चुनाव आयोग तोड़े धर्म और राजनीति की ‘सगाई’*

Indian extremists..in Ayodhyaतनवीर जाफरी,,**
हालांकि  भारत की पहचान विश्व के सबसे बड़े धर्मनिरपेक्ष गणराज्य के रूप में बनी हुई है। परंतु इसके बावजूद इसी देश से जुड़ी कुछ ऐसी बुनियादी ह$की$कतें भी हैं जिनसे इंकार नहीं किया जा सकता। हमारी पहचान ‘अनेकता में एकता’ रखने वाले राष्ट्र के रूप में तो ज़रूर है परंतु यह भी एक कड़वा सच है कि जिस समय लगभग सौ सालों के लंबे स्वतंत्रता संग्राम के बाद सभी धर्मों व जातियों के हज़ारों देशवासियों के बलिदान देकर इस देश को 1947 में विदेशी ता$कतों से मुक्त कराया गया उस स्वतंत्र भारत की शुरुआत  राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या से हुई। धर्मनिरपेक्ष भारत में हुई यह पहली बड़ी राजनैतिक हत्या थी और वह भी उस महान व्यक्ति की जोकि पूरे विश्व में सर्वधर्म संभाव एवं परस्पर सौहाद्र्र का पक्षधर था तथा समाज से जाति-भेद आधारित वैमनस्य को समाप्त करना चाहता था। निश्चित रूप से 1947 से लेकर अब तक भारत में तमाम धर्मों,जातियों व विभिन्न विश्वासों के प्रति आस्था रखने वाले लोग रहते आ रहे हैं। परंतु यह भी सच है कि इसी देश में हमारी यही सांप्रदायिक सौहाद्र्र व सर्वधर्म संभाव की विश्वव्यापी पहचान भी उस समय बुरी तरह से आहत होती दिखाई देती है जबकि राजनीतिज्ञों द्वारा धर्म व जाति की परस्पर सगाई कर दी जाती है तथा इसे राजनीति के हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर सांप्रदायिकता व जातिवाद की सीढिय़ों पर चढक़र सत्ता के सिंहासन तक पहुंचने का प्रयास किया जाता है।
बेशक इस ज़हरीले मंथन की शुरुआत नाथू राम गोडसे द्वारा महात्मा गांधी की हत्या किए जाने के समय से ही शुरु हो गई थी। गोडसे एक कट्टर हिंदूवादी मानसिकता रखने वाला हत्यारा था। आज भी पूरे देश में उसी प्रकार की मानसिकता रखने वाले कई संगठन बड़े पैमाने पर सक्रिय हैं। दूसरी ओर अल्पसंख्यक समुदाय भी भारत में एक बड़े वोट बैंक की हैसियत रखता है। देश की कई धर्मनिरपेक्ष समझी जाने वाली राष्ट्रीय व क्षेत्रीय राजनैतिक पार्टियां बहुसंख्य हिंदू मतों के साथ-साथ अल्पसंख्यक मतों पर भी अपनी गहरी नज़र रखती हैं तथा उन्हें अपने साथ जोड़े रखने का भरसक प्रयत्न करती हैं। जनतंत्र होने के नाते जनता को अपने पक्ष में रखना सभी राजनैतिक दलों के लिए एक बड़ी चुनौती होती है। दरअसल होना तो यह चाहिए कि राजनैतिक नेता देश की अथवा अपने क्षेत्र की प्रगति व विकास का हवाला देकर इस संबंध में अपनी उपलब्धियां अथवा योजनाएं बताकर मतदाताओं को अपने पक्ष में करने का प्रयास करें। परंतु बड़े अ$फसोस की बात है कि हमारे देश के अधिकांश राजनैतिक दल चुनाव के  समय मतदाताओं की भावनात्मक रग टटोलने का प्रयास करते हैं। विकास के नाम पर जनता को अपनी शक्ल न दिखा पाने वाले नेता धर्म व संप्रदाय के नाम पर अपने सहधर्मी समाज में जाकर उनके हमदर्द बन बैठते हंै तथा चुनावों में इसी बल पर वह विजयी भी हो जाते हंै। और अब ऐसा प्रतीत होता है कि राजनीतिज्ञों ने आम जनता का ध्यान मंहगाई, भ्रष्टाचार,बेरोज़गारी तथा विकास संबंधी बातों की तर$फ से हटाकर केवल सांप्रदायिकता फैलाने की ओर ही केंद्रित कर दिया है। मंदिर-मस्जिद,हिंदू-मुस्लिम, व सिख-ईसाई के नाम पर हो रही राजनीति अब इस हद तक $खतरनाक हो चुकी है कि ‘हिंदू आतंकवाद’ व ‘इस्लामी आतंकवाद’ जैसे शब्दों का प्रचलन आम हो गया है। ‘भगवा आतंकवाद’ शब्द का प्रयोग तथा इसका विरोध करने के नाम पर मतदाताओं को भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल किए जाने का प्रयास किया जा रहा है।
हालांकि इस देश में ऐसी घटनाएं पहले भी कई बार हो चुकी हैं। स्वर्गीय माधवराव सिंधिया ने लोकसभा में एक बार हिंदूवादी कट्टरपंथी शक्तियों के लिए बहुत कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया था तथा उन्हें देशद्रोही ता$कतें बताया था। उस समय भी संसद में का$फी हंगामा हुआ था। परंतु पिछले दिनों जयपुर में आयोजित कांग्रेस के चिंतन शिविर के दौरान अपने भाषण में केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने जिस समय भारतीय जनता पार्टी व संघ परिवार पर आतंकवादी शिविर चलाए जाने का आरोप लगाया तथा ‘भगवा आतंकवाद’ शब्द का इस्तेमाल किया उसके बाद देश में एक बार फिर कोहराम बरपा हो गया है। हिंदुवादी ता$कतें शिंदे के बयान को समूचे हिंदू समुदाय से जोडऩे का प्रयास कर रही हैं। सोने में सुहागा यह हो गया कि मुंबई हमलों के मास्टरमाईंड तथा भारत के मोस्ट वांटेड आतंकवादी हा$िफज़ सईद को भी भारतीय गृहमंत्री का बयान रास आ गया। भारत में सक्रिय जिन हिंदूवादी ता$कतों को हा$िफज़ सईद व अन्य पाक स्थित भारत विरोधी आतंकी संगठन अपने हथियार के तौर पर इस्तेमाल करते थे गृहमंत्री के बयान ने उसे और उर्जा प्रदान कर दी। हा$िफज़ सईद संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर देखने लगा तथा उसने शिंदे के बयान को रेखांकित किया। उधर पाक आतंकियों द्वारा शिंदे के बयान को हाथों-हाथ लिए जाने का पूरा $फायदा भारतीय जनता पार्टी देश की भीतरी राजनीति में उठाने के लिए अपना मन बनाती देखी जा रही है।
देश का गुजरात राज्य पहले ही सांप्रदायिकता के आधार पर बंट चुका प्रतीत होने लगा है। पूरा देश जानता है कि इसी राज्य को हिंदुत्व की प्रयोगशाला भी कहा जा रहा था। वैसे भी जब कभी इस देश में मीडिया या आलोचकों द्वारा सांप्रदायिकतावादी ता$कतों को आईना दिखाने का प्रयास होता है उस समय यह शक्तियां अपने ऊपर लगने वाले आरोपों का यथाउचित जवाब देने के बजाए उसका राजनीतिकरण करने लग जाती हैं। और धर्म व जाति के मुद्दों का राजनीतिकरण करने का यह प्रयास जोकि अब तक देश की भीतरी सीमाओं तक ही सीमित था अब इसके आधार पर हो रही ज़हरीली राजनीति का यह विषय अब भारत से निकल कर पाकिस्तान होते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर दस्तक देता दिखाई दे रहा है। निश्चित रूप से यह प्रयास हमारे देश के लिए, हमारे देश की एकता व अखंडता के लिए बेहद चिंतनीय विषय है। जिस प्रकार हमारे देश के राजनैतिक दलों के महारथी मंदिर-मस्जिद व धर्म-जाति के आधार पर बड़ी आसानी से अपने मनचाहे समुदाय के लोगों के चहेते बन बैठते हैं तथा उन्हें अपनी योग्यता,उपलब्धियों तथा विकास संबधी कामों का ब्यौरा देने की कोई $खास ज़रूरत महसूस नहीं होती उसे देखकर यह कहा जा सकता है कि धर्म व समुदाय के नाम पर राजनीति करना उनका सबसे आसान व लोकप्रिय हथियार बन चुका है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक राजनीति का लगभग एक समान यही बदनुमा चेहरा देखा जा रहा है।
यदि देश को बचाना है तो किसी भी तरी$के से राजनीति को धर्म व संप्रदाय के रिश्तों से मुक्त कराना ही होगा। धर्म की राजनीति से हो चुकी सगाई को तोडऩा होगा। और नेताओं अथवा किसी राजनैतिक दल से इस बात की उम्मीद रखने से  कुछ हासिल नहीं है। न ही यह निठल्ले राजनेता ऐसा करना चाहेंगे। ऐसे में ले-दे कर देश का सर्वाेच्च न्यायालय तथा राष्ट्रीय चुनाव आयोग दो ही संस्थान ऐसे हैं जोकि धर्म व राजनीति की सगाई को तोडऩे में अपना अहम किरदार अदा कर सकते हैं। टीएन शेषन के चुनाव आयोग प्रमुख बनने के बाद से लेकर अब तक आयोग प्रत्येक चुनाव में कुछ न कुछ ऐसे परिवर्तन लाता जा रहा है तथा अपना शिकंजा कसता जा रहा है कि कभी बेलगाम होते चुनाव व चुनाव प्रचार अब अपने अंतिम दिनों तक भी पूरी तरह शांतिपूण दिखाई देते हैं। लिहाज़ा चुनाव आयोग को ही अपने विवेक के आधार पर तथा देश की एकता व अखंडता को बनाए रखने के मद्देनज़र इस प्रकार का स$ख्त $फैसला लेना चाहिए कि देश का कोई भी राजनैतिक दल अपने चुनाव में धर्म-जाति, मंदिर-मस्जिद, संप्रदाय जैसी भावनात्मक बातों को चुनावी मुद्दा न बना सके। और यदि कोई नेता या दल अपने भाषण, प्रचार सामग्री यहां तक कि परोक्ष या अपरोक्ष रूप से किसी भी प्रकार से इस आधार पर लोगों को वर$गलाने या उनकी भावनाओं को भडक़ाने का काम करता सुनाई या दिखाई दे तो न केवल उसके चुनाव को अवैध घोषित कर दिया जाए बल्कि उसे जेल में भी डाल दिया जाए। देश को बचाने के लिए तथा देश के  धर्मनिरपेक्ष ढांचे को सुरखित रखने के लिए मानवाधिकारों की रक्षा अथवा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या प्रेस की आज़ादी जैसे कुछ विषयों के साथ कड़ा $फैसला भी लेना पड़ सकता है। चुनाव आयोग के साथ-साथ सर्वोच्च न्यायालय को भी इस विषय पर पूरी गंभीरता से स्वयं संज्ञान लेना चाहिए क्योंकि धर्म से राजनीति की सगाई का परिणाम अब भयंकर रूप लेता जा रहा है और देश में सक्रिय अलगाववादी ता$कतों को नेताओं के इन हथकंडों से पूरा लाभ मिल रहा है। लिहाज़ा यथाशीघ्र संभव इस दिशा में कड़े $कदम उठाए जाने की ज़रूरत है। अन्यथा धर्म और संप्रदाय की राजनीति करने वाले लोग सांप्रदायिकता की हांडी पर अपनी रोटियां सेकते रहेंगे तथा लाशों की राजनीति के यह महारथी इसी राह पर चलकर पूर्ववत् सत्ता सुख भोगते रहेंगे।

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Tanveer Jafri columnist,Tanveer Jafri**Tanveer Jafri ( columnist),(About the Author) Author Tanveer Jafri, Former Member of Haryana Sahitya Academy (Shasi Parishad),is a writer & columnist based in Haryana, India.He is related with hundreds of most popular daily news papers, magazines & portals in India and abroad. Jafri, Almost writes in the field of communal harmony, world peace, anti communalism, anti terrorism, national integration, national & international politics etc.He is a devoted social activist for world peace, unity, integrity & global brotherhood. Thousands articles of the author have been published in different newspapers, websites & news-portals throughout the world. He is also a recipient of so many awards in the field of Communal Harmony & other social activities.

(Email : tanveerjafriamb@gmail.com)**Tanveer Jafri ( columnist),
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*Disclaimer: The views expressed by the author in this feature are entirely his own and do not necessarily reflect the views of INVC.

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