शिक्षा, शिक्षक दिवस और हम

former president of india late dr sarvepalli radhakrishnan{ वसीम अकरम त्यागी ** }
पांच सितंबर को हमारे देश के स्कूल कॉलेजों में पूर्व राष्ट्रपति, शिक्षाविद डॉ. सर्वपल्ली राधा कृष्णन की यौम ऐ पैदाईश के मौके पर शिक्षा दिवस मनाया जाता है। डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन गैर राजनीतिक व्यक्ति होते हुए भी देश के राष्ट्रपति बने। इससे यह साबित होता है कि यदि व्यक्ति अपने क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ कार्य करे तो भी दूसरे क्षेत्र उसकी प्रतिभा से अप्रभावित नहीं रहते। डॉक्टर राधाकृष्णन बहुआयामी प्रतिभा के धनी होने के साथ ही देश की संस्कृति को प्यार करने वाले व्यक्ति थे। उन्हें एक बेहतरीन शिक्षक, दार्शनिक, और निष्पक्ष एवं कुशल राष्ट्रपति के रूप में यह देश सदैव याद रखेगा। राष्ट्रपति बनने के बाद कुछ शिष्य और प्रशंसक उनके पास गए और उन्होंने निवेदन किया था कि वे उनका जन्मदिन ‘शिक्षक दिवस’ के रूप में मनाना चाहते हैं। डॉक्टर राधाकृष्णन ने कहा, ‘मेरा जन्मदिन ‘शिक्षक दिवस’ के रूप में मनाने के आपके निश्चय से मैं स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करूँगा।’ तभी से 5 सितंबर देश भर में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। सन् 1967 तक राष्ट्रपति के रूप में वह देश की सेवा करते रहे। एक बार विख्यात दार्शनिक प्लेटो ने कहा था- राजाओं का दार्शनिक होना चाहिए और दार्शनिकों को राजा। प्लेटो के इस कथन को 1962 में डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने तब सच कर दिखाया, जब वह भारत के दूसरे राष्ट्रपति निर्वाचित हुए।

elt projects indiaखैर ये तो था उनका परिचय अब बात करते हैं शिक्षा की मौजूदा हालत की उसके बारे में जब विभिन्न लोगों से जानना चाहा तो उनकी ओर से मिला जुला सा जवाब आया, जो यहां पर पेश किये जा रहे हैं। देश में शिक्षा है या डकैती, एक बच्चे की शिक्षा पर लाखों रुपये डूनेशन देने पड़ते हैं,क्या मतलब है ऐसी शिक्षा का? सरकार की आँखें फुट गयी हैं, आम आदमी अपने जान पहचान वालों से कितनी दुश्मनी मोल ले? हर बात के लिए आंदोलन चलाए, सभी लोग इतनी फ़ुर्सत में हैं क्या? दूसरा और कोई काम नही बचा है देश की जनता के पास. सरकार को खुद ऐसे स्कूल्स पर कारवाही करनी चाहिए, अब जनता ही सभी दोषियों को पकड़ कर पुलिस और सरकार के हवाले करे, फिर ये लोग किस बात की तनख़ाह लेते हैं, फोकट की पगार से देश का भला नही होगा. जनता आवाज़ उठाती है, लड़ती है इनसे दबाव बनाती है, फिर ये लोग हरकत में आते है और पैसा खा कर जोड़तोड़ कर के ऐसे स्कूल्स के चलाने वालों को बा-इज़्ज़त बरी कर देते हैं. ऐसा है देश का सिस्टम, हर जगह धंधा है सरकारी काम में, अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाएँगे नही और चले हैं भारत निर्माण करने. ये सिस्टम शिक्षकों का बुरी तरह दोहन या शोषण कर रहा है, सरकारी स्कूल्स के टीचरों से दुनिया भर के काम लिए जाते हैं, वोटर लिस्ट के लिए, पोलीयो ड्रॉप पिलाने के लिए, जन-गणना में इनको बैल की तरह जोता जाता है, जिन्हे शिक्षा के लिए रखा गया है, उनसे दूसरे काम लेने का क्या औचित्य है? लेकिन भ्रष्ट व्यस्था कुछ भी अनाप-शनाप काम कर रही है, टीचरों के ट्रांसफर में ढेर सारा रिश्वत की रकम तो वसूली ही जाती है, शिक्षकों को परेशान करने के इनके पास बहुत सारे उपाय हैं, सरकारी काम सिर्फ़ भ्रष्टाचार के लिए हो रहा है, ऐसे में बच्चों की क्या शिक्षा होगी ?

अब दूसरी ओर रुख करता हूं शिक्षकों की तरफ आता हूं उन्हीं शिक्षकों की जानिब जिन्हें हमारे समाज में मास्टर साहब कहकर बुलाया जाता है। मेरे गांव का एक प्राथमिक विद्यालय उसमें पढ़ाने वाले शिक्षक से जब एक बच्चे ने पूछा कि मास्टर जी हैदराबाद कहां है ? तो उनका जवाब सुनकर मैं हैरत में रह गया उन्होंने एक हैदराबाद को तीन देशों में गिना दिया उन्होंने कहा कि हैदराबाद पहले भारत में था फिर पाकिस्तान में चला गया और उसके बाद बंग्लादेश में उनके अनुसार आंध्रा की राजधानी हैदराबाद अब बंग्लादेश पहुंच गया ऐसे शिक्षक किस प्रकार समाज का निर्माण करेंगे ? ऐसे शिक्षक को लोग किस तरह याद रखेंगे, आप खुद सोचिये। गांवों में पढ़ाने वाले वाले शिक्षक अपने छात्रों के अभिभावकों से पूरी तरह वाकिफ रहते हैं, मैं जब प्राईमरी पाठशाला में पढ़ता था उसी दौरान मेरा एक दोस्त टीटू भी मेरे साथ पढ़ता था बदकिस्तमती से वह ‘चमार’ था और मैं मुसलमान हमारे मास्टर जी दयानंद पंडित जी उसे जब आवाज लगाते थे तो वह आवाज कुछ इस तरह की होती थी, अबे ओ प्रेमचंद चमार के आज तूने तख्ती क्यों नहीं लिखी ? मैं और मेरे साथ कक्षा के सभी बच्चे इस पर खूब हंसते थे उस वक्त हमें ये मालूम नहीं था कि मास साब कहना क्या चाहते हैं ? अक्सर वे मुझे ‘मियां’ कहा करते थे। वे ऐसा क्यों कहते थे उसका एहसास तब हुआ जब हम गांव के माहौल से बाहर निकल कर शहर की ओर आये। कस्बे का वह परिक्षितगढ़ इंटर कॉलेज था उसके बारे में ये प्रचलित था कि वह संघ कि विचारधारा का कॉलेज है, दो साल बीत जाने के बाद मुझे उस बात का एहसास हुआ जब हमारे मास्टर साहब राजेंद्र गर्ग ने मामूली से गलती के लिये मुझ से कहा कि पैर पकड़ कर माफी मांगो, चूंकि मेरी शुरुआती शिक्षा मदरसे और प्राईमरी पाठशाला में हुई थी, मदरसे में मुझे बताया गया था कि पैर नहीं पकड़ने चाहिये, मैंने गर्ग साब को पैर छूने से इंकार कर दिया इस पर पिटाई तो ज्यादा हुई ही साथ ही एक ओर नाम मिला ‘बड़े मियां’ अब मुझे इस लफ्ज के मायने पता हैं, ये विचारधारा कहां तक है इसका अंदाजा कर पाना मुश्किल ही लगता है। पिछले दिनों माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एंव संचार विश्विधालय के नोएडा परिसर में पढ़ने वाले मेरे कनिष्ठ ने बताया था कि डॉ. बृजेश पालिवाल ने उन्हें एक दिन टोपी लगाने को लेकर आपत्ती जाहिर की थी वह जुमे की नमाज के बाद टोपी लगाकर ही क्लास में चला आया था। जहां बृजेश पालिवाल विकास संचार पढ़ा रहे थे उन्होंने उसे बड़ी हैरानी से देखा और टोपी पर आपत्ती जाहिर की। और दूसरे छात्रों से उससे सावधान रहने की सलाह दी इस विचारधारा वाले शिक्षक को आप किस तरह याद करना चाहेंगे ? क्या ये वही विचारधारा नहीं है जिसने आंध्र प्रदेश में एक मुस्लिम छात्र को केवल दाढ़ी रखने पर स्कूल से बाहर कर दिया था बाद मे सुप्रिम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद छात्र को दोबारा प्रवेश मिला। अब अहसास करिये कि शिक्षक दिवस मनाने वाले देश में इस तरह के मामले सामने आना कितना उचित और जायज है ? जिस देश में गुरु को सर्वोपरी माना जाता हो क्या वहां पर ऐसी शिक्षाऐं दी जानी वाजिब हैं ? उचित तो नहीं हैं मगर ऐसा हो जरूर रहा है यहीं सांप्रदायिकता पैदा करने में स्कूल कॉलेजों का भी अब बड़ी भूमिका नजर आती है। उसी का परिणाम है देश में होने वाली सांप्रदायिक हिंसक घटनाऐं, इस व्यवस्था ने या तो छात्रों में सांप्रदायिकता का जहर भरने में कोई कसर नहीं छोड़ी है मुझे पिछले दिनों लिखी गई अपनी एक लघु कथा याद आती है जिसमें दिल्ली के एक शिक्षा केंद्र से निकलता जुलूस पेड़ों के नीचे से नारे लगाता गुजरता है : “ वे एक मारेंगे हम सौ मारेंगे ।“ रास्ते में उनके शिक्षक जो धर्म से मुसलमान हैं, मिलते हैं। आंखें चार होती हैं। उनके चेहरों पर हैरत है, मगर विधार्थीगण उनको लक्ष्य कर एक बार फिर पूरे उन्माद में भर कहते हैं : “ वे एक मारेंगे , हम सौ मारेंगे
शिक्षक अपनी आंखें झुका लेते हैं।

हो सकता है ये वही फौज हो जिसे बृजेश पालीवाल सावधान रहने का पाठ सिखा रहे थे। और शिक्षक सर्वपल्ली राधाकृषणन हो। यहां जब पूर्व राष्ट्रपति का नाम आ ही गया है तो एक सवाल उठना प्रासंगिक है कि शिक्षक कौन होता है ? करियापाटी पर लिख-लिख खाली ककहरा और अलिफ़ से अल्लाह रटवा देने वाले ही शिक्षक थोड़ी होते हैं! जिसने साईकिल चलाना सिखाया… वो भी तो शिक्षक ही है! जिसने माटी के घड़े के नरेटी पर स्पीकर रखकर लो-कॉस्ट म्युज़िक-सिस्टम बनाना सिखाया.. वो भी शिक्षक ही है! कॉलेज के दिनों में ऑमलेट को बड़ा करने के लिये… जिसने अंडे के घोल में आटा या बेसन मिलाना सिखाया…. वो भी तो वही है! पुरानी जींस को करीने से काटकर जिसने स्टाईलिश बरमूडा पैंट बनाना सिखाया… वो भी तो शिक्षक ही है! स्कुल में पुरानी कापियों के कवर से नयी किताबों की हार्ड-बैक बाईंडिंग करना सिखाने वाला सहपाठी भी तो शिक्षक ही है! बीमारी की ऐक्टिंग कर ट्रेन में जगह बनाने की कला सिखाने वाला भी तो शिक्षक है! और आप सोचते हैं… कि खाली हर पहली तारीख पर पगार उठाने वाले मास साब ही शिक्षक हैं! शिक्षक एक ऐसा प्राणी है जिससे हर किसी को दो चार होना पड़ता है चाहे वह चोर हो या सिपाही या फिर लुहार की दुकान पर लोहे को किस तरह आकर देकर वस्तुऐं बनाई जाती हैं ये सब बताने वाला शिक्षक ही होता है। ये हमारी सोच पर निर्भर करता है कि हम शिक्षक किसे मानें ?

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wasim akram tyagiवसीम अकरम त्यागी
युवा पत्रकार
9927972718, 9716428646
journalistwasimakram@gmail.com

*Disclaimer: The views expressed by the author in this feature are entirely his own and do not necessarily reflect the views of INVC.

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