आपको सर्वोच्च मान कर जो आए मन में संविधान में संशोधन कर देष पर थोपने का धृणित प्रयास कर दें। आपातकाल इसका उदाहरण है?उसके बाद जनता का निर्णय करारा तमाचा भी इसी देश के मतदाताओं ने दिया था। न्यायालय के फैसलों को सांसदों ने अपने ऊपर किये हमले के रूप में लिया तभी तो सभी दल और उसके सिपहसालार तिलमिलाए हैं। यह तिलमिलाना भारतीय लोकतंत्र को फासीवादी व्यवस्था की ओर ले जाने जैसा है। क्योंकि फासीवाद का सबसे पहला काम यही होता है कि वह संविधान और संवैधानिक संस्थाओं की प्रतिष्ठा को खत्म करने में आमलोगों का ही इस प्रकार इस्तेमाल करता है कि उन्हें लगने लगे कि वे ही संविधान है और आज भारत में राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार में लाने या जातीय रैली पर रोक लगाने या दो साल या दो साल से अधिक सजा पाए को चुनाव लड़ने से रोक लगाने ,चाहे वह सांसद या विधायक हो, के फैसले के संदर्भ में भारतीय जनमानस में ऐसा भ्रम फैलाने का प्रयास किया जा रहा है कि न्यायपालिका का फैसला देशहित में गलत है। यह भ्रम का इन्द्रजाल जिस तरह से फैलाया जा रहा है वह निन्दनीय एवं घृणित सोच है। सर्वदलीय बैठक में जिस तरह से एकसुर में सांसदों/विधायकों को अयोग्य ठहराने संबंधी फैसलों को पलटने एवं हाईकोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति के तंत्र में बदलाव की मांग उठी वह स्वस्थ लोकतंत्र का द्योतक नहीं है। देश के सभी राजनीतिक दलों के लोगों को दलीय भावना से ऊपर उठकर आम मतदाता के रूप में अपने आपको पाए और तब इन फैसलों पर विचार करे तो दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। सत्ता के मद में चूर माननीयों का उतावलापन संसद की सर्वोच्चता को दागदार कर रही है। राजनीति को अपराधी मुक्त बनाकर लोकतंत्र की रक्षा करने में इन्हें सहयोग करना चाहिए ताकि आने वाली पीढ़ियां इनसे प्रेरणा ले। सादा जीवन उच्च विचार एवं सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता एवं शुचिता को आत्मसात कर अपने आपको इस देश का रक्षक और इस देश के निवासियों का सेवक बनकर मिसाल कायम करे। इतिहास साक्षी है सत्ता कभी किसी का नहीं रहा, जिस ब्रितानिया सल्तनत में सुर्यास्त नहीं होता, वह आज कहां है? अनेक राजबाड़े, तानाशाह पैदा हुए किंतु जनता ने देर-सबेर उन्हें ही स्वीकारा और संरक्षण दिया जिन्होंने जनता को अपना देवता माना और एक भक्त की तरह जनता की सेवा में लगा रहा। शेष इसी मिट्टी में मिले, जिनका कोई नाम लेने वाला नहीं।

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*संजय कुमार आजाद
पता : शीतल अपार्टमेंट,
निवारणपुर
रांची 834002
मो- 09431162589
** लेखक- संजय कुमार आजाद, प्रदेश प्रमुख विश्व संवाद केन्द्र झारखंड एवं बिरसा हुंकार हिन्दी पाक्षिक के संपादक हैं।
*लेखक स्वतंत्र पत्रकार है।
*लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं और आई.एन.वी.सी  का इससे सहमत होना आवश्यक नहीं।

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