– निर्मल रानी –
दो-तीन दशक पूर्व तक हमारे देश की अधिकांश आबादी अपनी रसोई के ईंधन के रूप में लकड़ी,लकड़ी के बुरादे,कोयला,मिटटी का तेल,स्टोव आदि का इस्तेमाल किया करती थी। उस समय निश्चित रूप से सुबह व शाम के समय आसमान पर काले धुंए की एक मोटी परत वातावरण में चारों ओर बिछी नज़र आती थी। चूल्हे के लिए लकड़ी की ज़रूरत को पूरा करने के लिए पेड़ों की बेतहाशा कटाई भी हुआ करती थी जिसके चलते पर्यावरण पर भारी प्रभाव पड़ता था। विश्व बिरादरी ने पर्यावरण को सुरक्षित रखने तथा पेड़ों व जंगलों की कटाई को रोकने अथवा कम करने के मक़सद से आम जनमानस को एलपीजी के प्रयोग हेतु प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से उपभोक्ताओं को गैस सिलेंडर की $खरीद में सब्सिडी दिए जाने की व्यवस्था की। भारतवर्ष भी चूंकि विश्व की एक बड़ी जनसंख्या वाला देश है लिहाज़ा यहां भी सरकार को इस समय गैस सब्सिडी के खाते में लगभग 40 हज़ार करोड़ रुपये का बोझ सहन करना पड़ रहा है। आज देश की अधिकांश जनसंख्या गैस के चूल्हों का प्रयोग करने लगी है तथा गैस के इस्तेमाल की आदी हो चुकी है। इसके परिणामस्वरूप निश्चित रूप से रसोई के कारण बढऩे वाले प्रदूषण पर भी नियंत्रण हुआ है। और जंगलों की कटाई में भी कमी आई है। परंतु अब जबकि देश के लोग सब्सिडी के मूल्य पर गैस सिलेंडर ख़रीदने के आदी हो चुके हैं और सिलेंडर के मूल्यों में होने वाली मामूली सी यानी 5-10 रूपये की बढ़ोत्तरी से ही व्याकुल हो उठते हैं ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा देश के लोगों से खासतौर पर समृद्ध व संपन्न लोगों से यह अपील की जा रही है कि वे गैस पर मिलने वाली सब्सिडी को त्याग दें।
पिछले दिनों इंडियन ऑयल कारपोरेशन की बरौनी रिफ़ाईनरी के 50 वर्ष पूरे होने के अवसर पर ओएनजीसी लिमिटेड की स्वर्ण जयंती पर नई दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित ‘उर्जा संगम 2015Ó कार्यक्रम में बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि जो लोग समृद्ध हैं तथा जिन्हें गैस पर सब्सिडी की ज़रूरत नहीं है वे स्वयं सबसिडी लेनी छोड़ दें और बाज़ार के मूल्यों पर गैस ख़रीदें। उन्होंने सब्सिडी छोड़ो अभियान की शुरुआत करते हुए इसका उपाय बताते हुए यह रास्ता भी दिखाया कि इसके लिए आप पैट्रोलियम कंपनी या गैस कंपनी की वेबसाईट पर जाकर सबसिडी छोड़ सकते हैं। प्रधानमंत्री की इस अपील से पहले भी भाजपा सरकार के सत्ता में आने के बाद केंद्रीय गैस मंत्रालय की ओर से उपभोक्ताओं को एसएमएस भेजकर भी गैस सब्सिडी छोड़े जाने की अपील जारी की जा चुकी है। गौरतलब है कि इस समय उपभोक्ता को एक वर्ष में सबसिडी मूल्य पर 12 सिलेंडर उपलब्ध कराए जा रहे हैं। इनका मूल्य दिल्ली में चार सौ सत्रह रूपये प्रति सिलेंडर है जबकि किसी उपभोक्ता को एक वर्ष में 12 से अधिक सिलेंडर ख़रीदने पर 610 रुपये का भुगतान बिना सब्सिडी का सिलेंडर लेने पर करना पड़ रहा है। यानी उपभोक्ता को 203 रुपये की सब्सिडी प्रत्येक सिलेंर पर सरकार द्वारा उपलब्ध कराई जा रही है। इस प्रकार एक गैस उपभोक्ता के लिए सरकार को एक वर्ष में 2436 रुपये की सब्सिडी का भुगतान करना पड़ रहा है। बताया जा रहा है कि अब तक लगभग दो लाख अस्सी हज़ार लोगों ने स्वेच्छा से सब्सिडी लेनी बंद कर दी है जिसके चलते सरकार को लगभग सौ करोड़ रुपये की बचत होने लगी है।
सबसिडी का बोझ निश्चित रूप से सरकार पर हरगिज़ नहीं पडऩा चाहिए। देश की जनता को प्रत्येक वस्तु उसका पूरा व उचित मूल्य देकर ही हासिल करनी चाहिए। चाहे वह रसोई गैस हो या किसानों को मिलने वाले बीज व खाद अथवा बैंक लोन। परंतु यहां प्रधानमंत्री तथा सब्सिडी छोड़ो अभियान के उनकी सरकार के पैरोकारों से एक सवाल यह तो ज़रूर पूछा जा सकता है कि सब्सिडी छोडऩे के नाम पर सरकारी $खज़ाने पर बोझ की चिंता जताने वाला यह शासक वर्ग क्या लोकसभा चुनाव से पहले इस बात का साहस कर सकता था कि वह अपने चुनावी भाषणों में भी यह कहता कि ‘आप हमें वोट दो हम सरकार आने के बाद तुम्हारी गैस सबसिडी समाप्त कर देंगे? हरगिज़ नहीं? बजाए इसके उस समय तो इसी भोली-भाली जनता को कुछ और ही सुहावने सपने दिखाए गए थे। जैसे हम सत्ता में आए तो काला धन देश में वापस आएगा और जब काला धन वापस आएगा तो प्रत्येक नागरिक के खाते में पंद्रह-पंद्रह लाख रुपये पड़ेेंगे। और सत्ता में आने के बाद तो किसानों के भूमि अधिग्रहण के लिए किसान विरोधी क़ानून बनाया जा रहा है तो कभी गैस सब्सिडी छोडऩे की अपील की जा रही है। पहले गुलाबी क्रांति अर्थात् मांस का निर्यात को लेकर पिछली यूपीए सरकार पर हमला बोला जा रहा था तो अपनी सरकार आने पर इसी गुलाबी क्रांति को बढ़ावा दिया जा रहा है। जनता को गुमराह करने और झूठ बोलकर सत्ता में आने का आख़िर यह कैसा तरीक़ा है? यानी चुनाव के अपने लच्छेदार भाषणों में जनता को सब्ज़ बाग़ दिखाए जाएं और सत्ता में आने के बाद उन्हें देश भक्ति का पाठ पढ़ाते हुए सरकारी ख़ज़ाने की कहानी सुनाई जाने लगे?
संपन्न लोगों को गैस सबसिडी छोड़ देनी चाहिए प्रधानमंत्री की यह अपील अवसरवादी ही क्यों न सही परंतु प्रासंगिक तो है ही। परंतु इस अपील के साथ और भी कई सवाल खड़े होते हैं? एक तो यह कि स्वयं को संपन्न और समृद्ध कौन समझे और कौन अपने को ज़रूरतमंद नहीं समझना चाहता? देश की संसद की कैंटीन को आख़िर सब्सिडी की ज़रूरत क्यों है? देश में आज वृद्धापेंशन के नाम पर अमीरों व ग़रीबों सभी को एक नज़र से देखते हुए एक जैसी वृद्धा पेंशन बांटी जा रही है आ$िखर न्याय का यह कैसा मापदंड है? इसी प्रकार अवकाश प्राप्त लोगों को चाहे वे जितने संपन्न व समृद्ध क्यों न हों उन्हें सराकरी पेंशन से नवाज़ा जा रहा है। इन सभी क्षेत्रों में भी संपन्नता व समृद्धि का ध्यान रखा जा सकता है। देश की संसद व विधानसभाएं अपने सदस्यों की तनख्वाहें आए दिन बढ़ाती रहती हैं। मंत्रियों,सांसदों तथा विधायकों को अपने ऊपर सरकारी पैसे ख़र्च करने के तमाम रास्ते उनके द्वारा स्वयं निर्धारित किए गए हैं। राज्यपालों व मुख्यमंत्रियों तथा प्रधानमंत्री के आवास व कार्यालय पर सैकड़ों करोड़ रुपये प्रति माह का फ़ुज़ूल ख़र्च अतिरिक्त स्टाफ़,सुरक्षा,खान-पान,मेहमान नवाज़ी,बिजली तथा टेलीफ़ोन के बिल के रूप में होता है? क्या इनमें कटौती कर सरकारी ख़ज़ाने पर पडऩे वाले बोझ को कम नहीं किया जा सकता? आज देश का अमीर व ग़रीब दोनों ही श्रेणी का किसान क़ानून के एक ही डंडे से हांका जाता है। यानी सभी के लिए इंकम टैक्स में पूरी छूट। सभी को खाद व बिजली की छूट व सब्सिडी का बराबर लाभ आख़िर क्यों? यहां भी संपन्न व समृद्ध किसान तथा ग़रीब किसान व उसे मिलने वाली सुविधाओं में भेद किए जाने की ज़रूरत है? ऐस तमाम पेंशनधारी देखे जा सकते हैं जो संपन्न होने के बावजूद पेंशन भी ग्रहण करते हैं तथा सरकार की इस नीति का मज़ाक़ भी उड़ाते हैं। आज देश में करोड़ों लोग भिखारी तथा साधू वस्त्रधारी बनकर प्रतिदिन बिना टिकट रेल यात्राएं करते हैं और देश को करोड़ों रुपये का नुक़सान पहुंचाते हैं उनको रोकने-टोकने वाला कोई नियम व क़ानून नहीं है?
इसी प्रकार उच्च पदों से लेकर क्लर्क अथवा सिपाही तक के पदों पर यह देखा जा सकता है कि तमाम लोग एक विभाग की सेवा पूरी करने के बाद या उस विभाग से स्वेच्छा से अवकाश ग्रहण करने के बाद किसी दूसरे विभाग में नौकरी कर लेते हैं। ऐसे में वे अपने पहले विभाग से भी फंड के पैसे हासिल कर लेते हैं और पेंशन भी लेते रहते हैं। जबकि दूसरे विभाग से भी पूरी तनख्वाह पाने लगते हैं। कई आईएएस,आईपीएस अथवा सैन्य अधिकारी सेवानिवृत होकर अथवा स्वैच्छिक सेवा निवृति लेकर राजनीति में आ जाते हैं और सांसद अथवा विधायक बन जाते हैं। ऐसे लोगों की भी पांचों उंगलियां घी में ही रहती हैं। यानी एक ओर भारी-भरकम पेंशन तो दूसरी ओर कथित समाज सेवा के इनाम के रूप में सांसद अथवा विधायक की तन$ख्वाह व अन्य ऐशो-आराम। ऐसे क्षेत्रों पर भी सरकार को नज़र दौड़ाने की ज़रूरत है। परंतु सरकार संभवत: उपरोक्त किसी में से किसी भी वर्ग को सरकार पर खज़ाने के बोझ के नाम पर छेडऩा नहीं चाहेगी क्योंकि सरकार के समक्ष सबसे आसान व सुगम निशाने पर देश की साधारण व मध्यम वर्गीय असंगठित जनता ही रहती है। जिसे सरकार जब चाहे,जैसे चाहे और जो चाहे अपनी सुविधा के अनुसार कह-सुन कर बहलाती व फुसलाती रहती है। सब्सिडी में की गई अपील भी ऐसा ही एक क़दम कहा जा सकता है।
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कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं !
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