वैज्ञानिकों ने वैसे तो विज्ञान, तकनीक तथा सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में इसी उद्देश्य को लेकर तमाम उपलब्धियां हासिल की हैं ताकि मानव जाति का विकास हो तथा उसका ज्ञानवर्धन हो सके। टेलीविज़न भी इन्हीं अविष्कारों में से एक है जिसका मकसद विश्वस्तर पर सूचना का आदान-प्रदान करना,ज्ञानवर्धक कार्यक्र म प्रसारित करना,लोगों को शिक्षित व जागरूक करना तथा मनोरंजन करना आदि शामिल हैं। परंतु बाज़ारवाद की आंधी ने तो लगता है कि इन सभी वैज्ञानिक अपलब्धियों के उद्देश्य को ही बदल कर रख दिया है। आज अधिकांश ऐसे टीवी चैनल जो कि बाज़ारवाद की इस आंधी का शिकार हो चुके हैं वे अपने टी वी चैनल्स के प्रसारण को केवल व्यवसायिक दृष्टिकोण से ही देख रहे हैं।
परिणामस्वरूप न केवल टेलीविज़न के आविष्कार का मकसद बदल गया प्रतीत होता है बल्कि यही चैनल्स आम लोगों को गुमराह व पथभ्रष्ट भी करने लगे हैं। इसका कारण शायद केवल यही है कि टी वी कं पनियों को केवल पैसा दरकार है और कु छ नहीं। अब चाहे वह पैसा अशिष्ट कार्यक्रमों के प्रसारणों से आए,सनसनीखेज़ समाचारों से मिले,अभद्र विज्ञापनों के प्रसारण के द्वारा आए पक्षपातपूर्ण प्रसारण से प्राप्त हो या कथित अध्यात्मवाद का दरबार सजाने से आए या फिर पूर्वाग्रही खबरें बेचने से ही क्यों न मिले। टी वी चैनल्स को तो सिर्फ पैसे की ही दरकार रह गई है।
गत् एक दशक से तो हमारे देश में इन्हीं टी वी चैनल्स के पूरी तरह सक्रि य होने के बाद तो लगता है भारत में अध्यात्म की गोया बाढ़ आ गई हो। पूरे देश में चारों ओर जहां भी जाईए और जो भी चैनल देखिए उनमें ज्य़ादातर तथाकथित अध्यात्मक गुरू आपको धर्म,अध्यात्म,जीने की कला,स्वास्थ्य तथा राजनीति का घालमेल,योग शास्त्र आधारित उपचार आदि न जाने क्या-क्या परोसते दिखाई देते हैं। इन कथित अध्यात्मिक गुरुओं के समक्ष जो भीड़ बैठी दिखाई देती है उसे देखकर तो ऐसा प्रतीत होता है गोया पूरा देश ही इन कथित अध्यात्मिक गुरुओं की ही शरण में जा चुका है।
निश्चित रूप से यह सब केवल टी वी चैनल्स के प्रसारण का ही कमाल है। बड़े-बड़े धनवान संतों, महात्माआ, आश्रम संचालकों तथा कथित धर्मगुरुओं ने विभिन्न टी वी चैनल्स पर प्रसारण का समय खरीद रखा है। कोई 15 मिनट अध्यात्म का पाठ पढ़ाता है तो कोई आधा घंटा तो कोई एक घंटा। वैसे तो इन टी वी चैनल्स के समय की $कीमत चैनल की लोकप्रियता,टी आर पी व टी वी बाज़ार में उस चैनल की अपनी लोकप्रियता पर र्निभर करती है फिर भी मोटे तौर पर एक किश्त के प्रसारण का मूल्य 10 लाख रूपये से लेकर 50 लाख रूपये तक बैठता है। गोया साफ है कि इस प्रकार की अध्यात्म की दुकान टी वी पर सजाने वाले धर्मगुरुओं को अपने प्रवचनों अथवा अन्य कथित अध्यात्मिक प्रसारणों हेतु करोड़ों रूपये खर्च करने पड़ते हैं।
ज़ाहिर है इतना बड़ा खर्च अध्यात्मिक गुरुओं के भक्त द्वारा दान किए गए धन से ही किया जाता है। यहां इस विवाद में पडऩे से कुछ हासिल नहीं कि कौन सा गुरु टी वी पर अपने प्रवचन के द्वारा समाज को क्या देता है,क्या बेचता है, उसके प्रवचन प्रसारण करने का मकसद क्या है, वह किस प्रकार की भाषा बोलकर सीधे-सादे श्रद्धालुओं को अपने मोहजाल में फंसाता है, उसका अपने भक्तजनों के जीवन पर कितना प्रभाव पड़ता है अथवा टी. वी. पर प्रकटीकरण के बाद किस धर्मगुरू के भक्तों की संख्या किस गति से बढ़ती जा रही है वग़ैरह-वग़ैरह….।
हां,भारत में इस समय के सबसे ज्वलंत मुद्दे यानी भ्रष्टाचार के परिपेक्ष्य में यह सवाल ज़रूर उठता है कि आज जबकि टी.वी. चैनल्स पर अध्यात्म की आंधी चलती दिखाई दे रही हो तथा लगभग पूरा का पूरा देश किसी न किसी कथित आध्यात्मिक गुरु के मोहजाल में फंसा नज़र आ रहा हो ऐसे में यही आध्यात्मिक गुरु समाज से भ्रष्टाचार व अनैतिकता को दूर कर पाने में सफल क्यों नहीं हो पा रहे हैं? जिस देश में अध्यात्म व प्रवचन इस कद्र बिकता हो कि लगभग प्रत्येक घर में कोई न कोई व्यक्ति किसी न किसी गुरु का प्रवचन सुनता,प्रवचन पर झूमता व तालियां बजा-बजा कर उन गुरुओं के प्रवचनों से आनंदित होता दिखाई देता हो, जिन धर्मगुरुओं को उनके भक्त अपना धन-संपत्ति और ज़रूरत पडऩे पर अपना सबकुछ न्यौछावर करने को तैयार हो जाएं, ऐसे धर्मगुरु आखिर भ्रष्टाचार नियंत्रण की दिशा में कुछ रचनात्मक क्यों नहीं कर रहे हैं?
यदि आज हम किसी भी धर्मगुरु की बातें सुनें तो हम देखते हैं कि वह सार्वजनिक रूप से अपने अनुयाईयों को शांति, सद्भाव, प्रेम, गुरु महिमा, धार्मिक रास्ते पर चलने, नामदान जपने तथा उसका आदर करने, अपने गुरुओं के प्रति सच्ची श्रद्धा व गहन आस्था रखने, व्यवसाय में तरक्क़ी करने, पारिवारिक संकट से उबरने, आर्थिक रूप से संपन्न होने, कमाई में बरकत होने जैसी आकर्षक बातें बताता है या फिर इनके उपाय सुझाता है। कई तथाकथित गुरु ऐसे भी हैं जो अपने इन प्रवचनों की $कीमत स्वरूप अपने भक्तों से धन भी मांगते हैं, कई गुरु अपने बैंक अकाऊंट नंबर टी वी पर दिखाते हैं तथा उसमें पैसे डालने हेतु भक्तजनों को प्रोत्साहित करते हैं। परंतु कम से कम मैंने तो आज तक यह नहीं देखा कि किसी आध्यात्मिक गुरु ने अपने प्रवचन को इस बात पर केंद्रित रखा हो कि वह अपने भक्तों को अवैध कमाई करने से रोक रहा हो, भ्रष्टाचार, मिलावटखोरी या रिश्वतखोरी के विरुद्ध प्रवचन देता हो या ऐसा कहता दिखाई देता हो कि हमारे प्रवचन,समागम या हमें भेंट किए जाने वाले पैसों में किसी भी भक्त की किसी प्रकार की अवैध या भ्रष्टाचार की काली कमाई का कोई भी हिस्सा शामिल नहीं होना चाहिए।
बजाए इसके ऐसे ही कई कथित बाबा अपनी स्वार्थसिद्धि के चलते अथवा राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता या पूर्वाग्रह के कारण सरकार, शासन व प्रशासन पर ही भ्रष्टाचार व रिश्वतखोरी जैसे मुद्दे पर निशाना साधे रहते हैं या उनकी आलोचना करते रहते हैं। गोया देश में भ्रष्टाचार, हरामखोरी व रिश्वतखोरी जैसे बढ़ते जा रहे नासूर को रोकने के लिए यह ‘गुरुजन’ केवल कानून व सरकार से ही उम्मीदें लगाए रहते हैं अपने भक्तजनों या अनुयाईयों से नहीं।
ऐसे में सवाल यह है कि टी वी पर प्रकट होने वाले तथा तरह-तरह के मीठे,आकर्षक, ज्ञानवर्धक व आध्यात्मिक प्रवचन देने वाले यह धर्मगुरु अपने-अपने भक्तजनों को काली कमाई करने से क्यों नहीं मना करते? यह अपने भक्तों से यह क्यों नहीं कहते कि तुम लोग रिश्वत मत लिया-दिया करो। भ्रष्टाचार के किसी मामले में संलिप्त मत हुआ करो। टैक्स चोरी मत करो, सरकारी ज़मीन अथवा मुख्य मार्गों के किनारे अतिक्रमण मत किया करो, धार्मिक कार्यों व दान-दक्षिणा में काली कमाई के पैसे मत लगाया करो, वगैरह। मुझे विश्वास है कि यदि आज हमारे देश के केवल टेलीविज़न पर प्रकट हाने वाले धर्मगुरु ही इस बात की ठान लें कि वे देश से भ्रष्टाचार को समाप्त करके ही दम लेंगे तो शायद हमारे देश में न तो किसी अन्ना हज़ारे की ज़रूरत पड़ेगी न ही भ्रष्टाचार विरोधी किसी मुहिम या क्रांति की और न ही लोकपाल या जनलोकपाल विधेयक को बहाना बनाकर सरकार से दो-दो हाथ करने की।
परंतु इसके लिए हमारे धर्मगुरुओं, अध्यात्म की शिक्षा देने वाले गुरुजनों तथा ज्ञान की गंगा बहाने वाले प्रवचनकर्ताओं में इच्छाशक्ति का होना सबसे अधिक ज़रूरी है। जिस प्रकार इस समय देखा जा रहा है कि देश का लगभग प्रत्येक नागरिक खासतौर पर शहरों में रहने वाले अधिकांश लोग किसी न किसी गुरु की वाणी का टीवी पर आनंद लेते व श्रद्धाभाव में झूमते दिखाई देते हैं उसे देखकर यह कहा जा सकता है कि इधर-उधर की निरर्थक बातों से बहला-फुसला कर अपने साथ जोड़े रखने की कला में पारंगत यही धर्म व अध्यात्म गुरु यदि चाहें तो अपने भक्तों व शिष्यों को अवैध कमाई करने से रोकने के निर्देश अथवा सलाह दे सकते हैं। यदि वे चाहें तो वे अपने भक्तजनों को यह समझा सकते हैं कि रिश्वत अथवा अवैध कमाई से परवरिश पाने वाले बच्चों के भविष्य पर ऐसी कमाई का क्या दुष्प्रभाव पड़ता है। उन्हें कैसे संस्कार मिलते हैं तथा आगे चलकर वे बच्चे स्वयं ऐसी ही कमाई को किस प्रकार अपनी जीविकोपार्जन का माध्यम बना लेते हैं।
चूंकि टी वी पर प्रवचन देने के शौकीन यह धर्मगुरु अपने भक्तजनों से अवैध कमाई या रिश्वतखोरी,टैक्स चोरी या भ्रष्टाचार के विरुद्ध कोई अपील जारी नहीं करते इसलिए ऐसे धर्मगुरुओं व अध्यात्म का बाज़ार सजाने वाले उपदेशकों व प्रवचनकर्ताओं पर उनके आलोचक अक्सर निशाना साधते हैं। तमाम आलोचकों का यह मानना है कि रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार अथवा काले धन या हराम की कमाई को लेकर यह धर्मगुरु इसलिए सार्वजनिक रूप से अपने शिष्यों व भक्तों को कुछ नहीं कहते क्योंकि इनका अपना ‘अध्यात्म कारोबार’ स्वयं ही इसी प्रकार की कमाई, ऐसी ही काली कमाई में से दिए जाने वाले दान तथा रिश्वतख़ोरी के पैसों से इन पर चढ़ाए जाने वाले चढ़ावे से चलता है।
लिहाज़ा यह गुरु अपने चेलों से इस प्रकार की काली कमाई न किए जाने हेतु क्योंकर अपील करेंगे? जबकि कुछ आलोचक यह मानते हैं कि टी.वी. पर प्रसारित होने वाले अधिकांश ‘सेलिब्रिटी’ रूपी गुरु स्वयं ही व्यवसायिक प्रवृत्ति के हैं तथा अपने प्रवचन के प्रसारण व इससे होने वाले लाभ-हानि को पूरी तरह व्यवसायिक दृष्टिकोण से नापते, तोलते व देखते हैं जबकि कुछ कटु आलोचक तो ऐसे भी हैं जो तथाकथित धर्म व अध्यात्म के इस प्रसारण रूपी पूरे के पूरे खेल को ही भ्रष्टाचार, पाखंड व सीधे सादे व सज्जन लोगों को गुमराह कर अपने साथ जोडऩे का सुगम उपाय तथा भक्तजनों की भावनाओं का दुरुपयोग करने जैसी नज़रों से देखते हैं। हकीकत जो भी हो परन्तु अपने आप में यह एक ज्वलंत, तार्किक एवं प्रासंगिक प्रश्र ज़रूर है कि ऐसे में जबकि पूरे देश में चारों ओर विभिन्न भाषाओं, धर्मों व विचारधाराओं के तथाकथित धर्मगुरु टेलीविज़न के माध्यम से अध्यात्म की आंधी चला रहे हों, ऐसे में हमारे देश में आखिर रिश्वतख़ोरी, भ्रष्टाचार, कालाबाज़ारी,अनैतिकता, अतिक्रमण, झूठ, वैमनस्य मक्कारी व मिलावटख़ोरी जैसी बुराईयों का बाज़ार क्यों गर्म है।
*इस लेख में व्यक्त किये गये विचार लेखक के अपने हैं और आई.एन.वी.सी. के विचारों से अलग हो सकते हैं।