कचरे के ढेर पर बचपन तलाशते हुए
बचपन को देखा है
कभी पॉलीथीन के आइने में
उन्नींदें चेहरे में जगती उम्मीदें
या/मैले-कुचैले कागज़ों में लिखी
अपनी जिंदगी की इबारत
क्या ढूंढते हैं ये ?
कभी सोचती हूँ
ये कैसे नौनिहाल हैं
जो भूख से बेहाल हैं
या/कभी न हल होने वाले
अनुत्तरित सवाल हैं?
सुबह से शाम इनका कंधा
कचरा ढोकर लाता है
कचरे में ढूंढते-ढूंढते जिंदगी
इनका बचपन खो जाता है.
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वीना श्रीवास्तव ,
प्रोफेसर डी.वी. कालेज उरई