आई एन वी सी,,
दिल्ली,,
डॉ0 उदित राज, राष्ट्रीय अध्यक्ष, अनुसूचित जाति/जन जाति संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ, ने कहा कि आशीष नंदी ने 26 जनवरी को ‘जयपुर साहित्य उत्सव’ में कहा, ‘‘ज्यादातर भ्रष्टाचार में दलित, आदिवासी एवं पिछड़े वर्ग के लोग शामिल होते हैं।’’ आशीष नंदी एक समाजशास्त्री हैं और उनकी इस सोच की चुनौती को हम स्वीकार करते हैं और बहस करने के लिए तैयार हैं कि कौन सा वर्ग ज्यादा भ्रष्टाचार करता है? वे अभी तक दलित एवं पिछड़ों के हितैषी होने का मुखौटा लगाए हुए थे और वह अब उतर गया है। जिस तरह से निर्भया के साथ बलात्कार और हत्या पर देश में लंबी बहस चली उसी तरह से इस मुद्दे पर भी बहस चलाने की दावत देता हूं। एक वर्ष पहले 17 लोगों के जर्मनी में बैंक खाते पकड़े गए और इसका सरकार ने खुलासा किया था, उसमें से एक भी दलित एवं पिछड़ा नहीं था। हजारों लोगों के खाते विदेशों में हैं और उसमें किसी दलित का तो होगा ही नहीं, पिछड़े का भी नहीं होना चाहिए, अगर हुआ तो अपवादस्वरूप होगा। कोल आबंटन में एक भी दलित शामिल नहीं है। लगभग 70 हजार करोड़ का घोटाला कॉमन वेल्थ गेम्स में हुआ, उसमें एक भी दलित शामिल नहीं है। कावेरी गैस के मामले में 40 हजार करोड़ से ज्यादा की लूट है, वह किसी दलित के द्वारा तो नहीं किया गया। देश के शासन-प्रशासन में आज़ादी के बाद से सवर्ण ही लगभग हर जगह पर रहे हैं, तो बुनियाद इन्हीं के द्वारा डाली गयी। भ्रष्टाचार कोई एक दिन में पैदा नहीं हो जाता बल्कि सालों के बाद जड़ जमा पाता है। अब समझना मुश्किल नहीं है कि भ्रष्टाचार की जड़ में कौन लोग थे? निश्चित तौर से दलित तो नहीं थे। एक बार जब भ्रष्टाचार की जड़ जम जाए तो उसमें सभी वर्ग विशेष के लोग शामिल हो सकते हैं, लेकिन सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह है कि बुनियाद डालने वाले कौन थे? तेलगी कोई दलित नहीं था, जिसने कई हजार करोड़ का घोटाला किया और इसी तरह से हरशद मेहता भी। हमारा समाज व्यक्तिवादी एवं जातिवादी है, इसलिए हम समाज और देश के बारे में अंत में सोचते हैं और अपने बारे में पहले। इस पर भी बहस हो जाए कि जातिवादी समाज बनाने का कार्य किसने किया? अन्ना हजारे ने आर्थिक भ्रष्टाचार मिटाने की लड़ाई तो लड़ी लेकिन साल भर बाद जब सर्वे किया गया तो पता लगा कि भ्रष्टाचार और बढ़ गया है। डॉ0 उदित राज ने उनसे पूछा कि साल भर से ज्यादा उनके आंदोलन को बीत गया। उसके बाद सर्वे में पता लगा कि भ्रष्टाचार बढ़ा ही है, तो उन्होंने जवाब में कहा कि भ्रष्टाचार मिटाने के लिए गांव तक जाना होगा। डॉ0 उदित राज ने कहा कि एक गांव को सुधारने में आपका पूरा जीवन लग गया और देश में छः लाख से ज्यादा गांव हैं, तो कितने सौ साल लगेगें? ज़ाहिर सी बात है कि उनके पास उत्तर नहीं था। आशीष नंदी वास्तव में किताबी ज्ञान वाले व्यक्ति हैं और असली समाजशास्त्री नहीं वरना उन्हें भ्रष्टाचार की जड़ पर अर्थात् सोच पर हमला करना चाहिए था। जब व्यक्ति मानसिक रूप से बेईमान होता है तभी आर्थिक भ्रष्टाचार भी करता है। हमारी सारी सामाजिक व्यवस्था ही मानसिक बेईमानी की देन है। डॉ0 उदित राज ने कहा कि देश में इस पर बहस चलाना कहीं ज्यादा जरूरी है कि कौन भ्रष्ट ज्यादा है? जब बहस छिड़ गयी है तो इसे अंतिम नतीजे पर पहुंचाना चाहिए कि कौन ज्यादा भ्रष्ट है? कुछ दलित और पिछड़े छोटे-मोटे भ्रष्टाचार करते हैं, लेकिन पकड़ में जल्दी आ जाते हैं, क्योंकि वे करना नहीं जानते। वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष ने भी ऐसा ही कहा। इस देश के ज्यादातर बुद्धिजीवी एक तरफ मानसिक रूप से बेईमान हैं और दूसरी तरफ देश की सच्चाई को समझने में नाकाम हैं। यही कारण है कि हमारे यहां के बुद्धिजीवी वर्ग की लेखनी, सोच एवं शोध की वजह से समाज नहीं बदल पाया बल्कि जब समाज बदला तब जाकर उन्हें होश आता है। ये किताबी कीड़े ज्यादा हैं और नाना प्रकार के लोभ-लालच, जैसे – पुरस्कार, सम्मान, पद, फेलाशिप आदि के चक्कर में ज्यादा रहते हैं। यह कहना कि भ्रष्टाचार की जाति नहीं होती, सही नहीं है। जाति व्यवस्था ही अपने आप में असत्य और झूठ है। आशीष नंदी की टिप्पणी पर यदि बहस चलती है तो इससे भ्रष्टाचार के ख्लिाफ लड़ने में सहयोग मिलेगा।