लेखक म्रदुल कपिल कि कृति ” चीनी कितने चम्मच ” पुस्तक की सभी कहानियां आई एन वी सी न्यूज़ पर सिलसिलेवार प्रकाशित होंगी l
-चीनी कितने चम्मच पुस्तक की नौवी कहानी –
____जिस्म की बात नही है___
“ वाह कमाल कर दिया मोहित तुमने , गरीब बच्चो पर क्या रिपोर्टिंग की है तुमने ! इस बार का नेशनल प्राइज पक्का तुम्ही को मिलेगा “ कहते हुए मेहरा साहब ने मोहित की पीठ थपथपाई . मोहित त्रिपाठी 27 साल का एक युवा रिपोर्टर कम पत्रकार . शहर के स्लम के बच्चो के बारे में उसकी रिपोर्टिंग ने खलबली मचा दिया था . और इस समय वो अपने सम्पादक मेहरा जी के केबिन में था .
“ शुक्रिया सर , जो देखा उसे लिख दिया “ मोहित ने मेहरा जी के सामने हाथ जोड़ते हुए बोला .
“ यार त्रिपाठी ! “ मेहरा जी ने मोहित की आँखों में देखते हुए बोला “ मै चाहता हूँ इस बार तुम ऐसा कुछ लिखो जो इतिहास बना दे , एक ऐसा सच जो देख कर भी अनदेखा रह गया हो . “
“ … जैसे की क्या ? “ मोहित ने मेहरा जी बात को समझने की कोशिश करते हुए पूछा .
“ जैसे की तवायफ की कहानी ..!!! “ वो नंगा सच जो सच जो किसी ने न महसूस किया हो . “ मेहरा जी ने अपनी एक एक बात पर जोर डालते हुए कंहा .
“ सर मै इस बारे में क्या लिख सकता हूँ ? मुझे इस बारे में कुछ नही पता “ मोहित ने हकलाते हुए कहा .
“ त्रिपाठी जी ! आप पत्रकार है , जो नही पता उसे पता करना ही आपका काम है . काम करिये और दुनिया को अपना हुनर दिखा दीजिये , जितना चाहिए समय लीजिये पर कुछ अलग करिए , All the Best “
“…. जी सर ! “ मोहित ने एक अजीब से जूनून में भर कर हाँ कर दी . पर शायद उसे नही पता की ये हाँ उसे कहाँ ले कर जाएगी .
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पुराने लखनऊ की तंग गली में शाम रात में तब्दील होने की तैयारी में थी . जब मोहित त्रिपाठी ने उस गली में कदम रखा . सड़क की दोनों तरफ नालियां बह रही थी . पूरी गली में सिर्फ तीन बिजली के पोल पर लगे बिजली के लट्टू गली का अँधेरा दूर करने के लिए नाकाफी थे . एक दो नशे में हिलते झूलते लोग गली में आ जा रहे थे . गली में ही स्थित एक पान की दुकान पर मोहित रुका ,200 वाट की LED से चमकती पान की दुकान में तमाम तरह के मसालों के पैकेट से पटी दीवाल के कोने में टंगा हुआ था माँ दुर्गा सप्लायर लिखा 2016 का कैलेंडर जिसमे ऊपर की तरफ भगवान ब्रम्हा जी को संसार की रचना करते हुए दिखाया गया था और नीचे की तरफ तारीखे लिखी हुयी थी . उस कैलंडर से कुछ इंच की ,दूरी पर लगा हुआ था सनी लिओनी का आमंत्रित सा करता “ मैन्फोर्स कंडोम ‘ का पोस्टर . सृष्टि रचना और कंडोम का विज्ञापन एक साथ देख कर मोहित बरबस ही मुस्कुरा उठा . उसने मुस्कुराते हुए पान वाले से “ महबूब अली “ के हाते का पता पूछा . “ महबूब अली “ के हाते का नाम सुनते ही पान वाले की आँखों में हल्की सी चमक आ गयी . उसने अपने लाल काले दांत निकालते हुए गली के आखिर में लगे नीले रंग के उखड़ रहे गेट की तरफ इशारा किया . मोहित अभी 2 कदम ही चला होगा की पान वाले ने उसे आवाज दी .
“ भैया ! महबूब अली के हाते जा रहे हो , कुछ लेते जाओ … जरूरत पड़ेगी “ और अपने गंदे से दांत निकाल कर भद्दी हंसी हंसा .
“ नही , मुझे कुछ नही चाहिए “ मोहित ने झिझकते हुए बोला और तेज कदमो से गली में आगे बढ़ गया .
कुछ पालो में वो महबूब अली के हाते के गेट पर था , गेट के बाहर स्टूल पर 15 -16 साल का लाल फूलो वाली शर्ट पहने लम्बे बालो वाला एक लड़का बैठा हुआ था , उसने एक बार ध्यान से मोहित को ऊपर से निचे तक देखा और हल्की सी मुस्कान के साथ दबी आवाज में बोला
“ क्या साहब ! माल चाहिए क्या ? “
मोहित ने धीमे से हाँ में गर्दन हिलायी .
लड़के ने मोहित को अपने पीछे आने का इशारा किया , गेट के बाद एक अँधेरी सीलन भरी दलान थी जिसके अंत में एक लोहे का चैनल लगा था जिसमे अंदर की तरफ से ताला पड़ा हुआ था . लड़के ने चैनल को एक खास अंदाज में खटखटाया अंदर से जनानी सी मर्दानी आवाज आई “ रुक ! आ रहा हू . “ ताला खुला और मोहित ने खुद को एक अहाते में पाया . अहाते एक कोने में नल लगा हुआ था जिस से बूंद बूंद पानी टपक रहा था और दुसरे कोने पर थी ऊपर की और जाती सीढ़िया . और उन सीढियों से लगे हुए बने थे लाल दरवाजे वाले दडबेनुमा कमरे , वो कमरे जो न जाने रोज कितने शरीफ लोगो को किसी की इज्जत खरीदते देखते थे . अब मोहित कोठे के दलाल लल्लन खां के सामने खड़ा था . पीला लम्बा कुरता और चेक वाली लुंगी पहने लल्लन खां 3.10 सेकंड मोहित को देखता रहा और फिर अपनी जनानी सी मर्दानी आवाज में बोला “…… क्या चहिये ?“
“ लडकी “ मोहित ने अजीब सी घुटती हुयी अवाज में कंहा .
मोहित की बात सुन कर लल्लन खां मुहं फाड़ कर हंसने लगा जिस वजह से उसके आगे के दो टूटे दांतों से पान मसाले की कुछ बूंदे मोहित की शर्ट पर गिरी . और हँसते हँसते ही बोला
“ बाबू साहब ये महबूब अली का हाता है यहाँ सब को लड़की ही चाहिए होती है भैस , बकरी नही , “ एक मिनट साँस लेने के बाद लल्लन खां ने फिर बोलना शुरू किया ““ बाबू साहब आज सब लडकियां बुकिंग पर गयी है , सिर्फ एक ही यहाँ है एक घंटे और एक बार का 2200 रूपया लगेगा . और अगर कुछ ज्यादा करेंगे तो अलग से चार्ज लगेगा . मंजूर हो तो बोलो . “
मोहित ने शर्माते हुए बोला “ मुझे कुछ नही करना है , सिर्फ बात करनी है ! “
लल्लन खां ने आंखे बड़ी करते हुए पूछा “ लेखक हो क्या ? “
मोहित “ हाँ! क्यों ?
लल्लन खां “ तब तो 2500 रुपय घंटा लगेगा , वो क्या है न साहब आप लेखक लोगो से कुछ और तो **** नही तो बाते **** कर लडकियों का दिमाग और खराब कर देते है और आजकल न जाने क्या हुआ है जिसको देखो उसे रंडी पर कहानी लिखनी है “
मोहित ने बिना कुछ बोले जेब से 500 नोट निकाल कर लल्लन खां की ओर बढ़ा दी . लल्लन खां ने एक बार फिर से मोहित को हैरत से देखा और लुंगी सम्हालते हुए सीढियों पर चढ़ते चढ़ते मोहित को ऊपर आने का इशारा किया .
लल्लन खां ने सातवे कमरे के सामने रुका और दरवाजे पर हाथ मरते हुए बोला “ खोल कस्टमर आया है “
अंदर से महीन सी पर तीखी आवाज आई “लल्लन भांड में जा तू और तेरा कस्टमर , शाम से 4 मुर्दे निपटा चुकी हूँ , अब मुझे आराम करना है , “
बदले में एक स्वर से लल्लन खां के मुँह से कई देशी विदेशी गलियों के बाद निकला “ नाटक मत कर ! दरवाजा खोल , “
मोहित ये वार्तालाप सुन कर हकबका सा गया था , फिर उसने शांत स्वर में बोला “ रहने दीजिये न ! अगर मैडम का मन नही है तो… “
अचानक से दरवाजा खुल गया और दरवाजे पर खड़ी थी अपने लिए मैडम का संबोधन सुन कर हैरान सी शबनम . 23 साल की शबनम उस समय गहरी गुलाबी रंग की साड़ी में लिपटी थी . छोटा सा लाल रंग का ब्लाउज, हरी बिंदी , सुर्ख लिपस्टिक , गोरा रंग , लम्बी नाक और हल्की नीली आंखे जो मोहित पर टिकी थी .
लल्लन खां ने खूंखार सी नजरो से शबनम को देखा और भद्दी मुस्कान से बोला “ बाबू साहब कुछ करना नही है , लेखक है न .., बस अंदर ले जा और एक घंटे बतिया ले . “
पता नही शबनम क्या समझी और क्या नही बस दरवाजे से एक तरफ हट गयी और मोहित ने कोठे के उस डिब्बे जैसे कमरे में कदम रखा और शबनम ने दरवाजा बंद कर लिया
भाग 2
मोहित दरवाजे की ठीक बगल में रखी लाल रंग की नीलकमल की कुर्सी पर बैठ गया और कमरे में चारो तरफ एक सरसरी नजर डाली , दरवाजे की ठीक सामने वाली दीवार पर एक खिड़की थी जो पीछे उस गली में खुलती थी जिस से निकलती थी बहुत सी नालियाँ , कमरे की दिवारो का प्लास्टर जगह जगह से उखड़ रहा था जिसे छुपाने के लिए के उस पर लगा दिए गए थे अश्लील पोस्टर . कमरे की छत से लटका पंखा चिर्र-चिर्र की आवाज के साथ हल्के-हल्के घूम रहा था , बल्ब की हल्की पीली रोशनी में मोहित ने देखा कमरे की दाई दीवार से जुड़ा दीवान कम बेड पड़ा है , जिस पर बिछी है लाल गुलाबों वाली सफेद चादर .
शबनम बिजली के बोर्ड के पास जा कर रुक गयी और मोहित की तरफ देखते हुआ पूछा “ साहब ! बत्ती जलने दे या अँधेरे में करेगे ? “
“ शबनम जी ! मेरा नाम मोहित है , हो सके तो मुझे मेरे नाम से ही पुकारिए . और अँधेरा उजाला क्या मै कुछ समझा नही ..? मोहित ने शांत स्वर में बोला
शायद पहली बार अपने नाम के साथ में “ जी “ सम्बोधन सुन कर शबनम के चेहरे पर ख़ुशी की मुस्कान आ गयी .
“ मोहित बाबू ! मतलब ये है कि कुछ लोग रौशनी जलाकर करना पसंद करते हैं , रौशनी के चलते उनके चेहरे में आईने की तरह मेरा चेहरा नुमायाँ हों जाते है । और दूसरे वो जो रौशनी बुझाकर ‘करना’ पसंद करते हैं।ताकि मेरे चेहरे के आईने में उनका चेहरा नुमायाँ ना हो। परछाईं ना दिखे। अक्स ना बने।
ये भी हो सकता है कि वो रोशनी में अपने नंगे शरीर को देखना नहीं चाहते हों। ज़्यादातर लोगों से अपना नंगा शरीर देखा नहीं जाता और मुझे इस बात पर बेहद हैरानगी हुआ करती है । पता नही मुझ तवायफ से शर्माते है या अपनी आत्मा से ? “ शबनम एक साँस में बोलती चली गयी और मोहित अवाक् सा उसे सुन रहा था .
“ शबनम .. लाइट जलने दो , और हाँ ! मुझे करना नही है कुछ .. मुझे बस आप के साथ कुछ वक्त गुजरना है , आपकी जिंदगी को समझना है . “ मोहित ने अहिस्ता-अहिस्ता से अपनी बात बोली .
शबनम के चेहरे पर एक एक कर के कई रंग आये और चले गए , धीमे धीमे से चल कर वो कोने में पड़े फूलो वाले बेड पर बैठ गयी और डूबती सी आवाज में मोहित से पूछा “ मुझ से मिलने या किसी भी वेश्या से मिलने .. क्युकी कुछ मिनटों पहले तक आप मेरा नाम भी नही जानते थे .. , और मोहित बाबू ! आप हमारी जिंदगी को इतनी आसानी से नही जान सकते है , वो दौर चले गए जब तवायफ़ें पाकीज़ा की मीना कुमारी, देवदास की माधुरी और उमराव –जान की रेखा की तरह होती थीं। अब न इस तरह के असल में कोठे होते हैं, ना ही वेश्याघर। असल में सिर्फ़ नालियाँ होती हैं। नालियाँ इस लिए बनाई जाती हैं ताकि घरों की गंदगी उफन-उफन कर शरीफ़ लोगों के आँगन में न फ़ैल जाए। असल में सिर्फ़ गटर होते हैं। ताकि समाज साफ़-सुथरा दिखाई दे और जितना हो सके, चमकता रहे और हमारी जिंदगी को जानने के लिए आपको इस गटर में उतरना होगा . “
शबनम की बात सुन कर मोहित हडबडा सा गया और हकलाते हुए बोला “ मतलब….. मै तुम जैसे किसी से भी मिलना चाहता था , ताकि तुम्हारी जिंदगी को दुनिया के सामने ला सकूँ ……“
शबनम मुस्कुरा उठी इस मुस्कान में उसकी बेबसी और व्यंग दोनों थे . और मोहित के पास आ कर उसकी आँखों में देखते हुए बोली “ यानी मोहित बाबू ! हमारे कपड़े बंद कमरे में नही सारी दुनियां के सामने उतारेगे , मोहित बाबू ! ये जो हम रंडियों का कोठा होता है न आपके शहर के “ बिग बाजार “ की तरह होता है . यंहा सब मिलता है . बस नाम होता की लोग सेक्स खरीदने आते है . “
मोहित शबनम को उसी तरह देख रहा था जैसे क्लास में दाखिल हुआ बच्चा अपने टीचर को देखता है ,
“ बिग बाजार “ और तुम्हरा कोठा मै कुछ समझा नही ? “ अब मोहित की आवाज में कौतुहल था “
“ जी हाँ ! “ शबनम ने पंलग पर अधलेटी होते हुए बोलना शुरू किया , “ जैसे आप खरीदने आये है अपने लिए एक कहानी , जैसे हनुमान मंदिर के पुजारी का लड़का खरीदने आता नवरात्र से ले कर हर उस व्रत की रात जो उसकी बीवी ने रखा होता है सुहाग की सलामती के लिए , जैसे इलाके का थानेदार खरीदने आता है अपनी बेचीं हुयी ईमानदारी , जैसे सुल्तान खरीदने आता है उन महीनों की राते जब उसकी बीवी अपनी कोख में पाल रही होती है उसकी एक और संतान . जैसे आते है नये नये लडके शादी से पहले ये गारंटी खरीदने के वो बन गए है पूरे मर्द . जैसे आते है खुद को नवाब का वंशज बताने वो वाले वो मियां जो 80 का पाला छू रहे है , ये तसल्ली खरीदने की उनकी आग अभी राख में तब्दील नही हुयी है .
जैसे बैंक वाले मैनेजर साहब आते है महीने के वो चार –पांच दिन खरीदने जब उसकी बीवी उसका साथ नही दे सकती . जैसे पूरे दिन ऑटो चलाने और पोलिस की गालियाँ खाने के बाद एक क्वाटर देशी शराब के साथ आता है गुरप्रीत सरदार आगले दिन फिर गालियाँ खाने का हौसला खरीदने . हुआ न हमारा कोठा बिग बाजार सबकी हर जरूरत पूरी . कभी-कभी मुझे लगता है मैं कितनी ताकतवर हूँ , न जाने हम तवायफो की वजह से कितने घर और कितनी महिलाओं ( पति से लेकर भगवान तक ) का विस्वास टूटने से बच जाता है ….”
मोहित ने एक बार सर से पांव तक शबनम को देखा और मन ही मन सोचने लगा,
‘ क्या उम्र होगी इस लडकी की 20 या 21 साल जब सामान्य लड़कियां सपने देख रही होती है अपने आपने वाले कल के वैवाहिक जीवन या कैरियर के लिए उस समय शबनम सीख रही होती जिंदगी के सबक . मोहित को सोचता देख कर शबनम फिर बोल उठी
“ क्या सोच रहे है मोहित बाबू ? किसी तवायफ की बातो के बारे में नही सोचते है “
मोहित धीमे से अपनी कुर्सी से उठा और खिड़की के बंद पल्लो को खोल दिया , कमरे में एक सीलन भरी गंध भरने लगी , उस पर ध्यान न दे कर मोहित धीमे शब्दों में बोला
“ जानती हो शबनम ! इस दुनिया में हम सब कभी न कभी तवायफ होते है ,हम सब तवायफ है “
शबनम ने आंखे बड़ी करते हुए बोली “ अरे सच ! कैसे ? “
मोहित कुछ पल खामोश रहा और फिर बोला “ इंसान तब तवायफ हो जाता है जब , वो अपनी बात समझाने के लिए वो उसे लाग-लपेटकर कहता है, तब, जबकि वो पैसे के लिए अपने दफ़्तर में अपने आत्मसम्मान और अपनी ख़ुद्दारी से समझौता करता है, तब, जबकि वो, वो होने की कोशिश करता है जो कि, वो होता नहीं है …और ऐसा ही कुछ कुछ…”
“ यानी की मोहित बाबू ! आप भी तवायफ हुए .. “ कह कर शबनम हंस पढ़ी और फिर दोहरया …. “ मोहित बाबू तवायफ “ और न जाने कितने मिनटों तक वो अपना पेट पकड कर हंसती रही , मोहित ने देखा ये निश्छल और मासूम हंसी है जिसने आपने आगोश में कमरे की सारी सीलन और घुटन को ढांप लिया है .
कुछ समान्य होने पर मोहित ने शबनम से पूछा “ जो लोग यंहा आते है वो तुम्हारे बारे में नही जानना चाहते है ? “
कुछ लम्हे खामोश रहने के बाद एक दर्द भरी आवाज में शबनम बोलने लगी “ लोग आते है अंदर आग भरे , और उस आग के ठंढे होते ही उन्हें याद आने लगती है अपनी बीवियां , प्रेमिकाए , उन्हें करना होता है अपने दिए गए पैसे से खरीदे गए जिस्म का हर तरह से उपयोग और वो आपकी तरह नही होते मोहित बाबू जो अपने रुपय मेरी कहानी सुनने के लिए लगा दे ,
एक बार अपने बारे में थानेदार साहब को उनके ठंढे होने के बाद बताने की कोशिश की थी तो उन्होंने मेरे कुल्हे पर लात मारते हुए कहा था “ साली , पूरे दिन थाने में कहानियाँ ही सुनता हूँ , तू कोई मेरी घरवाली नही है जो तेरी राम कहानी सुनूँ , चल जल्दी से अगले राउंड का चित्रहार शुरू कर “
मोहित बिना कुछ बोले सिर्फ फटी आँखों से शबनम को देखता रहा , और शबनम बोलती रही “एक और बार बताने की कोशिश की थी गुरप्रीत सरदार को तो उसने जलती हुयी सिगरेट मेरी छाती में छुआ दिया था और हँसता रहा था डरावनी हंसी , मेरी छाती पर चकत्ता पड़ गया था। “
मोहित हैरान था की कैसे कोई किसी को सिगरेट से जला सकता है ,
“तुम मुझे अपनी कहानी सुनोगी ? “ मोहित ने शबनम से पूछा
“ कहानी जैसा कुछ नही है मोहित बाबू ! “
तभी दरवाजे पर दस्तक हुयी और लल्लन खां की आवाज आई “ साहब ! एक घंटा हो गया है “
“ फिर आऊंगा ! ‘ कह कर मोहित कमरे से निकल गया .
बहुत कुछ था जो शबनम की जिंदगी में आज पहली बार हुआ था और दुनियां के बहुत से रंग आज पहली बार मोहित ने देखे थे . कुछ था जो टूट गया था कुछ था जो जुड़ गया था
भाग :३
आज शबनम अपने पसंदीदा सफेद सलवार सूट और हरी बिंदी में किसी की हवस को नही जगा रही थी , बल्कि उसका सौन्दर्य रूह को सुकून दे रहा था . मोहित को ‘ महबूब अली के हाते ‘ से गए हुए तीन दिन गुजर चुके थे .तीन दिनों में शबनम हर शाम मोहित के लिए तैयार हुयी थी , उसने बीती हर शाम सिर्फ और सिर्फ मोहित के इंतिजार में काटी थी . 4 साल में ऐसा पहली बार हुआ था किसी शक्स ने शबनम के जिस्म को नही उसके दिल को छुआ था . पहली बार कोई ऐसा आया था जिसने शबनम को एक तवायफ नही इंसान माना था .
सूरज ने रात के अँधेरे में पनाह ले ली थी , और इंसान के बनाये रंग बिरंगे छोटे छोटे सूरज चारो तरफ बल्व के रूप में रौशनी बिखरने लगे . तभी शबनम ने जीने पर कुछ कदमो की आवाज सुनी , लल्लन खां के साथ मोहित उपर आ रहा था . शबनम ने जल्दी से दरवाजा खोल दिया . लल्लन खां मोहित को शबनम के कमरे के बहार छोड़ के वापस नीचे चला गया . शबनम ने पहली बार मोहित को गौर से देखा . गेरुहा कुरता , काली जींस , लम्बा सुडौल बदन मासूम से गोरे चेहरे पर हल्की सी दाढ़ी .अजीब सा भूरापन और मासूमियत लिए आंखे . मोहित के कपड़ो से आती किसी खास इत्र की खुशबू कमरे को सरोबोर करने लगी . शबनम को कुछ पलो के लिए लगा की स्वर्ग से उतर कर कोई देवता भटकते हुए उसके गंदी गली के सीलन भरे कमरे में आ कर खड़ा हो गया है .
कुछ लम्हों तक दोनों के बीच सिर्फ मौन बोलता रहा , फिर शबनम ने मोहित को छेड़ते हुए पूछा ” साहब ! बत्ती जलने दे या अँधेरे में करेगे ? “ और खिलखिला कर बच्चो की तरह हंस पड़ी . मोहित हल्की सी मुस्कान के साथ शबनम की हंसी को अपनी रूह में समाते महसूस करता रहा . फिर से उसने धीमे से शबनम को दीवान पर बैठने का इशारा किया और खुद नीलकमल की लाल वाली कुर्सी को आगे करके बैठ गया .और अपना दाहिना कांपते हुए हाथ से शबनम के हाँथ को थम लिया . उसको शरमाते देख शबनम को बेपनाह हैरानी हुयी भला तवायफो से भी कोई शर्माता है क्या ?
मोहित ने धीमी सी आवाज में बोलना शुरू किया “ शबनम मै जानता हूँ कि , कोई भी नारी अपना बस रहते हुए कभी पैसो के लिए अपने आपको समर्पित नही करती है . अगर वो ऐसा कर रही है तो समझ लो अब उसके पास कोई आधार नही है , और हम पुरुष उन गिद्दो के समान है जो किसी लाश को देख कर उसके चारो ओर जमा हो जाते है और उसे नोच नोच कर खाते है , मै जानना चाहता हूँ शबनम क्यों तुम आज यंहा हो ? आखिर कौन है इसका जिम्मेदार ? “
शबनम की आँखों में न चाहते हुए भी एक नमी तैर गयी पहली बार किसी ने उसके अतीत में झाकने की कोशिश की थी . एक मुद्दत से वो किसी के साथ बाँटना चाहती थी अपना अतीत और जब कोई उसके जिस्म में नही उसके स्याह दिल में उतर जाना चाहता था तो उसके शब्दों ने साथ देने से मना कर दिया था , शबनम ने भीगे शब्दों में कहना शुरू किया ,
“ मोहित बाबू ! इस दुनियां में कई सारी चीजों का होना गुनाह है जैसे लड़की होना और और उस से बड़ा गुनाह खूबसूरत होना और सबसे बड़ा गुनाह गरीब होना , हमारे साथ ये तीनो बाते थी .”
शबनम धीरे धीरे अपनी रौ में आ कर बोलने लगी थी . “समस्तीपुर ( बिहार ) जिले के एक छोटे से गाँव में , एक छोटे से गरीब किसान की सबसे बड़ी लड़की थी मै ,मेरे बाद तीन और बेटियों ने बाप की कमर को और झुका दिया था , माँ की जिद पर बाप ने सरकारी स्कूल में नाम लिखवा दिया , जानते है मोहित बाबू ! मुझे कला बहुत पसंद थी , किसी के चेहरे को
हू-बहू कागज़ में उतार देती थी , “
शबनम के चेहरे पर बीते दिनों का अश्क दिखने लगा था ,” मै 10वी जमात में थी और कला का ही इम्तिहान दे कर घर वापस जा रही थी तभी ब्लाक प्रमुख जी के लड़के ने अपने 2 दोस्तों के साथ अपनी बुलेरो में डाल कर हमे पंचायत भवन ले गया और सबने कई बार गलती की ,
हाँ , मेरा बलात्कार गलती ही तो थी उनकी , थानेदार , ब्लाक प्रमुख और फिर मेरे खुद के बाप ने भी यही बोला था “ लड़के है गलती हो जाती है “ शबनम का चेहरा गुस्से से लाल होने लगा था पर वो बोलती रही “ और उनकी गलती ने मुझे रंडी बना दिया , थानेदार ने समझया था बाप को कि अभी तीन लड़कियां और भी है उनका सोच, बड़े लोग है उन से उलझने से कुछ नही होगा , पैसे लो बात खत्म करो , और मोहित बाबू!पंचायत भवन में हुआ बलात्कार थाने में समझौते में बदल में गया , मेरी कीमत लगी 50 हजार रुपय . ब्लाक प्रमुख जी ने समझौते की ख़ुशी में अपने घर पर अखंड रामायण का पाठ कराया और लडके के पाप को उतारने के लिए महाम्र्तुन्ज्य जाप . शबनम कुछ पालो के लिए खामोश हो गयी बगल में रखे स्टील के काले से जग से पानी निकाल कर पिया और फिर बोलने लगी
“ फिर दो महीने बाद उस लडके के माँ बाप ने उसकी शादी कर दी ताकि उसे बलात्कार के लिए बाहर न जाना पड़े और मै ….. मै तो अब पंचायती हो गयी , स्कूल बंद करा दिया गया था , गाँव के हर आदमी की आँखों में अब मेरे लिए सवाल थे , और जहन में मेरी कीमत . मेरा क्या होगा माँ बाप को अब सिर्फ यही चिंता थी , तभी एक दलाल एक खरीदार ले कर आया हरियाणा के किसी गाँव के एक 42 साल के युवक को अपना घर बसाने के लिए लडकी चाहिए थी , मै एक बार फिर से बिक गई कहने को ये शादी थी और हकीकत में ये धोखा निकली .हरियाणा वाले ने 20 दिन मुझे घर में रखने के बाद बंबई के डांस बार वाले को बेच दिया , और डांस बार वाले ने बार बंद होने के बाद एक कोठे वाले को . बस तब से अब तक बिक ही रही हूँ मोहित बाबू ! हाँ खुद को बेचने से जो पैसा मिलता है उसे बचा कर घर भेजने लगी हूँ ताकि फिर मेरी किसी बहन को बिकना न पड़े , माँ बाप सब खुश है …अब तो कोई फर्क नही पड़ता है खुद के बिकने से . शबनम खामोश हो गयी . उसकी आँखों में नमी के चंद कतरे थे .
मोहित के होठ कुछ कहने के लिए हिले पर उन से आवाज नही निलकी . न जाने कितनी देर तक मोहित आँखे बंद किये कुछ सोचता रहा और फिर बोला “ शबनम एक चुटकुला सुनोगी ? ‘
“हाँ…सुनूँगी”
“तो सुनो…दिल थामकर बैठिए और सुनिए, दुनिया का सबसे छोटा और मज़ेदार चुटकुला…
“…पैसा …”
चुटकुला ख़त्म…और अब हँसो….हाहाहाहाहा….” हँसते-हँसते वो बिस्तर से नीचे गिर पड़ा। और शबनम कुछ समझ न सकी .
दोस्तों ! होना तो ये था की शबनम की जिंदगी और तवायफ की हकीकत को देख और समझ लेने के बाद मोहित को अपने लेख के लिए पूरा मसाला मिल चूका था और अब उसे कोठे पर आना बंद करना देना चाहिए थे , पर मोहित का कोठे पर शबनम के पास आना बंद नही हुआ अब तो वो लगभग रोज ही अपनी हर शाम शबनम के साथ गुजरने लगा था . लल्लन खां से ले कर गेट वाले लडके तक सब से मोहित की हल्की सी दोस्ती हो गयी थी .
एक दिन मोहित ने शबनम को बताया था की वो अब तवायफ की जिंदगी पर कहानी नही लिखेगा . क्योंकि वो नहीं चाहता था कि वो शबनम को चर्चा का विषय बनाए और उसे बेचे। अजीब बात ये है कि खुद को बेचना ही तो शबनम रोज़गार था फिर भी वो ऐसा सोचता था….खैर…उसने अपनी कहानी तो बंद कर दी थी लेकिन उन दोनों के दरमियाँ कोई नई कहानी बननी शुरू हो गयी थी . पता नही क्यों मोहित शबनम को प्यार कर बैठा था और इसे एक रिश्ते का नाम देना चाहता था ,उसे समाज परिवार किसी की प्रवाह नही थी . पर शबनम जानती थी एक तवायफ सिर्फ तवायफ होती है और किसी पुरुष से उसका रिश्ता सिर्फ जिस्म और पैसा का होता है . पर शबनम ने अपना जिस्म भले ही कितनी बार कितने लोगो को सौपा हो पर दिल मोहित के हवाले किया था . क्युकी इस रिश्ते में “ जिस्म की बात नही थी “ . ये रूह से रूह को जोड़ता रिश्ता था .
अपनी अंतिम मुलाकात में मोहित ने अपनी इकलौती ऊँगली में फनी अंगूठी को उतार कर शबनम की ऊँगली में पहना दिया था , और पहली पर उसने शबनम का माथा चूमा था ,ये एक ऐसा चुम्बन था जैसे कि पहली बार किसी बच्चे ने स्लेट पर खडिया से ‘क’ से कबूतर या ‘ख’ से खरगोश लिखा हो। शबनम मुस्कुराई – जैसे कि मास्टर जी ने बच्चे की स्लेट पर ‘वेरी गुड’ लिखा हो। मोहित शबनम को बतया था उसे 10 दिन के लिए ऑफिस के काम से कंही जाना है और वापस आ कर वो शबनम को हरदम के लिए अपने साथ ले जायेगा . शबनम और मोहित के साथ साथ कुछ सपने संजो बैठे थे .
उसी रात लखनऊ से वापस अपने कानपुर लौटते समय अपने वाले कल के खाव्बो में गुम मोहित की बस कब सामने आते ट्रक से लड़ गयी ये मोहित जान ही न सका . धीरे धीरे मोहित अपनी चेतना खोने लगा और सब अँधेरे में डूब गया .
भाग ४
मोहित ने धीमे धीमे अपनी आँखों को खोलने की कोशिश की . पर तेज़ सफेद रौशनी उसकी आँखों में इतनी तेजी से लगी की उसने दर्द के मारे फिर आंखे बंद कर ली . उसने धीमे धीमे कुछ लोगो को बात करते सुना तो जाना की वो अस्पताल में है . बेहतर इलाज और डाक्टरों की 27 दिन की अधक मेहनत ने मोहती की सांसो की डोर को टूटने नही दिया था . मोहित को अपने पैरो पर खड़े होने में 1 महिना 18 दिन लगे और मोहित के जहन में सिर्फ एक ही सवाल था की “ शबनम कैसी होगी ? वो मेरे बारे में क्या सोच रही होगी ? “
महबूब अली के हाते से जाने के ठीक 48 वें दिन बाद मोहित ढलते सूरज के समय अपने एक दोस्त का सहारा लेकर लल्लन खां के सामने खड़ा था . लल्लन खां ने मोहित को अजीब सी हिराकत भरी नजरो से देखा , पर बोला कुछ नही .
मोहित ने अपनी धीमी बीमार सी आवाज में लल्लन खां से पूछा “ और खान सहाब कैसे है ? वो चोट लग गयी थी तो आ नही पाया .”
लल्लन खां ने सवाल के बदले सवाल किया “ … तो अब क्यों आये हो ? “
“ शबनम से मिलने “ मोहित ने उपर के कमरों की ओर देखते हुए कहा .
लल्लन खां ने सिर्फ 2 पलो के लिए मोहित की नजरो में देखा और कहा “… शबनम तो चली गयी “
“…… खां साहब मजाक न करिए , मेरा शबनम से मिलना बहुत जरूरी है “ बोलने के साथ ही मोहित ने अपनी जेब से हजार के 2 और एक पांच सौ का एक नोट लल्लन खां की तरफ बढाया .
लेकिन लल्लन खां ने नोटों की तरफ हाथ नही बढाया . और चेहरे पर बिना कोई भाव लाये बोला
“ शबनम को दुसरे कोठे वाले खरीद कर ले गए , वैसे भी हम 6 माह से ज्यादा किसी लड़की को अपने यंहा नही रखते है ….. “लल्लन खां पल भर साँस लेने के लिए रुका और हल्की सी मुस्कान के साथ मोहित से बोला “ वैसे वो तेरे लिए कुछ छोड़ कर गयी है , अगर चाहिए तो 5 हजार लगेगे . “
हकबकाए से मोहित ने बिना कुछ सोचे जेब से और रुपय निकाल कर लल्लन खां की तरफ बढ़ा दिए . लल्लन खां 4 मिनट के लिए अपने कमरे में गया और एक लिफाफा ला कर मोहित के हाँथ में रख दिया .
मोहित टपकते पानी के नल के बगल की कच्ची जमीन पर बैठ गया और लिफाफे के उपरी सिरे को खोला . लिफाफे से सरक कर शबनम की पीले फूलो वाला सूट पहने एक तस्वीर जमीन पर जा गिरी, जिसे मोहित ने जल्दी से उठाया और नम आँखों से तब तक देखता रहा जब तक उसके साथ आये दोस्त ने उसके कंधे पर अपना हाँथ नही रखा . मोहित ने लिफाफे में हाँथ डाला तो उस से वो अंगूठी निकली जो उसने अंतिम मुलाक़ात में शबनम को पहनाई थी और निकला एक 2 पन्नो का टूटी फूटी रायटिंग में लाल स्याही से लिखा वो खत जिसे शबनम ने मोहित के लिए लिखा था .
मोहित ने धडकते दिल के साथ खत को पढना शुरू किया :
मोहित बाबू !
आप तो बेईमान निकले , और ग्राहक आते थे और मेरे बदन में अपनी गंदगी डाल कर चले जाते थे . वो मेरा कुछ नही ले जा पाते थे बल्कि अपनी इज्जत और और नकली चेहरे अपने कपड़ो की तरफ मेरे सामने उतार देते थे . पर आपने तो मेरा गुमान ही छीन लिया .
बेहतर होता आप मुझे निचोड़ कर मार देंते . कम से कम मेरा गुमान तो रख लेते . एक रंडी से वो भी छीन लोगे तो उसका होने पर थू है. तुम्हारे आने से पहले कम से इस बात पर गुमान था कि मैं कितनी ताक़तवर हूँ . तभी तो ये बीवियों वाले शरीफ़ लोग रंडियों के पास आते हैं . गुमान था ..कि मैं कोई जादूगरनी हूँ . कि मुझे तरह-तरह के जादू आते हैं . हाथ घुमाया तो लिफ़ाफ़े के अंदर से, हर बार, अलग-अलग तरह के सामान निकल आएँ– मुर्ग़ी का अंडा, ख़ुद मुर्ग़ी, उजले पँखों वाला कबूतर,बिना सर की लड़की, प्लास्टिक के फूलों का गुलदस्ता और ना जाने क्या क्या!”
जानते है मोहित बाबू आपके उस दिन जाने के बाद से मैंने पूरे 12 दिनों तक कोई ग्राहक नही निपटाया .लगता था मन से तन तक सारा हक आपका है ,भूल गई थी हम तवायफो का खुद के ऊपर कोई हक नही होता है . दल्ला मुझ से रोज कहता रहा है की आप नही लौटोगे अब , साली एक दिन तू भी कहीं की नहीं रहेगी, इन लेखको वेखको से से दूर रहा कर….. सालो से और कुछ तो ….. नही जाता तो रंडियों से बाते … चले आते है . पर मोहित बाबू मै इंतिजार करती रही पुरे एक महीने तक इंतिजार किया आपका . हर दिन , हर पल , पर आप नही आये . ( दल्ले से मांग कर आपको उस नम्बर पर फोन भी किया था , जो आपने ने आखरी बार मुझे दिया था , पर वो नम्बर भी आपकी तरफ उपलब्ध नही था ) तो मै तैयार हो गयी किसी दूर शहर के , किसी गंदी गली में बसे किसी अंधरे कोठे के सीलन भरे कमरे कुछ नये ग्रहको के नीचे लेटने के लिए .क्या करती जैसे आप मर्दों की ( पता नही आप मर्द है या नही ) की जिस्म की भूख इंतिजार नही करती वैसे ही हमारी पेट की भूख इंतिजार नही करती .
मोहित बाबू ! आप मुझ से शादी भी कर लेते तो क्या होता ? मै तब भी तवायफ ही रहती . दुनिया में ज़्यादातर शादीशुदा औरतें एक तरीके से तवायफ़ें होती हैं। उनमें और हम कोठे पर बैठने वाली औरतों में बस इतना फ़र्क़ होता है कि हम सौ आदमियों के साथ सोती हैं और वो एक आदमी के साथ। हिंदुस्तान की शादीशुदा औरतों की हालत हमसे भी ज़्यादा गई-गुज़री होती है – यदि वो पढ़ी लिखी न हो, तब तो ख़ासकर। क्योंकि उनके शौहारों को हर रात उन्हें पैसा देने कि फिकर नहीं करनी पड़ती। जब नाड़ा खिसक गया, समझो कोठे का दरवाज़ा खुल गया।
आपने आ कर मुझे फिर से जिला लिया था मोहित बाबू ! आपको तो मालूम होगा ना कि कैसी बेरंग दुनिया है मेरी? दीवारों का रंग उड़ा हुआ, जाने कब आखिरी बार पुताई हुयी थी…सियाह लगता है सब। बस एक छोटा सा रोशनदान जिससे धुंधली, फीकी रोशनी गिरती रहती थी और ठंढ की रातों में कोहरा। लोग भी तो वैसे ही आते थे, बदरंग…जिन्होनें सुख की उम्मीद भी सदियों पहले छोड़ दी थी…कैसा बुझा हुआ सूरज दिखता था उनकी आँखों में…वो काली रातों के लोग थे…दिन में उनकी शक्लें पहचानना नामुमकिन है…मगर दिन में तो शायद मैं खुद को भी पहचान नहीं पाती। कैसा होता है दिन का उजाला?
आपको तो मालूम भी न होगा , आपके जाने के बाद हर रोज मै कोरे कागज से आपकी तस्वीर बनाती थी , बिल्कुल हू-बहू आप जैसी और उन तस्वीरों को अपने गद्दे के नीचे बिछा देती थी कोई भी कस्टमर हो, तुम्हारे होने का धोखा होता तो तकलीफ थोड़ी कम हो जाती । सिसकी रोकने में थोड़ी परेशानी कम होती … मगर जल्दी ही मैं फिर से चुप होकर रोना सीख जाउंगी। यूं भी अंधेरे में किसे महसूस होती हैं हिचकियां। ठंडी बियर की दो बोतल अंदर जाने के बाद क्या अंदर क्या बाहर, दुनिया पिघल जाती है बस उतने में। नसों में बहता है धीमे धीमे। दर्द की चुभन होती है धीरे धीरे।
कौन थे आप ? क्यों आये थे मेरी जिंदगी में ? इस धोखे के बदले मुझे मेरी कोख में अपना बच्चा दे जाते तो शायद मुझे इस नर्क से निकलने का एक रास्ता ,एक बहाना मिल जाता .
मोहित बाबू ! आपकी दी अंगूठी आपको लौटा रही हूँ , पर हो सके तो इसे अब किसी और शबनम को मत देना . अपनी तस्वीर आपके लिए इस वजह से छोड़ कर जा रही हूँ की कभी मेरा चेहरा भूलने लगे तो याद कर लेना .
ले जा रही हूँ तो आपकी बाते और यादे , आपका इकलौता चुम्मन और आपका वो रुद्राझ का माला जो आप गले में नही हाथ में लपेटते थे और एक दिन उसे आप मेरे पास भूल गाये थे . अजीब है न आपकी याद के रूप में रुद्राझ का माला वो भी एक तवायफ के पास ?
आप से कभी कहा नहीं, धंधे का उसूल है…मगर भटके हुये मेरे मालिक…मुझे तुमसे प्रेम हो गया था .. बेपनाह इश्क ये जानते हुए भी ये लफ्ज भी तवायफ के लिए हराम है .
खुदा आपको बरकत और खुशियां बख्शे .
अलविदा
आपकी
तवायफ
मोहित के हाथ कांपने लगे हाथ में थमा खत फडफाड़ने लगा . आँखों से आंसू की एक बूंद निकल कर खत पर गिरी और वंहा की स्याही फ़ैलने लगी . मोहित किसी हारे हुए जुआरी सा “ महबूब अली ‘ के हाते से निकल गया . उसके बाद मोहित कंहा गया किसी को नही पता.
और आज लगभग 6 साल बाद मै डलहौजी के एक शनदार लकड़ी के बने घर में आपने 6 साल पहले खो गये अजीज दोस्त मोहित से उसकी ही बीती जिंदगी का फसाना सुन रहा था और यकीं मानिये उसकी कहानी सुनते सुनते मेरी आँखों में भी नमी आ गयी थी .
मोहित से मिलना इत्तिफाक मात्र था . मै अपनी छुट्टियाँ बिताने के लिए डलहौजी आया था . और मै जिस होटल में रुका था उस शानदार होटल का मालिक मोहित ही था . 6 साल बाद मोहित से मिलना किसी ख्वाब के पूरे होने जैसा था . मोहित जिद करके मुझे अपने घर ले गया . और करीने से सजे अपने ड्राइंग रूम में मुझे अपनी कहानी सुनाता रहा . तभी घर का दरवाजा खुला और हरी साड़ी में एक निहायत ही खूबसूरत महिला ने एक छोटी सी मासूम बच्ची के साथ ड्राइंग रूम प्रवेश किया . मोहित हल्की सी मुस्कान लिए उस महिला की तरफ मुखातिफ होते हुए बोला “ इन से मिलो , ये मेरे कानपुर के दोस्त मृदुल , पहले हम साथ में ही काम करते थे . और फिर मेरी तरफ देख कर बोला “ और मृदुल ये है मेरी पत्नी “ शब्बो यानी शबनम “ और ये मेरी प्यारी सी बच्ची “ इनायत “
मै कुछ पलो तक हैरानी का बूत बना सिर्फ तीनो को देखता रह गया . मोहित मेरी हैरानी समझ गया . शबनम “ भाभी “ किचन में मेरे लिए नाश्ते का प्रबंध करने चली गयी . इनायत वही खेलनी लगी . और मोहित ने फिर कहना शुरू किया .
“ पता है दोस्त ! उस शाम कोठे से निकलने के बाद तन के साथ साथ मै मन से भी टूट गया था . शबनम के बिना जिंदगी के रूक सी गयी लगती थी . एक अपराधबोध था जो मुझे हर पल मार रहा था . शबनम के खत में लिखी एक एक बात हर पल मेरे कानो में गूंज सी रही थी . सब खत्म हो सा लगता था .
खुद से लड़ता हुआ मै दूसरे दिन फिर से “ महबूब अली “ के हाते जा कर ‘लल्लन खां ‘ से मिला , उस से रोया , उस दलाल के पैर पकड लिए . तब उसने 15 हजार के बदले मुझे सतना ( मध्य प्रदेश ) के उस कोठे का पता दिया जंहा शबनम को ले जाया गया था . “
कुछ पल कमरे में चुप्पी छाई रही , और फिर मोहित ने बोलना शुरू किया .
“ 2 महीने की मेहनत और अपना प्लाट , गाड़ी सब बेचने के बाद मैंने शबनम को उस दलदल से आजाद करा लिया . हमेशा .. हमेशा के लिए .
हमने मंदिर में शादी कर ली , पर हम जानते थे समाज और धर्म के ठेकेदार हमे जीने नही देंगे . तो हमने यंहा अपनी एक छोटी सी दुनियां बसा ली .
शबनम ने आर्ट और डांस का छोटा सा स्कूल खोल लिया और मैंने होटल का काम शुरू किया . और आज मै अपनी शब्बो और बच्ची के साथ इस जहां का सबसे खुशहाल इंसान हूँ “
शबनम भाभी ने नाश्ते से पूरी टेबल सजा दी थी और मोहित के बगल में आ कर बैठ गयी थी . और मै हैरान सा दुनियां वो सबसे खूबसूरत जोड़ी देख रहा था जिनके “ प्रेम “ ने एक नई इबारत गढ़ दी थी .
दूर कंही बज रही जगजीत सिंह की गजल के बोल कानो में पड़ रहे थे :
“ जिस्म बात नही थी , उनके दिल तक जाना था , …. लम्बी दूरी तय करने में वक्त तो लगता है “
और मैंने उठ कर मोहित को गले लगा लिया .
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म्रदुल कपिल
लेखक व् विचारक
18 जुलाई 1989 को जब मैंने रायबरेली ( उत्तर प्रदेश ) एक छोटे से गाँव में पैदा हुआ तो तब दुनियां भी शायद हम जैसी मासूम रही होगी . वक्त के साथ साथ मेरी और दुनियां दोनों की मासूमियत गुम होती गयी . और मै जैसी दुनियां देखता गया उसे वैसे ही अपने अफ्फाजो में ढालता गया . ग्रेजुएशन , मैनेजमेंट , वकालत पढने के साथ के साथ साथ छोटी बड़ी कम्पनियों के ख्वाब भी अपने बैग में भर कर बेचता रहा . अब पिछले कुछ सालो से एक बड़ी हाऊसिंग कंपनी में मार्केटिंग मैनेजर हूँ . और अब भी ख्वाबो का कारोबार कर रहा हूँ . अपने कैरियर की शुरुवात देश की राजधानी से करने के बाद अब माँ –पापा के साथ स्थायी डेरा बसेरा कानपुर में है l
पढाई , रोजी रोजगार , प्यार परिवार के बीच कब कलमघसीटा ( लेखक ) बन बैठा यकीं जानिए खुद को भी नही पता . लिखना मेरे लिए जरिया है खुद से मिलने का . शुरुवात शौकिया तौर पर फेसबुकिया लेखक के रूप में हुयी , लोग पसंद करते रहे , कुछ पाठक ( हम तो सच्ची ही मानेगे ) तारीफ भी करते रहे , और फेसबुक से शुरू हुआ लेखन का सफर ब्लाग , इ-पत्रिकाओ और प्रिंट पत्रिकाओ ,समाचारपत्रो , वेबसाइट्स से होता हुआ मेरी “ पहली पुस्तक “तक आ पहुंचा है . और हाँ ! इस दौरान कुछ सम्मान और पुरुस्कार भी मिल गए . पर सब से पड़ा सम्मान मिला आप पाठको अपार स्नेह और प्रोत्साहन . “ जिस्म की बात नही है “ की हर कहानी आपकी जिंदगी का हिस्सा है . इसका हर पात्र , हर घटना जुडी हुयी है आपकी जिंदगी की किसी देखी अनदेखी डोर से . “ जिस्म की बात नही है “ की 24 कहनियाँ आयाम है हमारी 24 घंटे अनवरत चलती जिंदगी का .