{ निर्मल रानी } रसोई गैस अर्थात् एलपीजी गैस की आपूर्ति करने वाली कंपनी इंडेन द्वारा अपने ग्राहकों को एसएमएस द्वारा इस आशय का संदेश उनके मोबाईल $फोन पर भेजा जा रहा है कि ‘वे एलपीजी गैस पर मिलने वाली सब्सिडी अथवा आर्थिक अनुदान लेना छोड़ दें तथा राष्ट्र निर्माण के भागीदार बनें। सबसिडी प्राप्त रसोई गैस ज़रूरतमंद लोगों तक पहुंचाने में सहयोगी बनें’। इस संदेश का सा$फ अर्थ है कि सरकार अब सबसिडी प्राप्त गैस सिलेंडर की संख्या घटाने या बढ़ाने के पचड़े में पडऩे के बजाए धीेरे-धीरे किसी न किसी बहाने गैस सिलेंडर पर मिलने वाले सरकारी आर्थिक अनुदान अथवा सबसिडी को ही समाप्त करने की योजना बना रही है। और इसमें मज़े की बात तो यह है कि रसोई गैस की उपभोक्ता गृहणियों को राष्ट्र के विकास में सहयोगी हाने का वास्ता दिया जा रहा है। सवाल यह है कि क्या रसोई गैस की सब्सिडी आम जनता द्वारा लेना बंद करने मात्र से ही राष्ट्र निर्माण संभव है? या इसके अतिरिक्त और भी कई ऐसे रास्ते हैं जिनपर सरकार जानबूझ कर चलना ही नहीं चाहती? यदि हम रसोई गैस पर मिलने वाली सब्सिडी को ही त्यागने की बात करें तो क्या देश के नेताओं,सांसदों,विधायकों,मंत्रियों,अधिकारियों,प्रथम श्रेणी व द्वितीय श्रेणी के नौकरशाहों,उद्योगपतियों व भारी भरकम आयकर जमा करने वालों या बड़े ज़मीदारों आदि को सबसे पहले गैस सब्सििडी समाप्त करने वाली सूची में नहीं डालना चाहिए? आ$िखर देश की असंगठित आम जनता पर ही सबसे पहले इस प्रकार का वज्रपात करने या इस प्रकार की योजनाओं से भयभीत अथवा इसके लिए प्रोत्साहित करने का क्या मकसद है?
इंडने द्वारा जारी इस संदेश का सा$फ मतलब है कि सरकार अपने आर्थिक बोझ को कम करना चाहती है। और जनता को राष्ट्र निर्माण में सहयोग देने जैसी भावनात्मक बातें बताकर उसकी जेब से गैस का मूल्य लगभग 420 रुपये के बजाए लगभग साढ़े नौ सौ रुपये निकालना चाह रही है। और प्रति सिलेंडर पर दी जाने वाली लगभग 530 रुपये की सब्सिडी समाप्त करने की योजना बना रही है। अब ज़रा हम तीन दशक पीछे मुडक़र देखें तो हमें अपने देश में सुबह-शाम दोनों व$क्त प्रत्येक शहर,माहल्ले,गली व गांव में धुएं के काले बादल नियमित रूप से उठते दिखाई देते थे। रसोई के लिए इस्तेमाल होने वाले ईंधन के रूप में आमतौर पर लकड़ी,कैरोसीन,कोयले तथा बुरादे आदि का प्रयोग किया जाता था। पेड़ों की कटाई भी बेतहाशा होती थी और धुएुं के कारण वातावरण में अत्यधिक प्रदूषण भी फैलता था। परिणामस्वरूप ग्लोबल वार्मिंग में भी इज़ा$फा होता था। इन्हीं समस्याओं से निजात पाने के लिए रसोई गैस का न केवल प्रचलन बढ़ा बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर रसोई गैस को घर-घर तक पहुंचाने के लिए तरह-तरह की योजनाएं भी शुरु की गईं। ज़ाहिर है रसोई गैस पर सरकार द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी भी उसी योजना का एक अहम हिस्सा है। और अब ऐसी स्थिति में जबकि देश के अधिकांश रसोइघर एलपीजी गैस युक्त हो चुके हैं तथा सरकार द्वारा दिए जाने वाले आर्थिक अनुदान से प्राप्त होने वाली गैस का प्रयोग कर रहे हैं। ऐसे में अचानक गैस की $कीमत दोगुनी से भी अधिक करने की योजना निश्चित रूप से देश की गृहणियों व आम आदमियों के लिए बहुत बड़ा झटका साबित हो सकती है।
सरकार के इन प्रयासों के परिपेक्ष्य में यह भी एक बहस का विषय है कि सरकार को अपना राजस्व बढ़ाने के लिए क्या सबसे आसान तरी$का प्राय: यही सुझाई देता है कि वह जब चाहे पैट्रोल व डीज़ल के दाम बढ़ा दे, रेल किराए में बढ़ोतरी कर दे, रोज़मर्रा के इस्तेमाल की चीज़ें व खाद्य वस्तुएं मंहगी होती जाएं और सरकार असहाय बनकर यह सब देखती रहे? बिजली की $कीमतें बढ़ती रहें? बच्चों की शिक्षा आम लोगों की पहुंच से सि$र्फ इसलिए दूर हो जाए क्योंकि उनके पास अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए पर्याप्त पैसा नहीं है? दवा-इलाज उनकी पहुंच से बाहर हो जाए? या इन सबके अतिरिक्त और भी कई क्षेत्र ऐसे हैं जिनपर यदि सरकार नज़र डाले या उन योजनाओं पर पुनर्विचार करे तो गैस सब्सिडी की ओर देखने की संभवत: सरकार को ज़रूरत ही न पड़़े ? सर्वप्रथम तो यदि रसोई गैस को ही सरकार अनुदान से मुक्त करना है तो केद्र व राज्य सरकार के मंत्रियों,लोकसभा व राज्यसभा सदस्यों,विधान सभा व विधान परिषद के सदस्यों,नौकरशाहों,प्रथम व द्वितीय श्रेणी के अधिकारियों, भारी-भरकम आयकर जमा करने वालों तथा बड़े ज़मींदारों आदि को दी जाने वाली सब्सिडी समाप्त कर दी जानी चाहिए। परंतु सरकार ऐसा हरगिज़ नहीं करेगी। क्योंकि दरअसल यही वर्ग किसी भी सरकार का कर्ताधर्ता समझा जाता है। इसी वर्ग के चारों ओर सरकार का गठन व पतन सबकुछ निर्भर होता है। इसलिए सरकार इस वर्ग पर सीधेतौर पर कोई ‘वज्रपात’ नहीं करना चाहती। बजाए इसके जनहित के नाम पर $कानून बनाकर व योजनाएं शुरु कर इसी विशेष तब$के को सबसे अधिक लाभान्वित करना चाहती है।
आम लोगों को रसोई गैस में सब्सििडी न दिए जाने के अतिरिक्त और भी कई स्त्रोत ऐसे हैं जिनके द्वारा सरकार अपने राजस्व को बढ़ा व बचा सकती है। उदाहरण के तौर पर सरकार द्वारा अवकाश प्राप्ति के बाद करोड़ों लोगों कों पेंशन दी जा रही है। इनमें लगभग आधे पेंशनधारी ऐसे हैं जो पूरी तरह संपन्न हैं तथा वे उन्हें मिलने वाली पेंशन के पैसों पर $कतई आश्रित नहीं हैं। क्या सरकार को इसे वर्गीकृत नहीं करना चाहिए कि जो अवकाश प्राप्त कर्मचारी ज़रूरतमंद हैं तथा उन्हें किसी दूसरी आय का कोई सहारा नहीं है,उसके पास ज़मीन-जायदाद या कमाने वाले बच्चे नहीं हैं उसे तो निश्चित रूप से आर्थिक सहायता के रूप में सरकारी पेंशन की दरकार है। परंतु एक आर्थिक रूप से संपन्न अवकाश प्राप्त व्यक्ति को पेंशन की क्या ज़रूरत। इसी प्रकार देश में वृद्धा पेंशन दिए जाने में भी विभिन्न राज्य सरकारों में मात्र वोट बैंक की $खातिर भारी होड़ लगी हुई हैं। कोई सरकार पांच सौ रुपये देती है तो दूसरी सरकार हज़ार रुपये देने लग जाती है। यही नहीं चुनावों के दौरान भी कुछ राजनैतिक दल इसी वृद्धा पेंशन को दुगनी और तीनगुनी करने जैसा प्रलोभन देते दिखाई देते हैं। क्या इस वृद्धा पेंशन वितरण योजना को भी आर्थिक संपन्नता तथा $गरीबी में जीने वाले बुज़ुर्गों को दो अलग-अलग श्रेणियों में नहीं बांटा जा सकता? एक करोड़पति बुज़ुर्ग भी पेंशन का ह$कदार है क्योंकि वह 60 साल की उम्र पार कर चुका है। और एक $गरीब मज़दूर भी? आ$िखर यह कैसी योजना है और कैसे इसके योजनाकार? इस प्रकार बेवजह रेवडिय़ों के रूप में सरकारी राजस्व लुटाने के बजाए $गरीब युवकों को बेरोज़गारी भत्ता दिया जाना चाहिए। $गरीब बच्चों को नि:शुल्क उच्च शिक्षा दिए जाने की व्यवस्था की जानी चाहिए।
इसी प्रकार कृषिप्रधान देश के नाम पर हमारे देश के किसानों को आयकार से मुक्त रखा गया है। सुनने में यह $कानून भी बड़ा ही लोकलुभावन व किसानों का हितकारी प्रतीत होता है। परंतु दरअसल इसमें भी बड़े परिवर्तन की ज़रूरत है। बेशक $गरीब व मध्यम किसान जो एक से लेकर 10-20 एकड़ ज़मीन के मालिक हैं उन्हें आयकर से मुक्त रखना अथवा उन्हें बिजली आपूर्ति की अतिरिक्त सहायता देने में निश्चित रूप से कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। बल्कि इन्हें बीज व खाद हेतु आर्थिक सहायता,कृषि यंत्रों हेतु सब्सिडी ऋण आदि सबकुछ दिया जाना चाहिए। परंतु जो किसान सौ-दौ सौ,पांच सौ या हज़ारों एकड़ ज़मीन के मालिक हैं जिनके पास दर्जनों ट्रैक्टर व कई-कई कंबाईन हैं वे आ$िखर इंकम टैक्स देने से बरी क्यों हैं? क्या ऐसा भी इसीलिए नहीं है क्योंकि किसानों का यही उच्च वर्ग देश की शासन व प्रशासन व्यवस्था पर अपना शिकंजा मज़बूत किए हुए है? और यही वर्ग यदि स्वयं को देशभक्त,जनता का सेवक या शासक कहलाना चाहता है तो इन्हें सरकार को आयकर देकर, बिजली के मंहगे मूल्य चुका कर राष्ट्र के निर्माण में भागीदार क्यों नहीं बनना चाहिए? आ$िखर यह कैसी सरकारी योजनाएं हैं जो देश के संपन्न लोगों को लूटना,खसोटना,अनैतिक तरी$के से सरकारी धन-संपत्ति का इस्तेमाल करने का रास्ता दिखाती हैं और देश के उन आम आदमियों से जिन्हें देश में अच्छे दिन आने के सपने दिखाए गए थे उनसे राष्ट्रनिर्माण में भागीादार बनने जैसी भावनात्मक बात कहकर रसोई गैस में मिलने वाली सरकारी आर्थिक सहायता अथवा सब्सिडी को त्यागने की प्रेरणा दी जाती हैं?
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कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं.
Nirmal Rani (Writer )
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