भारत में सबसे ज्यादा बसने वाले ग्रामीण और अर्थ व्यवस्था के रीढ़ बने किसान वर्तमान हालातों में मीडिया से भी कमोबेश बाहर हैं और संसद से भी ? अब गांव, कृषि और किसान से जुड़ी समस्याएं इन संस्थानों में बहस-मुबाहिसा का हिस्सा कम ही बनती है। ऐसे हालात में देश दुनिया के पूंजीपतियों की आर्थिक हैसियत का आकलन करने के लिए मशहूर अमेरिकी पत्रिका फोर्ब्स ने सात ऐसे सबसे शक्तिशाली भारतीय आविष्कारकों की सूची जारी की है जिन्होंने भारत में सबसे ज्यादा बसने वाले ग्रामीण और अर्थ व्यवस्था के रीढ़ बने किसान वर्तमान हालातों में मीडिया से भी कमोबेश बाहर हैं और संसद से भी ? अब गांव, कृषि और किसान से जुड़ी समस्याएं इन संस्थानों में बहस-मुबाहिसा का हिस्सा कम ही बनती है। ऐसे हालात में देश दुनिया के पूंजीपतियों की आर्थिक हैसियत का आकलन करने के लिए मशहूर अमेरिकी पत्रिका फोर्ब्स ने सात ऐसे सबसे शक्तिशाली भारतीय आविष्कारकों की सूची जारी की है जिन्होंने भारत में सबसे ज्यादा बसने वाले ग्रामीण और अर्थ व्यवस्था के रीढ़ बने किसान वर्तमान हालातों में मीडिया से भी कमोबेश बाहर हैं और संसद से भी ? अब गांव, कृषि और किसान से जुड़ी समस्याएं इन संस्थानों में बहस-मुबाहिसा का हिस्सा कम ही बनती है। ऐसे हालात में देश दुनिया के पूंजीपतियों की आर्थिक हैसियत का आकलन करने के लिए मशहूर अमेरिकी पत्रिका फोर्ब्स ने सात ऐसे सबसे शक्तिशाली भारतीय आविष्कारकों की सूची जारी की है जिन्होंने भारत में सबसे ज्यादा बसने वाले ग्रामीण और अर्थ व्यवस्था के रीढ़ बने किसान वर्तमान हालातों में मीडिया से भी कमोबेश बाहर हैं और संसद से भी ? अब गांव, कृषि और किसान से जुड़ी समस्याएं इन संस्थानों में बहस-मुबाहिसा का हिस्सा कम ही बनती है। ऐसे हालात में देश दुनिया के पूंजीपतियों की आर्थिक हैसियत का आकलन करने के लिए मशहूर अमेरिकी पत्रिका फोर्ब्स ने सात ऐसे सबसे शक्तिशाली भारतीय आविष्कारकों की सूची जारी की है जिन्होंने भारत में सबसे ज्यादा बसने वाले ग्रामीण और अर्थ व्यवस्था के रीढ़ बने किसान वर्तमान हालातों में मीडिया से भी कमोबेश बाहर हैं और संसद से भी ? अब गांव, कृषि और किसान से जुड़ी समस्याएं इन संस्थानों में बहस-मुबाहिसा का हिस्सा कम ही बनती है। ऐसे हालात में देश दुनिया के पूंजीपतियों की आर्थिक हैसियत का आकलन करने के लिए मशहूर अमेरिकी पत्रिका फोर्ब्स ने सात ऐसे सबसे शक्तिशाली भारतीय आविष्कारकों की सूची जारी की है जिन्होंने सोचने-विचारने की मेधा तो प्रबल हो ही, वह रटने के कुचक्र से भी मुक्त हो ? साथ ही विज्ञान के प्रायोगिक स्तर पर खरे उतरने वाले व्यक्ति को मानद उपाधि से नवाजने व सीधो वैज्ञानिक संस्थानों से जोड़ने के कानूनी प्रावधान हों।
हालांकि हम भारत की आधुनिक शिक्षा पध्दति की जडें लार्ड मैकाले द्वारा प्रचलन में लाई गई अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली में देखते हैं। जबकि मैकाले ने कुटिल चतुराई बरतते हुए 1835 में ही तत्कालीन गवर्नर जनरल विलियम बेंटिक को अंग्रेजी व विज्ञान की पढ़ाई को बढ़ावा देने के निर्देश के साथ यह भी सख्त हिदायत दी थी कि वे भारत की संस्कृत समेत अन्य स्थानीय भाषाओं तथा अरबी भाषा से अध्ययन-अध्यापन पर अंकुश भी लगाएं। इसकी पृष्ठभूमि में मैकाले का उद्देश्य था कि वह भारत की भावी पीढि़यों में यह भाव जगा दें कि ज्ञानार्जन की पश्चिमी शैली उनकी प्राचीन शिक्षा पध्दतियों से उत्तम है। यहीं अंग्रेजी हुक्मरानों ने बड़ी चतुराई से सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय साहित्य को धर्म और अध्यात्म का दर्जा देकर उसे ज्ञानार्जन के मार्ग से ही अलग कर दिया। जबकि हमारे उपनिषद प्रकृति और ब्रह्माण्ड के रहस्य, वेद विश्व ज्ञान के कोष, रामायण और महाभारत विशेष कालखण्ड़ों के आख्यान और पुराण राजाओं के इतिहास हैं। अब बाबा रामदेव ने आयुर्वेद और पातंजलि योग शास्त्र को आधुनिक एलोपैथी चिकित्सा पद्यति से जोड़कर यह साबित कर दिया है कि इन ग्रंथों में दर्ज मंत्र केवल आध्यात्मिक साधना के मंत्र नहीं हैं। कम पढ़े लिखे एवं अंग्रेजी नहीं जानने वाले बाबा रामदेव आज दुनिया के चिकित्साविज्ञानियों के लिए चुनौती बने हुए हैं ? बाबा राम देव भी फोर्ब्स पत्रिका के हिस्सा बनने चाहिए।
देश की आजादी के बाद शिक्षा में आमूल-चूल बदलाव के लिए कई आयोग बैठे, शिक्षा विशेषज्ञों ने नई सलाहें दीं लेकिन मैकाले द्वारा अवतरित जंग लगी शिक्षा प्रणाली को बदलने में हम नाकाम ही रहे हैं। जबकि आजादी के तिरेसठ सालों में तय हो चुका है कि यह शिक्षा जीवन की हकीकतों से रूबरू नहीं कराती। तमाम उच्च डिग्रियां हासिल कर लेने के बावजूद विद्यार्थी स्वयं के बुध्दि-बल पर कुछ अनूठा करके नहीं दिखा पा रहे हैं। इस कागजी शिक्षा के दुष्परिणाम स्वरूप ही हम नए वैज्ञानिक, समाज शास्त्री, मनोवैज्ञानिक इतिहासज्ञ लेखक व पत्रकार देने में असफल ही रहे हैं।
शैक्षिक अवसर की समानता से दूर ऐसे माहौल में उन बालकों को सबसे ज्यादा परेशानी से जूझना होता है, जो शिक्षित और मजबूत आर्थिक हैसियत वाले परिवारों से नहीं आते। समान शिक्षा का दावा करने वाले एक लोकतांत्रिक देश में यह एक गंभीर समस्या है, जिसके समाधान तलाशने की तत्काल जरूरत है। अन्यथा हमारे देश में नौ सौ से अधिक वैज्ञानिक संस्थानों और देश के सभी विश्वविद्यालयों में विज्ञान व तकनीक के अनुसंधान का काम होता है, इसके बावजूद कोई भी संस्थान स्थानीय संसाधनों से ऊर्जा के सरल उपकरण बनाने का दावा करता दिखाई नहीं देता है। हां, तकनीक हस्तांतरण के लिए कुछ देशों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों से करीब बीस हजार ऐसे समझौते जरूर किए हैं जो अनुसंधान के मौलिक व बहुउपयोगी प्रयासों को ठेंगा दिखाने वाले हैं। कल फोर्ब्स सूची में दर्ज अविष्कारकों का भी यही हश्र हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं ? इसलिए अब शिक्षा को संस्थागत ढांचे और किताबी ज्ञान से भी उबारने की जरूरत है, जिससे नवोन्मेषी प्रतिभाओं को प्रोत्साहन व सम्मान मिल सके।
विद्रोही तेवर और धुन के पक्के लोगों को रचनात्मक व्यक्तित्व की विशेषता व विलक्षणता माना जाता है। ऐसे धुनी लोग ही स्थानीय स्तर पर फैले विज्ञान के उन बिखरे पड़े सूत्रों को पकड़ते है जो किसी आविष्कार के जनक बनते हैं। वैसे भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण का एक महत्वपूर्ण पहलू है खोज करना, जांच करना और उपलब्ध जानकारियों के माध्यम से अज्ञात जानकारियों को प्रकाश में लाना। यही दृष्टिकोण खोजी विज्ञान और उसकी तार्किक विधि के विज्ञान सम्मत पहलू उजागर करता है। नवाचार के ऐसे ही प्रयास फोर्ब्स सूची में दर्ज आविष्कारकों के है। लिहाजा इन्हें देश की प्रतिष्ठित प्रयोगशालाओं में परखने के बाद वैज्ञानिक उपलब्धि की मान्यता दे दी जाए तो ये खोजें अंतरराष्ट्रीय आविष्कारों के रूप में भी शायद मान्यता हासिल कर लें ? फोर्ब्स सूची ने तो इन उपलब्धियों को व्यापक फलक पर उजागर करने का काम भर किया है।
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प्रमोद भार्गव
*लेखक वरिष्ठ स्तम्भकार व प्रसिद्द बुद्धिजीवी है |
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