महाभारत काल में कान्हा रस्सी से बांधे गए हैं। बच्चों को घरों में बांध कर रखने, उन्हें मारने-पीटने की घटनाएं आज भी जारी है। एकल परिवारों में बच्चों की स्वछंदता समाप्त हो चुकी है। उनसे हर क्षेत्र में अव्वल होने अपेक्षा बढ़ गई है। थोड़ी-थोड़ी बात पर मानसिक व शारीरिक प्रताड़ना घर-घर की बात हो चुकी है।
{ संजय स्वदेश } शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने के बाद यहे बेहद जरूरी है कि बच्चों को हिंसा से संरक्षण का भी मौलिक अधिकार मिले। इसके अभाव में भोले मन वाला बचपन घर और स्कूल में मानसिक व शारीरिक रूप से पीड़ित है। देश दुनिया का कौन सा ऐसा देश है जहां बच्चों पर नियंत्रण के लिए हिंसा का उपयोग नहीं किया गया है। भारत के पौराणिक कथाओं में तो इसके उदाहरण है। भगवान श्रीकृष्ण अपनी नटखट कारनामों से माता यशोदा को इतना तंग करते हैं कि मां कभी कान्हा को रस्सियों से बांध देती हैं, तो कभी ओखली में बांध कर अनुशासित करने का प्रयास करती है। बच्चों को घरों में बांध कर रखने, उन्हें मारने-पीटने की घटनाएं आज भी जारी है। पर चंचल बाल मन की शरारत भला कहां छुटती है। बच्चों की सहज पृवृत्तियां जब माता-पिता या शिक्षक के लिए भारी लगने लगती है तो उनका धैर्य टूट जाता है। वे बच्चों की बाल मनोवृत्ति समझने के इतर उस पर नियंत्रण के लिए हिंसा का रुख अख्तियार कर लेते हैं। जैसे-जैसे समाज विकसित हुआ, एकल परिवार बढ़े। बच्चे एकल परिवार में ही सीमित रहने लगे। उनकी स्वछंदता समाप्त हो गई है। माता-पिता की अपेक्षाओं ने सब कुछ कठोर अनुशासन में बांध दिया है। हर क्षेत्र में बच्चों से परिणाम अव्वल होने अपेक्षा बढ़ गई है। अपेक्षाओं के विपरित होने पर बच्चों के साथ हिंसा आम हो चुकी है। मतलब घर-घर में कान्हा के कान मरोड़ जा रहे हैं। वे पीटे जा रहे हैं। आधुनिक भारत के स्कूलों में अनुशासन का पाठ मार से ही शुरू होती थी।हालांकि जागरूकता बढ़ने के बाद भी हाल के वर्षों में स्कूल में बच्चों को पिटने की घटनाएं कम हुई हैं, लेकिन इससे प्रकरण थाने तक पहुंचने लगे हैं। लिहाजा, शिक्षकों में दंड का भय बढ़ा है। पहले ये मामले थाने तक पहुंचते ही नहीं थे। बच्चों को पीटना शिक्षकों का अघोषित अधिकार था। पीटे जाने के बाद भी बच्चे माता-पिता से इसकी शिकायत नहीं करते थे। उल्टे उनके मन में इस बात का भय होता था कि कहीं शिकायत पर घर में फिर पिटाई न हो जाए। घर की चाहरदिवारी में अपनों से हिंसा के शिकार होने वाले मामले विशेष स्थितियों में ही थाने तक पहुंचते हैं। घर के अपने बच्चों को पिटते हैं तो यह अनुशासन की सीख होती है, और स्कूल में शिक्षक यही कदम उठाता है तो यह अपराध होने लगा है। पर घर हो या स्कूल, बच्चों पर कहीं भी हिंसा है तो अपराध ही। इसी हिंसा को रोकने के लिए सरकार कड़े कानूनों का नया खाका तैयार कर रही है। यह निश्चय ही सराहनीय और स्वागत योग्य कदम है। सरकार जुवेनाइल जस्टिस एक्ट 2000 की जगह नए कानून पर काम कर रही है। पुराने कानूनों के स्थान पर सरकार जुवेनाइल जस्टिस (केयर ऐंड प्रोटेक्शन आॅफ चिल्ड्रन) बिल 2014 पेश करने की तैयारी है। नए कानूनों को सरकार ने बच्चों के अधिकारों और अंतरराष्टÑीय कानूनों को ध्यान में रखकर तैयार किया है। माता-पिता या अभिभावकों या शिक्षकों को अब बच्चों को पीटना या उनकी गलतियों के लिए कोई सजा देना या किसी तरह से प्रताड़ित करना भारी पड़ेगा। बच्चों के खिलाफ ऐसा व्यवहार करने पर आने वाले सालों में पांच साल तक के लिए जेल की सजा हो सकती है।
करीब दो वर्ष पहले आई यूनिसेफ के एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के तमाम विकासशील देशों में बच्चों को अनुशासित करने के लिए हिंसा का सहारा लिया जाता है। ऐसा उनके अपने ही घरों में होता है। यह हिंसा शारीरिक, मानसिक या भावनात्मक किसी भी तरह की हो सकती है। दुनिया भर में 2 से 14 साल के आयुवर्ग के हर चार में तीन बच्चों को अनुशासित करने के लिए किसी न किसी तरह की हिंसा का सहारा लिया जाता है। इसी तरह हर चार में तीन बच्चे मनोवैज्ञानिक हिंसा या आक्रामकता के शिकार होते हैं, जबकि हर चार में से दो बच्चों को अनुशासन का पाठ पढ़ाने के लिए शारीरिक सजा दी जाती है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि दुनिया के 33 देशों के निम्न व मध्यम आय वर्ग वाले परिवारों में 2 से 14 साल की आयुवर्ग के बच्चों पर ऐसी हिंसा हुई, जिसमें उनके माता-पिता या अभिभावक शामिल थे। भारत में यही हालात है। यहां घर से लेकर स्कूल तक बच्चे हिंसा से पीड़ित हैं।
भारत के शिक्षा दर्शन में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले चिंतक महर्षि अरविंद अपने एक लेख में कहते हैं कि शिक्षक राष्टÑ निर्माण के वे माली हैं जो अपनी मेहनत से इसकी नींव को सींचते हैं। दुर्भाग्य देखिए, आज 21वीं सदी में न ऐसे मेहनत व धैर्य वाले शिक्षक हैं और न गुरुकुल जैसी शिक्षा परंपरा। सब कुछ बदला-बदला। अंतराष्टÑीय स्तर के स्कूल और शिक्षा पद्धति। इसके बाद भी राष्टÑीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के आंकड़ों के अनुसार हाल के वर्षों में बच्चों के साथ स्कूलों में होने वाले दुर्व्यवहार, यौन शोषण, शारीरिक प्रताड़ना के मामलों में तीन गुना बढ़ोतरी हुई है।
करीब सात साल पहले 2007 में केंद्रीय महिला व बाल विकास मंत्रालय ने अपने एक सर्वेक्षण रिपोर्ट में बताया था कि स्कूल जाने वाला हर दूसरा बच्चा किसी ने किसी तरह से शारीरिक या मानसिक हिंसा का शिकार हो रहा है। करीब दो दशक पहले बच्चों को स्कूल छोड़ने का सबसे बड़ा कारण शिक्षकों द्वारा पीटे जाने का भय होता था। जब स्कूल से बाहर रहने वाले बच्चों केआंकड़ें बढ़े तो सरकार ने मिड डे मिल के माध्यम से भीड़ बढ़ा दी। सरकारी स्कूलों में शिक्षकों को नई पीढ़ी आ चुकी है, उसने पुराने शिक्षकों की तरह मारपीट कर पढ़ाना छोड़ पढ़ाने से ही मुंह मोड़ लिया है। इसके बाद भी आए दिन किसी स्कूल में बच्चों के पीटे जाने की घटनाएं आ ही जाती है। ऐसी घटनाएं अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों से आती हैं। ऐसे मामलों में प्रकरण भी वहीं दर्ज हुए हैं। जब मारपीट से बच्चे की हालत ज्यादा खराब हुई और अभिभावकों ने इसकी सुध ली। निजी स्कूलों में बेहतर शिक्षा के लिए मोटी फीस देकर बच्चों को पढ़ाने वाले अभिभावक सचेत हैं। लिहाजा, निजी स्कूलों में काफी हद तक शारीरिक हिंसा की घटनाएं कम हुर्इं है। लेकिन सरकारी स्कूलों में हालत सरकार भरोसे ही है।
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संजय स्वदेश
वरिष्ट पत्रकार हैं और दैनिक अखबार हरी भूमि में कार्यरत हैं !
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