बदलाव प्रकृति का नियम हैं इसका चलन पता नहीं कब इंसानी ज़िंदगी में आ गया कोई भी ठीक से प्रमाण नहीं मिलता हैं ! बदलाव नियम के चलते हैं आज दुनिया में दुनिया जहान के बदलाव आये हैं ! इंसान ने कब पाषाण युग से बाहर निकल कर मंगल ग्रह की धरती पर कदम रखने की तैयारी कर दी पता ही नहीं चला ! बदलाव वह नियम हैं जिसने इंसान को ताज-ओ- तख़्त को ठोकर मारने को मंजबूर कर दिया ! आजतक इंसान जितना भी पाया या खोया हैं वह सब इस बदलाव नियम के चलते ही ! इंसान हमेशा से जिज्ञासु और कुछ नया करने के लियें लालायित रहा हैं ! बदलाव नियम को सबसे ज़्यादा अपनाया हैं कला के पुजारी कलाकारों ने ! आज भी लाखो उदहारण ऐसे मिल जायेंगे जिसमे हम देखते हैं , पढ़ते हैं की कैसे अच्छी भली नौकरी यार रूटीन ढर्रा छाप जिन्दगी को ठुकरा कर अपने अन्दर छिपे कलाकार को खुले आकाश उड़ान भरने के लियें आज़ाद कर दिया ऐसी ही एक मशहूर हस्ती हैं वीना होरा ! वीना होरा जनम जात कलाकार हैं जब इन्हें इस बात का अहसास हुआ तो वीना होरा ने स्कूल से अध्यापिका की नौकरी को अलविदा कह दिया ताकि इनके अन्दर छिपे एक कलाकार को कला के मंच पर खुल कर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन का मौक़ा मिल सके : ज़ाकिर हुसैन
बदलाव, कला और कलाकार के साथ और भी बहुत सारे मुद्दों पर नित्यानन्द गायेन ने वीना होरा से की ख़ास बातचीत !
वीना होरा जी पिछले ६० वर्षों से रेडियो से जुड़ी हुई हैं | उन्होंने रेडियो के सभी चर्चित निर्देशकों के निर्देशन में नाटक किए हैं | गजब यह है कि वीना जी ने रेडियो के लिए वर्ष १९९५ में अध्यापिका की नौकरी छोड़ दी | वीना जी स्कूल में मेरी अध्यापिका रहीं हैं | इस बार अपने दिल्ली प्रवास के दौरान मैंने उनसे बातचीत की |
नित्यानन्द गायेन – पिछले दो दशकों में रेडियो में क्या बदलाव आया है ?
वीनाजी – रेडियो में बदलाव तो बहुत आया है , पहला तो यह कि अब ज्यादातर लोग टीवी पर काम करना चाहते हैं क्योंकि वहां पैसा और एक्सपोजर दोनों अधिक है | रेडियो से मेरा नाता पचास साल से भी अधिक है | जब मैं बारह साल की थी तब से मैंने रेडियो में काम करना शुरू किया था, तब मैं बच्चों के लिए प्रोग्राम करती थी | फिर धीरे –धीरे मैंने लाइव ड्रामा करना शुरू किया फिर भारत पर चीनी आक्रमण के बाद लाइव ड्रामा बंद हो गया | बाद में सब रिकार्डिंग होने लगा | पर लाइव जब होता था कलाकारों को बड़ा मजा आता था, हमें ऐसा लगता था जैसे हम थिएटर कर रहे हैं |
नित्यानन्द गायेन – भारत को सांस्कृतिक रूप से जोड़ने में रेडियो की भूमिका को आप किस तरह देखती हैं ?
वीना जी – भारत को सांस्कृतिक रूप से जोड़ने में रेडियो की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है | ग्रामीण क्षेत्रों को जोड़ना जहाँ टीवी नही है , टीवी तो आपका साठ के दशक में आया यहाँ भारत में | फिर धीरे –धीरे दूरदर्शन शुरू हुआ और उसने भी गांवों को बहुत ही धीरे –धीरे जोड़ना शुरू किया | किन्तु उस वक्त भी हर पान वाले की दुकान पर , हर नुक्कड़ पर रेडियो ही बजा करता था | बिहार ,उत्तर प्रदेश जैसे हिंदी प्रदेशों में हर व्यक्ति के हाथ में एक रेडियो होता था | या आप यूँ कहे कि देश से ,अपने लोगों से जुड़ने का रेडियो ही सबसे उत्तम साधन हुआ करता था | किन्तु आज हालात यह हो गया कि जब लोग मुझसे पूछते हैं कि आप रेडियो करती हैं ? …क्या आप एफएम करती हैं ? तो मैं कहती हूँ नही …तो युवा बहुत ही हैरानी से पूछते हैं फिर क्या करती हैं ? उनके लिए रेडियो इज जस्ट एफएम |
नित्यानन्द गायेन – तो क्या आप यह मानती हैं , कि एफएम ने काफ़ी हद तक रेडियो के स्वरूप को बदला है ?
वीना जी – जी हाँ , बदला है | एक तरफ से यह देखा जाये तो बड़ा दुखद भी है सुखद भी | दुखद इसलिए कि टीवी के विस्तार के साथ –साथ रेडियो के श्रोता कम होने लगे थे और बहुत से लोगों ने रडियो सुनना बिलकुल छोड़ दिया था और सुखद इसलिए कि एफएम के आने के बाद लोग फिर इससे जुड़ने लगे विशेषकर युवा वर्ग | लेकिन हमें यह ज्ञात रहना चाहिए कि एफएम की लिमिट बहुत कम है | हम पहले भाषा और व्याकरण का विशेष ध्यान रखते थे किन्तु एफएम के साथ ऐसा नही है | एक और बात यह कि पहले हम एक –एक ड्रामा करने के लिए तीन –तीन दिनों तक रिहर्सल करते थे | हमें स्टोरी लाइन पता होती थी , हमें बताने वाले लोग थे | आज की तारीख में तो सिखाने वाले लोग भी नही हैं | पहले रेडियो की समझ थी लोगों को | हमारे जमाने में बड़े –बड़े डायरेक्टर्स , एक्टर्स हमें सिखाते थे तब कोई स्कूल तो होता नही था | हम खुद का प्रोग्राम सुनते थे और कहते थे –अरे ..ये तो मैंने अच्छा नही किया ….मतलब हम खुद की आलोचना और विश्लेषण किया करते थे |
नित्यानन्द गायेन – किन्तु उस जमाने में भी तो रेडियो पर सरकारी नियंत्रण /सेंसर रहा होगा ?
वीना जी – सरकारी नियंत्रण तो हमेशा से रहा है | आल इंडिया रेडियो पर आज भी है ….हाँ निजी चैनेलों को छुट है | अब हमारा लिसनिंग की क्षमता भी कम होने लगी है | आज घंटे भर का कोई क्लासिकल कार्यक्रम कोई करता भी है तो उसे सुनने वाला कोई नही है |
नित्यानन्द गायेन – महिलाओं से संबधित कार्यक्रमों के बारे में बताइए
वीनाजी – हाँ, इस तरह के कार्यक्रम रेडियो पर होते रहते हैं किन्तु दुःख इस बात का है कि कितनी महिलाएं ये कार्यक्रम सुन पाती हैं ? ग्रामीण महिलाएं जिनके लिए विशेष रूप से ये प्रोग्राम होते हैं उनके पास रेडियो नही हैं और हैं तो घर के कामों से फुर्सत नही हैं | जैसे एक कार्यक्रम जो मैं अभी कर रही थी ‘स्वस्थ भारत के बढते कदम’ इसमें महिलाओं के लिए विशेष जानकरी दी जाती थीं | इसी तरह के कई प्रोग्राम सभी रीजिनल भाषाओँ में किया जाता है मैंने खुद उर्दू ,हिंदी और पंजाबी में ऐसे कार्यक्रमों को किया है |
नित्यानन्द गायेन – मुझे ऐसा क्यों लगता है कि यह जो आईपीएल जैसे जो इवेंट हैं यह एक तरह की साजिस है | पहले जब हम रेडियो सुनते थे तो पता लगता था कि किसी श्रोता ने किसी मजनू का टीला से पत्र लिखा है ….मतलब मैं यह कहना चाहता हूँ कि जिन जगहों की जानकारी हमें भूगोल की किताबों से नही मिलती उनकी जानकारी हमें रेडियो से मिल जाती थी |
वीनाजी – हाँ, बिलकुल दुरुस्त कह रहे हैं आप | पत्र आज भी आते हैं और दूर –दराज के लोग जहाँ आज भी टीवी नही हैं वहाँ के लोग रेडियो से जुड़ना चाहते हैं | अब भाई आपने टीवी तो पहुंचा दिया किन्तु बिजली नही है तो लोग क्या करेंगे , तब फिर लौट कर रेडियो पर आना पड़ता है | दूसरी बात यह है कि रेडियो के पास जो खजाना है वो और कहीं है ही नही |
नित्यानन्द गायेन – मैंने कुछ लोगों से बात की है, जो आज भी रेडियो के नियमित श्रोता हैं उनमें से एक हैं डा. अभिजीत जोशी | उन्होंने आपकी तुलना मीना कुमारी जी से की है | उन्होंने आपके लिए कहा कि –वीना जी रेडियो की ट्रेजेडी कुइन हैं |
वीनाजी –यह मुझ जैसे कलाकार के लिए गर्व की बात है | हम कलाकार सदा अपने सुनने वालों के प्रति आभारी हैं | एक बात यह है कि मैंने तीस साल तक रेडियो ड्रामा पर रुल किया ,ऐसा कोई भी ड्रामा नही होता था जिसमें मैंने लीड रोल न किया हों | पहले तो ऐसा होता था कि रात में महिलाएं नौ बजे से पहले खाना तैयार कर सबको खिला-पिला कर नाटक सुनने की तैयारी में रहती थीं …पर आज कहाँ वक्त है किसी के पास कि वह एक घंटा बैठकर कोई नाटक सुनें …उससे अच्छा है आईपीएल देखना |
नित्यानन्द गायेन – नाटक साहित्य का अभिन्न अंग है | साहित्य-नाटक हमारे समाज और जीवन का भी अहम हिस्सा है | किन्तु आइपीएल हमारे जीवन का हिस्सा नही है |
वीना जी – बिलकुल | किन्तु आपको मनुष्य के मनोविज्ञान को समझना होगा| मनुष्य सदा से ही आकर्षित वस्तुओं की और भागता रहा है | सिर्फ सुनने और देखते हुए सुनने में अंतर तो है ही | वहाँ आप साउंड, मियुजिक,रंग सब कुछ एक साथ पा रहे हैं तो ऐसे में आकर्षित होना तो स्वाभाविक है |
नित्यानन्द गायेन – आपकी बात सही है , किन्तु एक सत्य तो यह भी है कि आज भी शहरों में लोग पांच –पांच हज़ार रुपए की टिकटें खरीद कर थिएटर देखने जाते हैं |
वीनाजी – बिलकुल जाते हैं , पर असल बात यह है कि उनकी संख्या कितनी है | क्या एक आम आदमी इतनी महंगी टिकट खरीद सकता है ? रेडियो पर सुनने के लिए कोई पैसा तो लगता नही एकदम फ्री | शहरों में जो लोग थिएटर देखने जाते हैं उनमें कुछ अच्छे बुद्धिजीवी और लेखक होते है और कुछ कला और साहित्य प्रेमी | दूसरी बात यह कि आज जो लोग थिएटर कर रहे हैं उनको पैसा कितना मिलता है इसकी जानकारी मुझे नही है | आज पैसा भी एक अहम मुद्दा है | कुछ लोग तो इसलिए जाते हैं थियटर देखने कि भाई कोई बड़ा डायरेक्टर आ रहा है और उन्हें मिलना है | मुझे याद है एनएसडी में ‘बेगम का तकिया’ चल रहा था | जो लोग देखने गये थे बाहर आकर बात कर रहे थे –अरे यार क्या कामेडी थी , क्या ट्रेजेडी थी ….| मुझे समझ में नही आ रहा था कि वे क्या देखकर आये ..कामेडी या ट्रेजेडी |
नित्यानन्द गायेन – आपके पांच फेबरेट नाटक ?
वीनाजी –सबसे पहले है –‘एक और अजनबी’ इस नाटक को आल इंडिया आल लैंग्वेजेज में प्रथम पुरस्कार मिला था | इस नाटक में इम्प्रूवमेंट की कोई गुंजाइस नही थी | फिर विजय तेंदुलकर जी का लिखा नाटक है –‘रात’ यह आधे घंटे का नाटक है | इस नाटक से जुड़ी एक रोचक बात यह है कि अलग –अलग वक्त पे इसे तीन अलग –अलग डायरेक्टर ने इस नाटक को निर्देशित किया और तीनों में मुझे लिया | इस नाटक में सिर्फ दो ही चरित्र हैं ,एक लड़का और एक लड़की | लड़की तो मैं ही थीं तीनों में पर हीरो अलग –अलग था | एक बार सतेन्द्र शरद जी ने निर्देशन किया ,एक बार राजमणि राय ने और एक बार कुमुद नागर ने किया | इसके अलावा मुझे मुद्रा राक्षस जी के नाटक अच्छे लगते हैं | एकबार मैंने ‘लाईगा रोबा’ किया था | उस वक्त लगभग सभी श्रोताओं ने पत्र लिखा था | इसके अलावा निर्मल वर्मा जी भी मुझे अच्छे लगते हैं | मैंने ‘मोनोलाग’(सोलो परफार्मेंस) बहुत किए हैं | इसी तरह एस.सी. माथुर, अनवर खां, चिरंजीत जी ,कुलदीप अख्तर , ये सभी मेरे प्रिय डायरेक्टर रहें हैं हालाँकि यह लिस्ट काफ़ी लंबी है |
नित्यानंद गायेन – आपके प्रिय को आर्टिस्ट्स कौन –कौन रहें हैं ?
वीनाजी – यह एक मुश्किल सवाल है | सभी कलाकार जिनके साथ मैंने काम किया मुझे अच्छे लगे | किसी एक का नाम लेना कठिन है मेरे लिए |
नित्यानंद गायेन – मेरा अंतिम प्रश्न है कि आज की युवा पीड़ी के बारे में आपकी क्या राय है ?
वीनाजी – देखिये आज का युवा बहुत ही एडवांस है | उसे दुनिया की जानकारी तो पर अधूरी है और इसका कारण है कि वे अपनी संस्कृति के बारे में कुछ नही जानते | मुझे बात का दुःख है |आप देखिये भारत का इतिहास बहुत लंबा है | हम शेक्सपियर को तो पढ़ना चाहते हैं और पढ़ना भी चाहिए किन्तु वहीं हमारे युवा कालिदास को या दूसरे महान भारतीय कृतियों को नही पढ़ना चाहता है | दुनियां की इतिहास को जानने से पहले हमें अपना इतिहास पढ़ लेना चाहिए | और इसमें केवल युवा दोषी नही ,बल्कि हमारी जो शिक्षा प्रणाली है उसमें भी कमी हैं | इस दिशा में संयुक्त प्रयास जरुरी है |
नित्यानंद गायेन – आपका बहुत –बहुत धन्यवाद इस बातचीत के लिए |
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परिचय –
20 अगस्त 1981 को पश्चिम बंगाल के बारुइपुर , दक्षिण चौबीस परगना के शिखरबाली गांव में जन्मे नित्यानंद गायेन की कवितायेँ और लेख सर्वनाम, कृतिओर ,समयांतर , हंस, जनसत्ता, अविराम ,दुनिया इनदिनों ,अलाव,जिन्दा लोग, नई धारा , हिंदी मिलाप ,स्वाधीनता, स्वतंत्र वार्ता , छपते –छपते ,वागर्थ, लोकमत, जनपक्ष, समकालीन तीसरी दुनिया , अक्षर पर्व, हमारा प्रदेश , ‘संवदिया’ युवा कविता विशेषांक, ‘हिंदी चेतना’ ‘समावर्तन’ आकंठ, परिंदे, समय के साखी, आकंठ, धरती, प्रेरणा, जनपथ, मार्ग दर्शक, कृषि जागरण आदि पत्र –पत्रिकाओं में प्रकशित . इसके अलावा पहलीबार , फर्गुदिया , अनुभूति , अनुनाद और सिताब दियारा जैसे चर्चित ब्लॉगों पर भी इनकी कविताएँ प्रकाशित |
इनका काव्य संग्रह ‘अपने हिस्से का प्रेम’ (२०११) में संकल्प प्रकशन से प्रकाशित .कविता केंद्रित पत्रिका ‘संकेत’ का नौवां अंक इनकी कवितायों पर केंद्रित .इनकी कुछ कविताओं का नेपाली, अंग्रेजी,मैथली तथा फ्रेंच भाषाओँ में अनुवाद भी हुआ है . फ़िलहाल हैदराबाद के एक निजी संस्थान में अध्यापन एवं स्वतंत्र लेखन.