राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में गुजरात-हिमाचल जनादेश

तनवीर जाफ़री**,,

गुजरात व हिमाचल प्रदेश विधानसभाओं के चुनाव परिणाम सामने आ चुके हैं। जहां गुजरात राज्य की जनता ने राजनैतिक भविष्यवक्ताओं के क़यासों को सच साबित करते हुए तीसरी बार नरेंद्र मोदी के हाथों में गुजरात की सत्ता सौंपी है वहीं हिमाचल प्रदेश की अवाम ने भी अपनी पूर्व परंपराओं का अनुसरण करते हुए एक बार फिर सत्ता परिवर्तन के पक्ष में अपना मतदान किया है तथा भारतीय जनता पार्टी की प्रेम कुमार धूमल सरकार को दरकिनार करते हुए कांग्रेस के पक्ष में अपना निर्णय दिया है। मोटे तौर पर यदि इन चुनाव परिणामों को परिभाषित किया जाए तो यही कहा जा सकता है कि भाजपा शासित जिन दो राज्यों में चुनाव संपन्न हुए उनमें से कांग्रेस पार्टी ने एक राज्य भाजपा से छीन लिया है। इतना ही नहीं बल्कि गुजरात में भी बावजूद इसके कि नरेंद्र मोदी अपनी शानदार जीत की पुनरावृति करने में सफल रहे फिर भी उन्हें अपनी पूरी ताकत लगा देने के बावजूद अपेक्षित 150 सीटें प्राप्त होने के बजाए 2007 के चुनावों में प्राप्त हुई 117 सीटें भी नहीं मिल सकीं। बल्कि इनमें भी दो सीटों की कमी रह गई। जबकि कांग्रेस पार्टी 2007 में मिली 59 सीटों से आगे बढक़र 2012 में 61 सीटें जीतने में सफल रही। कांग्रेस का गुजरात में वोट प्रतिशत भी पहले की तुलना में बढ़ा है।

परंतु इन परिणामों के बावजूद देश का मीडिया नरेंद्र मोदी की जीत को इस प्रकार प्रसारित कर रहा है गोया भाजपा ने देश की सत्ता पर ही अपना परचम लहरा दिया हो। जबकि हकीकत तो यह है कि बावजूद इसके कि नरेंद्र मोदी को इस बार कांग्रेस के अतिरिक्त केशूभाई पटेल जैसे राष्ट्रीय स्वयं संघ के उन्हीं के पूर्व सहयोगी से भी पूरे राज्य की 163 सीटों पर चुनौती मिल रही थी। इसके बावजूद नरेंद्र मोदी ने भी अपने चुनाव प्रचार में सभी हथकंडे पूरी ताक़त के साथ इस्तेमाल किए थे। चाहे वह विदेशी एजेंसियों के हाथों में अपने राज्य की मार्किटिंग का काम सौंपने की बात हो या फिर निजी कंपनियों से चुनाव प्रचार कराने का विषय हो या फिर बात-बात में 6 करोड़ गुजरातियों की भावनाओं को भडक़ाने का मामला हो या फिर अल्पसंख्यक समुदाय की उपेक्षा कर अपने 2002 के तेवर को बरकरार रखता हुआ दिखाई देने की बात हो या फिर वास्तविकता से ज़्यादा गुजरात के विकास का ढिंढोरा पीटने का विषय हो। नरेंद्र मोदी ने तो गुजरातियों की भावनाओं को अपने पक्ष में करने के लिए अपने एक भाषण में अपने चिरपरिचित अंदाज़ में यहां तक कहा था कि-‘मैडम सोनिया जी 2007 के चुनाव में आपने मुझे मौत का सौदागर कहा था उस समय राज्य की जनता ने आपको हरा दिया था। इस बार आपने फिर मुझे धोखेबाज़ कहा है तो इस बार गुजरात की जनता राज्य से कांग्रेस का सफ़ाया ही कर देगी’। निश्चित रूप से नरेंद्र मोदी ने राज्य से कांग्रेस का सफ़ाया करने में अपनी ओर से कोई कसर नहीं उठा रखी थी। इसके बावजूद उन्हें 2007 की 117 सीटों के बजाए 115 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा और कांग्रेस का सफ़ाया करने की उनकी तमन्ना पूरी नहीं हो सकी।

बहरहाल नरेंद्र मोदी की सत्ता में तीसरी बार वापसी निश्चित रूप से नरेंद्र मोदी के राजनैतिक कद को काफी ऊंचा कर रही है। वैसे भी गुजरात राज्य के चुनाव परिणामों की चर्चा राष्ट्रीय स्तर पर इसलिए और भी हो रही है क्योंकि न सिर्फ़ मोदी ने तीसरी बार अपने विवादित व्यक्तित्व के बल पर सत्ता में वापसी की है बल्कि अब नरेंद्र मोदी समर्थकों द्वारा उनको भारतीय जनता पार्टी में प्रधानमंत्री का सशक्त दावेदार भी माना जा रहा है। हालांकि गुजरात में नरेंद्र मोदी की वापसी के विषय में तमाम विश्लेषकों का यह मत है कि राज्य में उनकी लोकप्रियता का कारण विकास नहीं बल्कि 2002 में गोधरा के बाद हुए राज्यव्यापी सांप्रदायिक दंगों में उनकी पक्षपातपूर्ण भूमिका रही है। जिसके चलते राज्य में सांप्रदायिक आधार पर बड़े पैमाने पर ध्रुवीकरण हो चुका है। कुछ वरिष्ठ संवाददाता तो इस सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को इन शब्दों में भी बयान करते हैं कि-‘सांप्रदायिक ध्रुवीकरण गोया गुजरात की जनता के ‘डीएनए’ में शामिल हो चुका है। और यही वजह है कि इस बार के चुनावों में राज्य में सांप्रदायिक आधार पर किसी मुद्दे को छेडऩे,उभारने या हवा देने की नरेंद्र मोदी को कोई $खास ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई। और उन्होंने इन चुनावों में प्रचार करने की वह शैली इस्तेमाल की जो उन्हें 2014 में काम आ सके। और इसीलिए मोदी ने मुख्य चुनावी मुद्दा राज्य के विकास को चुना। इसी मिशन 2014 के परिपेक्ष्य में ही उन्होंने चुनाव से पूर्व पूरे राज्य में सद्भावना यात्रा भी निकाली। चुनावों के दौरान उनके मंच पर क्रिकेट खिलाड़ी इरफ़ान पठान भी बैठे दिखाई दिए। और तो और चुनाव परिणाम आने के बाद नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में गुजरात की जनता से अपने द्वारा किए गए किसी भी ग़लत काम के लिए माफ़ी मांगने का भी स्वांग रचा। उनकी इस माफ़ी पर भी यह बहस छिड़ी है कि आ$िखर उन्होंने किससे और क्योंकर यह माफ़ी मांगी गई है। यदि उनका इशारा 2002 के दंगा पीडि़तों की ओर है तो क्या माफ़ी मांगने का यह ढोंग भी 2014 के चुनावों को निशाना बनाकर रचा जा रहा है?

जहां तक नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व का प्रश्र है तो केवल 2002 के गुजरात दंगों से ही नहीं बल्कि इसके पहले से ही वे हमेशा से विवादों में घिरे रहे हैं। बावजूद इसके कि वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के समर्पित स्वयं सेवक तथा प्रचारक भी रहे हैं। उसके बावजूद उनकी राजनैतिक शैली के चलते न केवल भारतीय जनता पार्टी में बल्कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व विश्व हिंदू परिषद में भी उनका प्रबल विरोध शीर्ष नेताओं द्वारा किया जाता रहा है। परंतु इन सब के बावजूद 2002 के गुजरात दंगों के बाद उन्होंने एक कट्टरपंथी, पक्षपातपूर्ण शासक तथा अल्पसंख्यक विरोधी हिंदुत्ववादी नेता होने की जो छवि बनाई है निश्चित रूप से इस समय उनकी वही छवि उनका पूरा साथ दे रही है। रही-सही कसर नरेंद्र मोदी उस समय पूरी कर देते हैं जब वे अपने विरोध में की जाने वाली किसी भी बात को बड़ी ही चतुराई से सीधे तौर पर 6 करोड़ गुजरातियों के सम्मान से जोड़ देते हैं। ज़ाहिर है उनकी इस विचित्र शैली ने संघ,विहिप तथा भाजपा के उनके विरोधियों को भी परेशानी में डाल रखा है। और यही वजह है कि अपने इन हथकंडों का प्रयोग करते हुए नरेंद्र मोदी ने सत्ता में तीसरी बार अपनी वापसी कर कम से कम भाजपा के शीर्षं नेताओं विशेषकर अपने विरोधी नेताओं को अपने ऊंचे क़द का सुबूत तो दे ही दिया है। और उनकी इसी विजय के चलते प्रधानमंत्री पद की उनकी मज़बूत दावेदारी की चर्चा भी छिड़ी हुई है।

ऐसे में सवाल यह है कि क्या गुजरात व हिमाचल प्रदेश के चुनाव परिणाम इस बात के संकेत माने जा सकते हैं कि 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव में यूपीए के हाथ से सत्ता आसानी से चली जाएगी? और यदि ऐसा हुआ तो क्या नरेंद्र मोदी देश के सर्वस्वीकार्य नेता के रूप में उभर कर सामने आएंगे? ज़ाहिर है हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस द्वारा भाजपा के हाथों से सत्ता छीनना इस बात का भी संकेत है कि 2014 के चुनाव भारतीय जनता पार्टी के लिए कम से कम किसी सजी-सजाई प्लेट की तरह तो हरगिज़ नहीं होंगे। दूसरी बात यह भी है कि भारतीय जनता पार्टी को अभी कर्नाटक के ताज़ातरीन राजनैतिक हालात से भी रूबरू होना है। जहां कि राज्य में भारतीय जनता पार्टी का आम लोगों से परिचय कराने वाले येदिउरप्पा जैसे नेता अब भाजपा छोडक़र अपनी पार्टी बना चुके हैं। गत् 2-3 वर्षों के दौरान विशेषकर यूपीए के दूसरे शासनकाल में भ्रष्टाचार व कमरतोड़ मंहगाई के जो हालात सामने आ रहे हैं उसे देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था कि गोया अब भविष्य में जहां कहीं भी चुनाव संपन्न होंगे वहां-वहां कांग्रेस को करारी शिकस्त का मुंह देखना पड़ेगा। परंतु हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की सत्ता में वापसी तथा गुजरात में 2007 की तुलना में कांग्रेस द्वारा किए गए बेहतर प्रदर्शन ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि जनता के समक्ष विकल्प के रूप में कोई दूसरी पार्टी कम से कम उन राज्यों में तो बिल्कुल नहीं है जहां कि क्षेत्रीय दल अस्तित्व में नहीं है। परंतु जहां-जहां क्षेत्रीय दलों की स्थिति कांग्रेस व भाजपा से अधिक मज़बूत है उनमें अधिकांश क्षेत्रीय पार्टियां धर्मनिरपेक्ष विचारधारा की पैरोकार हैं। लिहाज़ा यह समीकरण भी फ़िलहाल यूपीए के पक्ष में ही जाता दिखाई दे रहा है।

वैसे भी गुजरात चुनाव परिणाम आने के बाद जिस प्रकार नरेंद्र मोदी का कद उनकी अपनी पार्टी में ऊंचा हुआ है उसे देखकर लाल कृष्ण अडवाणी सहित पार्टी के कई नरेंद्र मोदी से वरिष्ठ नेता असहज स्थिति मे हैं। हालांकि यह भाजपा नेता नरेंद्र मोदी की अपनी राजनैतिक शैली के चलते उनके राजनैतिक कद के बढऩे को स्वयं रोक नहीं पा रहे हैं। परंतु यह नेता यह भी भलीभांति जानते हैं कि लाख कद्दावर होने के बावजूद नरेंद्र मोदी में न तो इतनी क्षमता है कि वे गुजरात की ही तरह पूरे देश के मतदाताओं को अपने सांप्रदायितावादी व कट्टर हिंदुत्ववादी जादू का शिकर बना सकें और भाजपा को अकेले दम पर सरकार बनाए जाने की स्थिति तक पहुंचा सकें। और न ही नरेंद्र मोदी का व्यक्तित्व अटल बिहार वाजपेयी के व्यक्तित्व जैसा है जिसपर कि तीसरे मोर्चे के घटक दल विश्वास जताते हुए उन्हें प्रधानमंत्री पद दिए जाने हेतु राज़ी हो जाएं। कुल मिलाकर ऐसा प्रतीत होता है कि राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में गुजरात व हिमाचल प्रदेश के चुनाव परिणाम कोई स्पष्ट संकेत नहीं देते।

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**Tanveer Jafri ( columnist),(About the Author) Author Tanveer Jafri, Former Member of Haryana Sahitya Academy (Shasi Parishad),is a writer & columnist based in Haryana, India.He is related with hundreds of most popular daily news papers, magazines & portals in India and abroad. Jafri, Almost writes in the field of communal harmony, world peace, anti communalism, anti terrorism, national integration, national & international politics etc.He is a devoted social activist for world peace, unity, integrity & global brotherhood. Thousands articles of the author have been published in different newspapers, websites & news-portals throughout the world. He is also a recipient of so many awards in the field of Communal Harmony & other social activities.
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