– अरुण तिवारी –
सच है कि अधिक से अधिक धन, अधिक से अधिक भौतिक सुविधा, अधिक से अधिक यश व प्रचार हासिल करना आज अधिकांश लोगों की हसरत का हिस्सा बनता जा रहा है। यहीं यह भी सच है कि ऐसी हसरतों की पूर्ति के लिए हमने जो रफ्तार और जीवन शैली अख्तियार कर ली है, उसका दबाव न सिर्फ ज़िंदगी को ज़िंदादिली और आनंद से महरूम कर रहा है, बल्कि इस कारण ज़िंदगी में नैतिकता, संकोच, परमार्थ और अपनेपन की जगह निरंतर सिकुड़ती जा रही है।
मां-बाप, बच्चों के लिए जीते दिखते हैं, लेकिन बच्चों द्वारा मां-बाप के लिए जीने के उदाहरण कम होते जा रहे हैं। इस हक़ीक़त के बावजूद, वह नौजवान अपनी मां को डाॅक्टर को दिखाने के लिए मोहल्ला क्लिनिक के बाहर कड़ी धूप में तीन घंटे तक पूरे धीरज के साथ प्रतीक्षा करता रहा। मेरे लिए यह सुखद एहसास था। इससे भी सुखद एहसास वह सुनकर हुआ, जो उस दिन उस नौजवान के साथ घटित हुआ।
मां को शीघ्र लौटने का आश्वासन देकर वह एक मीटिंग के लिए कनाॅट प्लेस के लिए भागा। समय हाथ से निकला जा रहा था। वह बार-बार घड़ी देखता और स्कूटी की रफ्तार बढ़ा देता।
”राजीव चैक मेट्रो स्टेशन गेट नंबर सात के सामने, ए 1, ग्राउंड फ्लोर, हैमिलटन हाउस; हां, यही है।”
स्टारबक्स काॅफी शाॅप से थोड़ा आगे स्कूटी खड़ी की। हांफते-ढांपते किसी तरह काॅफी शाॅप में प्रवेश किया। मीटिंग भी ज़रूरी थी और मां के पास वापस जल्दी लौटना भी। किसी तरह मीटिंग पूरी की। बाहर आया, तो स्कूटी गायब। नौजवान के तो जैसे होश उड़ गये। मुख्यमंत्री होने के बावजूद, केजरीवाल जी की कार गायब हो गई, तो मेरी कौन बिसात ? अब स्कूटी मिलेगी तो क्या, बीमा कंपनी वालों के चक्कर और काटने पडे़ेंगे। लंबे समय की बचत के बाद डेढ़ महीने पहले तो स्कूटी नसीब हुई थी। अब क्या होगा ? घरवाले क्या कहेंगे ? पापा ने अपना एकांउट खाली करके स्कूटी दिलाई थी। उन पर क्या बीतेगी ? मन में सवाल ही सवाल, निराशा ही निराशा।
दोनो हाथों से सिर पकड़कर एक पल के लिए वह वहीं फुटपाथ पर बैठ गया। भावनायें काबू में आई तो चल पड़ा कनाॅट प्लेस थाने की ओर गुमशुदगी की रपट लिखाने।
रिपोर्ट कहां दर्ज होगी ? जिस ओर इशारा मिला, उधर बढ़ गया। उसे आया देख, मेज पर दफ्तर सजाये ड्युटी अफसर ने नजरें ऊपर उठाई। नौजवान मन में निराशा भी थी और गुस्सा भी। धारणा पहले से मन में थी ही – ”सब पुलिसवालों की मिलीभगत से होता है।” ”पुलिस वाले रपट दर्ज करने में भी बड़े नखरे दिखाते हैं।” खडे़-खडे एक सांस में पूरा किस्सा कह डाला। कहते-कहते सांस उखड़ गई।
ड़ूयटी अफसर ने बैठने का इशारा किया; कहा – ”लो, पहले पानी पिओ, फिर रपट भी दर्ज हो जायेगी।” धारणा के विपरीत व्यवहार पाकर नौजवान थोड़ा आश्वस्त हुआ।
ड्युटी अफसर ने समझाया – ”देखो बेटा, हमारे इस इलाके में गाड़िया चोरी नहीं होती हैं। तुम एक काम करो। मौके पर वापस जाकर आसपास वालों से पूछताछ कर लो।”
नौजवान परेशान तो था ही, अब उसके हैरान होने की बारी थी। आज जब न चोरी करने वालों को किसी का भय है, न बलात्कार-हत्या करने वालों का। अपराधी पुलिस वालों को ही मारकर चल देते हैं। ऐसे में किसी पुलिस अधिकारी का यह दावा, यह आत्मविश्वास किसी के लिए भी हैरान करने वाला होता।
खैर, नौजवान को हैरान देख ड्युटी अफसर ने फिर दोहराया – ”थोड़ी देर ढूंढ लो। यदि फिर भी न मिले, तो आ जाना। वह क्या है न बेटा कि यदि एक बार रिपोर्ट दर्ज हो गई और इस बीच तुम्हारी स्कूटी मिल गई, तो भी कार्यवाही आदि में लगने वाले समय के चलते तुम्हारी स्कूटी कम से कम एक महीने के लिए हमारे थाने में अटक जायेगी।”
ड्युटी अफसर के व्यवहार ने नौजवान को मज़बूर किया कि बेमन से ही सही, वापस जाये और पूछताछ करे। मौके पर पहुंचकर अगल-बगल दो-चार से पूछा तो किसी को कुछ जानकारी न थी। किंतु ड्युटी अफसर का आत्मविश्वास यादकर उसने पड़ताल जारी रखी। पटरी वालों से पूछना शुरु किया। एक आंटी ने आगे जाने का इशारा किया।
”आगे एक मोबाइल वाला बैठता है। उसके पास जाओ। वहां कुछ पता लगेगा।”
वह मोबाइल वाले केे पास पहुंचा। मोबाइल वाले को जैसे उस नौजवान की ही प्रतीक्षा थी। देखते ही कुछ सवाल दागे। आश्वस्त होने पर एक ओर किनारे सुरक्षित खड़ी उसकी स्कूटी की ओर इशारा किया और चाबी उसकी ओर बढ़ा दी। नौजवान के लिए यह कलियुग में सतयुग जैसा एहसास होने था।
”आजकल ऐसा भी कहीं होता है ?” – यह सोचकर उसकी आंखें सजल हो उठी। वह आगे बढ़कर दुकानदार के गले से लिपट गया।
”अंकल, आज आपने मुझे बचा लिया।” शेष शब्द गले में अटक गये।
दुकानदार ने पीठ थपथपाकर उसे संयत किया; बोला – ”कोई बात नहीं बेटा। होता है, जिंदगी में कभी-कभी ऐसा भी होता है। आगे से ध्यान रखना। स्कूटी में चाबी लगाकर कभी मत छोड़ना… और हां, यह भी कि दुनिया में सब बुरे नहीं होते। हम अच्छे रहें। दुनिया एक दिन अपने आप अच्छी हो जायेगी।”
दुकानदार के इन चंद शब्दों ने नौजवान के दिलो-दिमाग में उथल-पुथल मचा दी। ”दुनिया में सब बुरे नहीं होते…….” दुकानदार के कहे शब्द उसके जैसे उसे बार-बार शोधित करने करे। मात्र एक घंटे पहले पूरी पुलिस व्यवस्था, लोग और ज़माने को दोषपूर्ण मान गुस्से और आक्रोश से भरा वह अब एकदम शांत और विचारवान व्यक्ति था।
उसने एहसास किया कि हम इंसानों की दुनिया में अभी भी कुछ खूबसूरती बाकी है। उसने स्कूटी उठाई और चल पड़ा थाने; ड्युटी अफसर का शुक्रिया अदा करने। उसके चेहरे की भाव-भंगिमा देख ड्युटी अफसर थोड़ा मुस्कराया; बोला – ”क्या करूं ? रिपोर्ट लिखूं ?”
नौजवान ने कहा – ”नहीं अंकल। मुझे अब एक प्लेन पेपर चाहिए। आपके व्यवहार और आत्मविश्वास की तारीफ और आपको धन्यवाद लिखना है। मुझे लिखना है कि भले ही कितना ही कलियुग हो; इंसानियत अभी ज़िदा है।”
ड्युटी अफसर का चेहरा खिल उठा। उसे भी एहसास हुआ कि सारी दुनिया कृतघ्न नहीं है। कृतज्ञता बोध अभी भी जिंदा है।
सचमुच, दुनिया ऐसी ही है। ज़रूरत है, तो ऐसे अच्छे बोध व एहसासों से प्रेरित होने तथा एहसास कराने वालों की पीठ थपथपाने की; ऐसे दीपों के प्रकाश से औरों को प्रकाशित करने की। ”अच्छा करो; अच्छे को प्रसारित करो।’’ दुनिया को खूबसूरत बनाने का यह एकमेव सूत्र वाक्य ही काफी है। है कि नहीं ?
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अरुण तिवारी
लेखक ,वरिष्ट पत्रकार व् सामजिक कार्यकर्ता
1989 में बतौर प्रशिक्षु पत्रकार दिल्ली प्रेस प्रकाशन में नौकरी के बाद चौथी दुनिया साप्ताहिक, दैनिक जागरण- दिल्ली, समय सूत्रधार पाक्षिक में क्रमशः उपसंपादक, वरिष्ठ उपसंपादक कार्य। जनसत्ता, दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, अमर उजाला, नई दुनिया, सहारा समय, चौथी दुनिया, समय सूत्रधार, कुरुक्षेत्र और माया के अतिरिक्त कई सामाजिक पत्रिकाओं में रिपोर्ट लेख, फीचर आदि प्रकाशित।
1986 से आकाशवाणी, दिल्ली के युववाणी कार्यक्रम से स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता की शुरुआत। नाटक कलाकार के रूप में मान्य। 1988 से 1995 तक आकाशवाणी के विदेश प्रसारण प्रभाग, विविध भारती एवं राष्ट्रीय प्रसारण सेवा से बतौर हिंदी उद्घोषक एवं प्रस्तोता जुड़ाव।
इस दौरान मनभावन, महफिल, इधर-उधर, विविधा, इस सप्ताह, भारतवाणी, भारत दर्शन तथा कई अन्य महत्वपूर्ण ओ बी व फीचर कार्यक्रमों की प्रस्तुति। श्रोता अनुसंधान एकांश हेतु रिकार्डिंग पर आधारित सर्वेक्षण। कालांतर में राष्ट्रीय वार्ता, सामयिकी, उद्योग पत्रिका के अलावा निजी निर्माता द्वारा निर्मित अग्निलहरी जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रमों के जरिए समय-समय पर आकाशवाणी से जुड़ाव।
1991 से 1992 दूरदर्शन, दिल्ली के समाचार प्रसारण प्रभाग में अस्थायी तौर संपादकीय सहायक कार्य। कई महत्वपूर्ण वृतचित्रों हेतु शोध एवं आलेख। 1993 से निजी निर्माताओं व चैनलों हेतु 500 से अधिक कार्यक्रमों में निर्माण/ निर्देशन/ शोध/ आलेख/ संवाद/ रिपोर्टिंग अथवा स्वर। परशेप्शन, यूथ पल्स, एचिवर्स, एक दुनी दो, जन गण मन, यह हुई न बात, स्वयंसिद्धा, परिवर्तन, एक कहानी पत्ता बोले तथा झूठा सच जैसे कई श्रृंखलाबद्ध कार्यक्रम।
साक्षरता, महिला सबलता, ग्रामीण विकास, पानी, पर्यावरण, बागवानी, आदिवासी संस्कृति एवं विकास विषय आधारित फिल्मों के अलावा कई राजनैतिक अभियानों हेतु सघन लेखन। 1998 से मीडियामैन सर्विसेज नामक निजी प्रोडक्शन हाउस की स्थापना कर विविध कार्य।
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