मुझको मुझमें रहने दो
शब्द गऐ जो धँस अंत: में
उनको घुल कर बहने दो
मौन मुझे अब गढ़ने दो !
जितना भी कुछ व्यक्त हुआ है
अनर्थ ओढ़ सब त्यक्त पड़ा है
खण्डित अभिलाषा हो गई जितनी
दाह उन्हें कर देने दो !
शोणित शुष्क हुआ धमनी में
द्वेष दोष सब बसता मन में
अपनी छवि अब धुँधली सी लगती
कर आँख बंद अब जीने दो !
राह हो गई दृग में ओझल
आँसूं में फैला यूँ काजल
पथ कुचल गया है मेरे पग से
आघात पक्ष में फलने दो !
खिंच गई है गाढ़ी एक रेखा
शब्दों ने कुछ ऐसा भेदा
अपनी इस सीमा के अन्दर ही
मुझको मुझमें रहने दो !
मेरे मन का है बंटवारा
तेरा था जो अबतक सारा
रिक्त हुआ जो एक ही क्षण में
मुझको इसमें अब बसने दो !
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शुभेन्दु शेखर
रांची , झारखंड .कोई भी साहित्यकार – सृजनकार अपने मन्तव्य को पाठकों तक पहुँचाने के लिए साहित्य की विविध विधाओं को चुनता है। कविता, कहानी, नाटक, निबन्ध, उपन्यास आदि के रूप में वह अपने भाव एवं विचार को संप्रेषित करता है। लेकिन रचनाकार चाहे जिस विधा को चुने अपने कथ्य को संप्रेषित करने के लिए वह अपनी अलग शैली चुनता है। भाषा तो केवल उपादान है शैली एक अलग पहचान है। ऐसे ही श्री शुभेन्दु शेखर जी की एक अपनी ही विशिष्ट – शैली है , भाव-पूर्ण और छायावाद का पुट लिए इनका लेखन ठंडी – हवा सा सुखद अहसास है l
वाह ,शानदार
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गृहस्थी से विरक्त, संसार से क्षुब्ध, कवि तो अनेक देखे और मिले, अपितु विवाह में ही प्रेम प् जाने वाला प्रेमी कवि ह्रदय पहली बार देखा है ! शुभेंदु जी यही अद्भुत छबि लिये अपने शब्दों को गढ़ते हैं ! अनेकों प्रणाम कवि-वर !
विनय वेद