पिछले साढ़े आठ सालों के सुशासनी शासन काल में पंचायती – राज को दुरुस्त करने का काफी ढिंढोरा पीटा गया , अनेकों लोक-लुभावन घोषणाएँ की गयीं, सरकारी खजाने से अरबों रुपए बेदर्दी से खर्च भी किए गए लेकिन नतीजा सिफर ही रहाl कुछ सार्थक हासिल तो नहीं ही हुआ उल्टे गाँव और ग्राम-पंचायत हाशिए पर चले गए l मौजूदा समय में बिहार की ग्राम – पंचायतें पूरी तरह भ्रष्ट-व्यवस्था की भेंट चढ़ चुकी हैं और इस भ्रष्टाचार को अंजाम दे रहा है एक संगठित और सशक्त तंत्र जिसके तार सीधे सत्ता के शीर्ष से जुड़े हैं l सुशासन की सोते-जागते दुहाई देने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की इन सबके बावजूद खामोशी हतप्रभ करने वाली है l अगर उनकी चुप्पी टूटती भी है तो वह दो-चार घोषणाएं कर अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेते हैं l मिसाल के तौर पर पिछले साल मुख्यमंत्री ने पंचायतों में मची लूट रोकने के लिए “लोक-प्रहरी” नियुक्त करने की घोषणा की थी लेकिन अभी तक पूरे प्रदेश में कहीं भी कोई नियुक्ति नहीं हुई है lइसे मुख्यमंत्री की लाचारी कहें , सब्ज़बाग़ दिखाने की उनकी चिर-परिचित आदत या भ्रष्ट-तंत्र में उनकी संलिप्पता ?




पिछले दो सालों में बिहार के ग्रामीण इलाकों के भ्रमण के दौरान मुझे लगभग हरेक गाँव में जगह-जगह लोहे के खंभे पर लगी ‘सोलर –लाईटें’ दिखीं l पहली नज़र में तो मुझे यह देखकर काफी प्रसन्नता हुई कि अंधेरे में डूबे रहने वाले बिहार के गाँवों की तस्वीर बदल गई है, लेकिन शाम ढलते ही मेरी सारी खुशी हवा हो गई क्योंकि जहाँ भी सोलर- लाईटें लगी थीं उनमें से ज़्यादातर ख़राब ही थीं l कुछ चोरी हो गई थीं और अधिकांश खंभे गाय-भैंस और बकरी बांधने के काम आते दिखे l मैंने जब इस बाबत ग्रामीणों से बात की तो उन लोगों ने बताया कि “दरअसल ग्रामीण विकास के तहत मिलने वाली धनराशि का एक बड़ा हिस्सा ज़्यादातर मुखियाओं ने सोलर -लाईट लगाने के नाम पर ही ख़र्च किया है l पूरे राज्य में हज़ारों की संख्या में सोलर – लाईटें लगाई गईं, ऐसा लगने लगा मानो बिहार में ‘वैकल्पिक –ऊर्जा” की क्रांति आ गई हो , लेकिन इस क्रांति के पीछे के ‘खेल’ को समझना बेहद ज़रूरी है , दरअसल सोलर- लाईटें लगाने से कोई भी गाँव भले ही रौशन न हुआ हो, लेकिन उस गाँव के मुखिया जी का घर ज़रूर रौशन हो गया l जिस योजना में ‘बम्पर- कमीशन’ मिले तो भला कौन मुखिया उसे ठुकराना चाहेगा !” ग्रामीणों ने आगे बताया कि “इस काली – कमाई में केवल मुखिया ही शामिल नहीं हैं, बल्कि ब्लॉक में बैठे बी.डी.ओ. और पंचायत सचिव भी मालामाल हो गए l”
बिहार में पंचायती-राज व्यवस्था में मुखिया के अधीन शिक्षक नियोजन, सोलर -लाईटें लगाने की योजना, मनरेगा, इंदिरा आंवास, वृद्धा पेंशन, बाढ़-सूखा से बर्बाद हुई फसल के मुआवज़े की राशि, कबीर अंत्येष्टि योजना की राशि, छात्रवृत्ति की राशि का वितरण करने समेत ग्रामीण विकास से जुड़ी ऐसी ही कई और योजनाएं हैं l इन सभी योजनाओं में किस तरह की अनियमितता बरती जाती है एवं कैसी ‘बंदर-बाँट’ जारी है यह शायद ही किसी से छुपा है l इसे काली कमाई और उसके “डिस्ट्रिब्यूशन” का ही असर कहें कि जो मुखिया कल तक पैदल, साईकिल या रिक्शा से चला करते थे, वो अब महँगे एस.यू.वी. व एम.यू. वी. के मालिक बन बैठे हैं l जिन के पास मुखिया बनने के पहले राजधानी पटना जाने का भाड़ा नहीं होता था वो भी मुखिया बनने के बाद विधानसभा में बैठने का मंसूबा पाले बैठे हैं l यह सुशासनी – व्यवस्था का एक शर्मनाक पहलू है, जहाँ मुखिया जैसा छोटा जन-प्रतिनिधि जनता के धन पर ऐशो-आराम और ‘लाट-साहबी’ ठसक के साथ जी रहा है, वहीं आम आदमी बुनियादी सुविधाओं तक को तरस रहा है l
बिहार में सुशासन ने ग्राम-पंचायत स्तर पर जन-प्रतिनिधियों को लूटने का पूरा अवसर दिया है , पूरी तरह से इस मामले में यहाँ ‘साम्यवाद’ स्थापित हो गया है l ग्रामीण इलाकों के जनवितरण प्रणाली के जो दुकानदार लालू-राबड़ी राज में फटेहाली की अवस्था में पहुँच गए थे (क्यूंकि वितरण करने के लिए कुछ बचा ही नहीं था ) , इन दिनों दिन पंचायत जन-प्रतिनिधियों के साथ-साथ ‘अढ़ईया रात पसेरी’ की दर से मोटे होते जा रहे हैं l साल में छह महीने भी अगर मुखिया जी की कृपा से बी.पी.एल. के लिए आनेवाले अनाज की कालाबाजारी कर दी तो हो गए बिना के.बी.सी. में भाग लिए करोड़पति l ग्रामीण इलाकों में आटा चक्की वालों की भी पौ बारह है , इन्हें भी बाजार से काफी कम कीमत पर मुखिया जी के सौजन्य से गेहूँ-चावल मिल जाता है और फिर ये लोग जो पहले गेहूँ के साथ सिर्फ घुन को पीसते थे अब जबरदस्त तरक्की करते हुए गेहूँ में मिलाकर चावल पीसने लगे हैं l फिर यह अति-पौष्टिक मिश्रण ग्रामीण इलाकों केकिराना दुकानदारों के हाथों बेच दिया जाता है , जिसे खरीदने और खाने वाला ग्रामीण भी परेशान रहता है कि आटे की रोटी क्यों अच्छी नहीं बन रही है ? ग्राम पंचायतों के निर्वाचित प्रतिनिधियों और पैक्स के अध्यक्षों का तो कहना ही क्या? सुशासनी भ्रष्टाचार की कृपा से गांवों में इन दिनों मुखिया जी का ”स्वर्णिम-काल” जो उतर आया है !! तभी तो एक ग्रामीण के द्वारा शायराना अंदाज में की गई कटाक्ष सदैव मेरे जेहन में कौंधते रहती है “काजू भुने प्लेट में व्हिस्की है गिलास में, उतरा है सुशासन मुखिया के निवास में l”
( साथ में पेश है बदहाल ग्राम-पंचायत भवन की चंद तस्वीरें )
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आलोक कुमार,(स्वतंत्र पत्रकार व विश्लेषक ),
पटना.
*Disclaimer : The writer is a freelance journalist and the views expressed by the author in this feature are entirely his own and do not necessarily reflect the views of INVC.
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