{ निर्मल रानी } भारत दुनिया का सबसे विशाल लोकतांत्रिक गणराज्य है। यहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पूरा सम्मान किया जाता है। परंतु बड़े दु:ख का विषय है कि लोकतंत्रिक व्यवस्था तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता इन दोनों को मिलाकर देश की जो स्थिति दिखाई देनी चाहिए तथा जिस प्रकार की संसदीय व्यवसथा व शासन नज़र आना चाहिए वैसा संभव नहीं हो पाता। आम लोगों से तो कानून व्यवस्था का निर्धारण करने वाला तंत्र यह उम्मीद रखता है कि कोई साधारण व्यक्ति कानून का उल्लंघन न करे। समाज को तोडऩे की कोशिश न करे। एक-दूसरे के विरुद्ध अभद्र भाषा का प्रयोग न करे। समाज को किसी भी स्तर पर विभाजित करने की कोशिश न करे। एक-दूसरे की भावनाओं को आहत करने का प्रयास न करे। किसी के धर्म,उसके ईश अथवा उसके धर्मगं्थ का अपमान न करे। किसी जाति,समुदाय अथवा धर्म विशेष को बुरा-भला न कहे अथवा अपमानित न करे। हिंसा करने अथवा हिंसा फैलाने की साजि़श में शामिल न हो आदि। यदि समाज का कोई साधारण व्यक्ति उपरोक्त अथवा इन जैसी अन्य सीमाओं अथवा कायदे-कानूनों का उल्लंघन करता दिखाई देता तो उसके विरुद्ध भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत आरोप निर्धारित किए जाते हैं। परंतु बड़े अफसोस की बात है कि जब संसद अथवा विधानसभा के जनप्रतिनिधि अपने राजनैतिक लाभ के लिए कानून की परवाह किए बिना अपने मुंह से ज़हरीले बाण छोडक़र समाज को बांटने,हिंसा भडक़ाने,किसी दूसरे धर्म व समुदाय को अपमानित करने या नीचा दिखाने जैसी निम्रस्तरीय हरकतें करते हैं फिर आिखर इसकी अनदेखी क्यों की जाती है? क्या महज़ इसलिए कि ऐसी सांप्रदायिक विचारधारा रखने वाले समाज विभाजक तत्व अपने ज़हरीले बाणों के द्वारा समाज को बांटकर किसी दल विशेष को मतों के ध्रुवीकरण के कारण राजनैतिक लाभ पहुंचाते हैं इसलिए?
हमारे देश के अधिकांश वास्तविक शुभचिंतकों को विशेषकर उदारवादी वर्ग के लोगों का मानना है कि देश हित को तथा राष्ट्रीय भावनाओं को हमेशा धर्म से ऊपर रखा जाना चाहिए। यदि देश सुरक्षित है,एकजुट है तथा इसके परिणामस्वरूप देश आगे बढ़़ रहा है तो धर्म अपने-आप सुरक्षित रहेगा। परंतु हमारे देश में स्वयं को राष्ट्र के हितैषी बताने वाले, कानून का निर्माता बनने वाले तथा संसदीय व्यवस्था के माध्यम से जनप्रतिनिधि चुनकर आने वाले कई गैरजि़म्मेदार तत्व ऐसे हैं जो महज़ अपनी जीत को सुनिश्चित करने के लिए तथा बहुसंख्य समाज के मतों को नियंत्रित करने के लिए समय-समय पर गैरजि़म्मेदाराना तथा धर्म व संप्रदाय के आधार पर समाज को विभाजित करने वाले बयान देते रहते हैं। इससे देश में तनाव पैदा होता है। ऐसे कटुवचन न केवल दूसरे समुदाय में असुरक्षा की भावना को जन्म देते हैं बल्कि ऐसी बातों से हिंसा भडक़ने की संभावना भी बढ़ जाती है। इस प्रकार के गैरजि़म्मेदाराना बयान देने वालों के पास अपने घटिया व समाज को विभाजित करने वाले बयानों के पक्ष में कोई प्रमाण भी नहीं होता। परंतु वह अपनी सांप्रदायिक व कट्टरपंथी छवि के चलते लगातार ऐसी ही गैरकानूनी व गैरज़रूरी बातें देश में कहीं भी घूम-घूम कर करते रहते हैं। और चूंकि ऐसे लोग स्वयं देश की संसदीय व्यवस्था का अंग हैं,स्वयं कानून के निर्माता व तथाकथित रक्षक हैं, अपनी ऊंची पहुंच रखते हैं। शासन व प्रशासन से लेकर अदालतों तक इनके रुतबे कायम रहते हैं। लिहाज़ा इनके विरुद्ध कठोर कार्रवाई करना संभव नहीं हो पाता। वैसे भी समाज में ज़हर फैलाने वाली इस सर्परूपी बिरादरी में अनेक ‘जांबाज़’ लोग ऐसे भी हैं जो यह चाहते भी हैं कि उनके विरुद्ध पुलिस अथवा कानून की कार्रवाई हो और वे जेल भेजे जाएं। ऐसे लोग यह समझते हैं कि उनको गिरफ्तार करने से उनके प्रति सहानुभूति पैदा होगी तथा उनके जनसमर्थन में और इज़ाफा होगा और वे स्वयं को शहीद के रूप में पेश कर सकेंगे।
उदाहरण के तौर पर पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में लव जेहाद नामक हव्वा खड़ा करने की कोशिश की गई। इस नवगढि़त शब्द के द्वारा समुदाय विशेष पर निशाना साधने तथा उसे बदनाम करने की कोशिश की गई। जनजागरण रूपी अभियान चलाकर व्यापक पैमाने पर इसी मुद्दे को लेकर समाज में खूब मंथन किया गया। उस मुहिम के अगुवाकारों में दो नाम प्रमुख थे। एक महंत आदित्यनाथ योगी जो कि गोरखपुर से निर्वाचित लोकसभा सदस्य हैं तथा दूसरा साक्षी महाराज जोकि उत्तर प्रदेश के ही उन्नाव संसदीय क्षेत्र से चुने गए हैं। यदि यहां हम एक निर्वाचित जनप्रतिनिधि के संसदीय धर्म की बात करें तो भी उसे अपने पूरे क्षेत्र के सभी मतदाताओं के हितों तथा पूरे क्षेत्र के विकास के विषय में सोचना चाहिए। परंतु यदि यही सांसद निर्वाचित होने के बाद न केवल अपने संसदीय क्षेत्र बल्कि पूरे प्रदेश व देश में अपने पद का दुरुपयोग करते हुए समाज में सांप्रदायिकता फैलाने लग जाएं फिर आिखर यह कहां का संसदीय धर्म है? कैसी इंसानियत तो कैसा कानून का पालन? हालांकि यह दोनों भाजपा सांसद उत्तर प्रदेश में पिछले दिनों हुए विधानसभा चुनावों में मिली करारी शिकस्त के बाद अपने मुंह की खा चुके हैं। परंतु इसके बावजूद इनका ज़हर उगलना अब भी जारी है। साक्षी महाराज ने अपने कटु वचनों को एक बार फिर दोहराते हुए यह कहा है कि देश के मदरसों में आतंकवादी ट्रेनिंग दी जा रही है। उन्होंने यह भी दोहराया कि लव जेहाद का षड्यंत्र चल रहा है। इतना ही नहीं बल्कि उन्होंने बड़े ही गैरजि़म्मेदाराना तरीके से यह भी कहा कि देश के मुसलमान देश विरोधी गतिविधियां चला रहे हैं। साधू-संतों का चोला पहनने वाले इस भाजपाई सांसद ने यह भी कहा कि हम धर्म की सेवा के लिए सांसद बने हैं संसद की सेवा के लिए नहीं।
साक्षी महाराज के इस बयान पर बहुत गौर करने की ज़रूरत है। कोई निर्वाचित व्यक्ति क्या अपने धर्म की सेवा करने के उद्देश्य से सांसद चुना जाता है? भारतीय संसद क्या धार्मिक समागम का अखाड़ा है? क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमें इस हद तक छूट देती है कि हम अपनी आंख मंूद कर और मुंह फाड़ कर जो चाहें,जब चाहें और जहां चाहे चिल्लाते रहें? भले ही उसके परिणाम कुछ भी निकले? देश के प्रति ऐसे लोगों के लगाव के बारे में बड़ी आसानी से सोचा जा सकता है जो धर्म को राष्ट्र से भी ऊपर रखते हों, जहां तक उपरोक्त दो सांसदों साक्षी जी तथा योगी आदित्यनाथ का प्रश्र है तो यह तो वैसे भी साधू समाज का भी प्रतिनिधित्व करते हैं। वह साधू समाज जिसे नानक,कबीर,साईं बाबा, चिश्ती तथा रामानंदाचार्य जैसे महान साधू-संतों की परंपराओं से जोडक़र देखा जाता है? कहा जाता है कि वास्तविक संत प्रत्येक व्यक्ति के प्रति सद्भावना रखते हैं। हर एक से सद्वचन बोलता है। मानव जाति से प्रेम-सद्भाव का संचार करता है। कटुवचन तथा हिंसा से दूर रहता है तथा दूसरों को भी दूर रहने की सलाह देता है। समाज को व देश को जोडऩे तथा एकजुट रहने की सीख देता है। परंतु हमारे देश के यह तथाकथित संत और देश की प्रतिष्ठित गद्दियों पर बैठने वाले ‘योगी और महाराज’ आिखर इस देश में घूम-घूम कर कौन सी फ़सल बो रहे हैं? बहुसंख्य मतों को अपने पक्ष में करने की खातिर तथा सत्ता में बने रहने की लालच के चलते इन्हें राष्ट्रहित से बड़ा धर्महित नज़र आने लगा है? परंतु यह धर्मांध जनप्रतिनिधि क्या यह नहीं जानते कि धर्म तभी बचेगा जब देश बचेगा? यदि इनकी ज़हरीली व नफरत फैलाने वाली बातों का राष्ट्रीय स्तर पर संचार हो गया और देश इनकी वजह से हिंसा की चपेट में आ गया, चारों ओर सांप्रदायिक हिंसा का तांडव नज़र आने लगे,बेगुनाहों की लाशें सडक़ों पर जलती दिखाई देने लगें, गरीबों की बस्तियां अग्रि की भेंट चढऩे लगीं,देश की बहन-बेटियां दरिंदगी का शिकार होने लगीं तो क्या वे इसी में अपनी सफलता समझेंगे? क्या यही एक निर्वाचित सांसद अथवा धर्मगुुरू या किसी गद्दीनशीन का धर्म है? ऐसे लोगों की बातें सुनकर तथा साथ ही यह सुनकर कि यह एक संत के बोल हैं बड़ा ही आश्चर्य होता है तथा स्वाभाविक रूप से शिरडी के साईं बाबा,गुरु नानक देव, संत रामानंदाचार्य,निज़ामुद्दीन औलिया व मोईनुदीन चिश्ती जैसे संतों की याद आती है जो अपनी संगत में बैठने वाले किसी भी व्यक्ति के धर्म व जाति से न तो कोई सरोकार रखते थे न ही इसके विषय में कुछ पूछना या जानना पसंद करते थे। ऐसे सच्चे संत केवल मानवजाति से ही नहीं बल्कि समस्त प्राणियों से समान रूप से प्रेम व सद्भाव के साथ पेश आते थे। परंतु अफसोस की बात है कि उन्हीं सतों द्वारा चलाई गई परंपरा का निर्वहन करने वाले कलयुग के यह तथाकथित संत सत्ता की लालच में इस कद्र संकीर्ण व अंधे हो गए हैं कि उन्हें न तो मानवता की िफक्र है न ही देश कीे एकता और अखंडता की। अपने अनुयाईयों को उपदेश देने वाले यह समाज विभाजक संत क्या इतना नहीं समझ पाते कि धर्म तभी बचेगा जब देश बचेगा और जब देश ही नहीं बचेगा तो धर्म को कौन बचाएगा?
निर्मल रानी
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं.
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