सुरेन्द्र अग्निहोत्री
आई.एन.वी.सी,,
लखनऊ,,
आल्हा बुंदेलखंड की वीर भूमि महोबा और आल्हा एक दूसरे के पर्याय हैं। महोबा की सुबह आल्हा से शुरू होती है और उन्हीं से खत्म। बुंदेलखंड का जन-जन आज भी चटकारे लेकर गाता है-
बुंदेलखंड की सुनो कहानी बुंदेलों की बानी में
पानीदार यहां का घोडा, आग यहां के पानी में
बुंदेलखंड सहयोग परिशद द्वारा राजधानी में आयोजित किए गए आल्हा महोत्सव के आयोजन कार्यक्रम को लखनऊ दूरदशZन केंद्र द्वारा शनिवार, 30 जुलाई 2011 को शाम 7.20 पर प्रसारित किया जाएगा। संस्था के मंत्री देवकी नंदन शांत ने बताया है कि बुंदेलखंड के वीर काव्य आल्हा गायन, वशाZ ऋतु में पूरे बुंदेलखंड में बड़े चाव के साथ गाया जाता है। आल्हा गायक इन्हें धर्मराज का अवतार बताता है। कहते है कि इन्हें युद्ध से घृणा थी और न्यायपूर्ण ढंग से रहना विशेष पसंद था । इनके पिता जच्छराज (जासर) और माता देवला थी। ऊदल इनका छोटा भाई था। जच्छराज और बच्छराज दो सगे भाई थे जो राजा परमा के यहॉ रहते थे। परमाल की पत्नी मल्हना थी और उसकी की बहने देवला और तिलका से महाराज ने अच्छराज और बच्छराज की शादी करा दी थी। मइहर की देवी से आल्हा को अमरता का वरदानल मिला था। युद्ध में मारे गए वीरों को जिला देने की इनमें विशेशता थी। लाार हो कर कभी-कभी इन्हें युद्ध में भी जाना पड़ता था। जिस हाथी पर ये सवारी करते थे उसका नाम पष्यावत था। इन का विवाह नैनागढ़ की अपूर्व सुंदरी राज कन्या सोना से हुआ था। इसी सोना के संसर्ग से ईंदल पैदा हुआ जो बड़ा पराक्रमी निकला। शायद आल्हा को यह नही मालूम था कि वह अमर है। इसी से अपने छोटे एवं प्रतापी भाई ऊदल के मारे जाने पर आह भर के कहा है-
पहिले जानिति हम अम्मर हई,
काहे जुझत लहुरवा भाइ ।