{ निर्मल रानी ** }
भारतीय लोकतंत्र अपनी व्यापक जनप्रतिनिधित्व व्यवस्था तथा विशाल चुनाव प्रबंधन के लिए पूरे विश्व में अपनी एक अलग मिसाल पेश करता है। देश में होने वाले संसदीय चुनावों के समय विश्व के कई देशों के लोग भारत में होने वाले इस अभूतपूर्व चुनाव प्रबंधन को देखने,समझने व इसका गहन अघ्ययन करने के लिए आते रहते हैं। स्वतंत्रता के लगभग सात दशक बीतने के दौरान हमारे देश में संपन्न होने वाले इन चुनावों के $कायदे-$कानून तथा व्यवस्था व प्रबंधन संबंधी नियमों में धीरे-धीरे कई प्रमुख बदलाव किए गए हैं। निश्चित रूप से उसके सकारात्मक परिणाम भी सामने आए हैं। पहले की तुलना में अब चुनाव अधिक निष्पक्ष,शोर-शराबे तथा बैनर-पोस्टर के ‘युद्ध’ से मुक्त, बूथ कैपचरिंग अथवा मतदान केंद्रों पर बाहुबलियों द्वारा $कब्ज़ा जमाए जाने जैसी घटनाओं से मुक्त होते जा रहे हैं। परंतु इसके बावजूद अभी भी हमारे देश के चुनाव संबंधी अधिनियम में कई ऐसी कमियां हैं जिनका निराकरण होना बेहद ज़रूरी है। कहना $गलत नहीं होगा कि भारतीय चुनाव अधिनियम में मौजूद ऐसे कई प्रावधानों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है गोया निर्वाचन अधिनियम बनाने वाले विशेषज्ञों द्वारा नेताओं के चहुंमुखी हितों का ध्यान रखते हुए ऐसे नियम बनाए गए हों। बहरहाल, जब जागो तभी सवेरा की नीति पर चलते हुए न केवल केंद्र सरकार व भारतीय चुनाव आयोग को इन पहलूओं पर गंभीरता से सोचना चाहिए बल्कि राजनेताओं को भी पूरी ईमानदारी के साथ राष्टहित में इन $कानूनों को बदलने हेतु अपना समर्थन देना चाहिए।
भारतीय चुनाव अधिनियम की धारा 70 में ऐसा प्रावधान है कि कोई भी नागरिक एक साथ दो स्थानों से चुनाव मैदान में उतर सकता है। और यदि वह दोनों ही स्थानों से विजयी होता है तो अपनी स्वेच्छा से वह किसी एक सीट से त्यागपत्र दे सकता है। उसके पश्चात निर्धारित अवधि में चुनाव आयोग उस एक रिक्त की गई सीट पर पुन: चुनाव करवाता है। इस व्यवस्था का आ$िखर औचित्य ही क्या है? ऐसी व्यवस्था में जहां किसी नेता का सदन (संसद अथवा विधानसभा) में पहुंचना अवश्यम्भावी सुनिश्चित किया जाता है वहीं इसके कई नकारात्मक परिणाम भी हैं जिन्हें जनहित में नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए। इस व्यवस्था के परिणामस्वरूप एक तो उस क्षेत्र की जनता स्वयं को ठगा हुआ, दूसरे दर्जे का तथा उपेक्षित महसूस करती है जहां से निर्वाचित सदस्य त्यागपत्र देता है। उसके पश्चात पुन: उपचुनाव होने की स्थिति में न केवल सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग होता है, क्षेत्रीय जनता का समय व उर्जा बरबाद होती है बल्कि सरकारी धन की भी बरबादी होती है। इतना ही नहीं बल्कि आम चुनावों के बाद होने वाले इस प्रकार के उपचुनावों पर निर्वाचित सरकार तथा सत्तारूढ़ पार्टी का भी स्वाभाविक रूप से प्रभाव पड़ता है। जिसके चलते ऐसे उपचुनाव को पूरी तरह से निष्पक्ष भी नहीं कहा जा सकता।
इतना ही नहीं बल्कि राजनेताओं के हितों के मद्देनज़र और भी अनेक ऐसी व्यवस्थाएं हैं जो जनप्रतिनिधित्व पर आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था का मज़ाक़ उड़ाती है। उदाहरण के तौर पर यदि कोई व्यक्ति लोकसभा का चुनाव हार जाता है तो उसे राज्यसभा का सदस्य बनाकर पिछले दरवाज़े उसे संसद में प्रवेश करा दिया जाता है। इसी प्रकार विधानसभा में पराजित होने वाले सदस्य को विधान परिषद वाले राज्यों में विधान परिषद का सदस्य बनाया जा सकता है। पराजित नेता को राज्यपाल अथवा राजदूत भी बनाया जा सकता है। हमारे संविधान में तो नेताओं को इतनी सहूलियतें दी गई हैं अथवा संविधान की रचना के समय उन्होंने इतनी सुविधाएं स्वयं ले ली हैं कि कोई भी व्यक्ति बिना किसी चुनावी जीत-हार के भी किसी सदन का मनोनीत सदस्य यहां तक कि मंत्री, मुख्यमंत्री अथवा प्रधानमंत्री भी कुछ निर्धारित समय के लिए बन सकता है। आ$िखर राजनेताओं पर इतनी मेहरबानी दिखाने वाले $कानून व ऐसे निर्वाचन अधिनियम की ज़रूरत क्या है? इस प्रकार के नियम व $कानून जहां जनता के साथ एक बड़ा धोखा मालूम पड़ते हैं वहीं नेताओं के दोनों हाथों में लड्डु दिखाई देने वाले $कानून भी प्रतीत होते हैं।
अब ज़रा ठीक इसके विपरीत संघ लोक सेवा आयोग की होने वाली उन परीक्षाओं के तौर-तरी$कों पर नज़र डालिए जिनके माध्यम से देश के होनहार बच्च्ेा भारतीय राजकीय सेवाओं में सर्वोच्च पदों पर चुनकर देश की सेवा करते हैं। यूपीएससी की परीक्षा में तीन प्रमुख दौर से होकर परीक्षार्थी को गुज़रना होता है। पहली प्रारंभिक परीक्षा, दूसरी मुख्य लिखित परीक्षा तथा तीसरा साक्षात्कार। इन तीनों ही परीक्षा वर्ग में यदि कोई छात्र असफल हो जाता है तो उसे अगले वर्ष की परीक्षा में पुन:नए सिरे से प्रारंभिक परीक्षा देनी होती है। और यदि अपने निर्धारित प्रयास पूरे करने के बाद वह छात्र किसी एक सत्र में तीनों परीक्षाएं लगातार उत्तीर्ण नहीं कर पाता तो बावजूद इसके कि वह छात्र अपने-आप में पूरी प्रशासनिक सूझबूझ,योग्यता व क्षमता हासिल कर चुका होता है। परंतु तकनीकी दृष्टि से तीनों परीक्षाओं में पास न होने के कारण वह कहीं का भी नहीं रह पाता। जबकि नेता चाहे अनपढ़ हो या पढ़ा-लिखा निर्वाचन अधिनियम के अनुसार उसके लिए शिक्षा, आयु तथा योग्यता आदि कहीं भी आड़े नहीं आती। और वह जब चाहे किसी सदन का सदस्य,मंत्री,मुख्यमंत्री,प्रधानमंत्री,राज्यपाल तथा और भी बहुत से ऐसे पदों पर सुशोभित हो सकता है। इस जनप्रतिनिधित्व करने वाली लोकतांत्रिक व्यवस्था को कहां तक उचित ठहराया जा सकता है?
हमारे देश में प्राय: इस बात को लेकर भी चर्चा होती रहती है चूंकि लोकसभा व विधानसभा जैसे सदनों में $कानून बनाए जाते हैं। इसके माध्यम से नई-नई नीतियां लागू की जाती हैं। राष्ट्रहित पर बहस व चर्चा होती है। इसलिए ऐसे सदन में चुनकर आने वाले जनप्रतिनिधियों का शिक्षित होना बेहद ज़रूरी है। इस बात को शिक्षित राजनेता व नौकरशाह भी भलीभांति समझते हैं। परंतु चूंकि देश में बहुमत अशिक्षित मतदाताओं का है इसलिए मात्र अनपढ़ वोट बैंक के विरोध के भयस्वरूप यह राजनेता सार्वजनिक रूप से ऐसी बातें कहने से गुरेज़ करते हैं। जिसका नतीजा संसद को भुगतना पड़ता है। अशिक्षित,अपराधी,बाहुबली,गैगस्टर,गुंडे तथा मवाली $िकस्म के लोग भी देश के किसी न किसी सदन में निर्वाचित होकर प्रवेश करते दिखाई दे जाते हैं। लिहाज़ा ज़रूरत इस बात की भी है कि निर्वाचन आयोग न केवल अपराधी व दा$गी लोगों के विषय में अपने नियमों में व्यापक परिवर्तन करे बल्कि अशिक्षित व्यक्ति के चुनाव लडऩे को भी प्रतिबंधित किया जाए। चुनाव लडऩे हेतु अनिवार्य शैक्षिक योग्यता की भी एक सीमा निर्धारित की जाए। अक्सर ऐसा देखा गया है कि जब सांसदों से पत्रकार भारत-अमेरिका परमाणु समझौता, ए$फडीआई, विदेशी पूंजीनिवेश जैसे मुद्दों पर तकनीकी दृष्टिकोण से कुछ सवाल पूछते हैं तो वे ब$गलें झांकने लगते हैं। इसका एकमात्र कारण उनमें संबंधित विषय पर ज्ञान की कमी होती है। और मीडिया में इस तरह की बातों का उजागर होना निश्चित रूप से सदन व देश के लिए अपमानजनक होता है।
चुनाव अधिनियम की धारा 70 का विरोध करते हुए तो एक जनहित याचिका भी सर्वोच्च न्यायालय में दायर की गई है। जिसपर संज्ञान लेते हुए सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश पी सदाशिवम की अध्यक्षता वाली एक बेंच ने चुनाव आयोग व केंद्र सरकार से जवाब भी मांगा है। जनहित याचिका में जनप्रतिधि अधिनियम की धारा 70 को रद्द करने की मांग की गई है तथा इसे $गैर$कानूनी कऱार दिए जाने का निवेदन किया गया है। वर्तमान समय में हो रहे चुनावों में एक बार फिर जहां नरेंद्र मोदी,राहुल गांधी तथा मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं के दो निर्वाचन क्षेत्रों से चुनाव लडऩे की चर्चा ज़ोरों पर है वहीं पूर्व में भी श्रीमती इंदिरा गांधी 1980 में उत्तर प्रदेश के रायबरेली व आंध्र प्रदेश के मेंडक संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ चुकी हैं। जबकि 1999 में सोनिया गांधी कर्नाटक के बेल्लारी व उत्तर प्रदेश के अमेठी संसदीय क्षेत्रों से एक साथ चुनाव लड़ीं। इसी प्रकार 2004 में लालू यादव छपरा व मधेपुरा क्षेत्रों से एक साथ चुनाव लड़े। 2009 में अखिलेश यादव फिरोज़ाबाद व क़न्नौज सीटों से एक साथ चुनाव लड़े। विधानसभा स्तर पर भी देश में कई नेता कई बार इसी प्रकार दो-दो सीटों से चुनाव लड़ते रहे हैं। परिणामस्वरूप दो-दो सीटों से जीतने अथवा किसी एक से जीतने जैसी दोनों ही स्थितियों में एक निर्वाचन क्षेत्र में निर्वाचन आयोग को पुन: चुनाव कराना पड़ता है। देश की जनता की $खून-पसीने की कमाई को इस प्रकार अपने निजी स्वार्थों हेतु बर्बाद करने का किसी भी दल के किसी भी नेता को कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। वास्तविक जनतंत्र का अर्थ यही है कि यदि मतदाताओं ने किसी व्यक्ति को निर्वाचित किया है वही सदन का प्रतिनिधित्व का अधिकारी है। जुगाड़ व तिकड़मबाज़ी अथवा पिछले दरवाज़े से संसदीय व्यवस्था का हिस्सा बनना $कतई मुनासिब नहीं है।
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**निर्मल रानी
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं. Nirmal Rani (Writer ) 1622/11 Mahavir Nagar Ambala City 134002 Haryana phone-09729229728 *Disclaimer : The views expressed by the author in this feature are entirely her own and do not necessarily reflect the views of INVC.