– निर्मल रानी –
प्राचीन समय में मुहावरों तथा कहावतों की रचना निश्चित रूप से हमारे पुर्वजों द्वारा पूरे चिंतन-मंथन,शोध तथा अनुभवों के आधार पर की गई होगी। ऐसे ही शोधपरक मुहावरों व कहावतों में सास-बहू की लड़ाई तथा सौतेली मां का ज़ुल्म जैसी बातें भी शामिल हैं। कभी हमने यह नहीं सोचा कि ऐसी कहावत आख़्िार क्यों नहीं गढ़ी गई कि ससुर दामाद में पटरी नहीं खाती या सौतेला बाप अत्याचारी होता है? ज़ाहिर है हमारे बुज़ुर्गों ने इस विषय पर पूरा अध्ययन व शोध किया होगा तभी वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे। उपरोक्त कहावतों को चरितार्थ करने वाली ऐसी अनेक घटनाएं आए दिन होती रहती हैं जो इन कहावतों या मुहावरों को सही साबित करती हैं। ऐसी घटनाओं पर यदि हम बारीकी से नज़र डालें तो हम इस नतीजे पर पहुंच सकते हैं कि वास्तव में औरत का सबसे बड़ा दुश्मन मर्द नहीं बल्कि स्वयं औरत ही है।
उपरोक्त अकेला समाचार ही इस बात की दलील नहीं कि औरत मर्द से बड़ी औरत की दुश्मन है। यदि आप भारतीय समाज पर व्यापक दृष्टिडालें तो यही पाएंगे कि पुत्र मोह महिलाओं में पुरुष से भी अधिक पाया जाता है। अधिकांश ऐसे परिवार जहां एक दो या तीन लड़कियां पैदा हो जाएं और पुत्र की प्राप्ति न हो सके वहां पिता तो एक बार भले ही लड़कियों को भगवान की सौगात समझ कर स्वीकार क्यों न कर ले परंतु एक औरत की अंत तक यही चाहत होती है कि किसी तरह से उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति अवश्य हो। हमारे समाज में आपको अनेक ऐसे परिवार भी मिल सकते हैं जहां यदि किसी दंपति को ईश्वर ने एक ही बेटी दी और कुछ वर्षों तक पुत्र रत्न की प्रतीक्षा करने के बाद यदि उस परिवार में पुत्र नहीं पैदा हुआ या पुत्र के पैदा होने की संभावना जाती रही ऐसे में उस परिवार द्वारा अपनी सगी बेटी होने के बावजूद किसी दूसरे के लडक़े को गोद भी ले लिया गया। हमारा समाज इस विषय पर इतना दोहरा आचरण रखता है कि भारतीय महिलाएं ही नहीं बल्कि पुरुष भी नौ देवियों की पूजा करते दिखाई देते हैं। सावित्री,गर्गी,आहिल्या बाई,महारानी लक्ष्मी बाई,इंदिरा गांधी जैसी महिलाओं के िकस्से सुनाकर भारतीय महिलाओं का गुणगान तो ज़रूर किया जाता है परंतु अपने घर-परिवार की कन्या को न तो ऐसी आदर्श महिलाओं के रूप में देखा जाता है न ही उनपर इतना विश्वास किया जाता है कि भविष्य में मेरी बेटी भी उस स्तर की महिला बन सकेगी। इन सबके बजाए उसे सिर्फ एक अदद पुत्र की ही दरकार होती है।
इसी प्रकार सास-बहू के झगड़े की कहावत को सही साबित करने वाली तमाम घटनाएं सोशल मीडिया के इस दौर में वायरल होती रहती हैं। कई बार हम ऐसे वीडियो देख चुके हैं जिसमें बहू अपनी आपाहिज,विक्षिप्त या जर्जर शरीर रखने वाली किसी बूढ़ी सास को बुरी तरह पीट रही है। बड़े आश्चर्य की बात है कि वह इसका ख्याल ही नहीं कर पाती कि कुछ ही वर्षों बाद इसी दौर से स्वयं उसे भी गुज़रना है। दान-दहेज का भी सबसे बड़ा लोभ औरत को ही होता है। वही अपने बेटे के लिए अधिक से अधिक दहेज लाने वाली बहू की उम्मीद लगाती है। प्राय: ऐसी खबरें भी सुनने में आती रहती हैं कि कोई महिला अपनी नवजात बालिका को कभी रेलवे स्टेशन पर कभी किसी बस स्टाप पर या किसी गली-कूचे में किसी दरवाज़े पर छोडक़र चली गई। किसी नवजात पर इतना बड़ा ज़ुल्म करना उसे कुत्ते या सुअर के नोचने के लिए लावारिस छोड़ देना कहां की मानवता है? ऐसी कारगुज़ारी भी मर्दों द्वारा नहीं बल्कि महिलाओं द्वारा ही की जाती है। निश्चित रूप से पुरुष महिलाओं से अधिक आक्रामक,गुस्से वाला तथा बात-बात पर महिलाओं को आंखें दिखाने की प्रवृति रखने वाला होता है। परंतु देश के चारों ओर से आने वाले अनेक समाचार यह भी बताते हैं कि अपने परिवार के विरुद्ध साजि़श या षड्यंत्र रचने में औरत का कोई मुकाबला नहीं। देश में हज़ारों ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं जिसमें किसी नवविवाहिता महिला ने अपने प्रेमी से मिलकर अपने पति की हत्या करवा दी हो। ऐसी भी अनेक घटनाएं हो चुकी हैं कि किसी महिला ने अपने सौतेले बच्चों व बच्चियों पर इतने ज़ुल्म ढाए कि या तो बच्चों की मौत हो गई या वे घर छोडक़र भाग गए।
इसी विषय को यदि हम देश की राजनीति के संदर्भ में भी देखें तो यही पाएंगे कि देश की विभिन्न राजनैतिक पार्टियां महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने का ‘लॉलीपॉप’ दिखाती रहती हैं। सवाल यह है कि जब महिलाएं दुनिया की आधी आबादी हंै फिर उनके लिए केवल 33 प्रतिशत आरक्षण की बात क्यों करनी, 50 प्रतिशत आरक्षण की क्यों नहीं? दूसरी बात यह है कि देश के अधिकांश राजनैतिक दलों में महिलाओं की संख्या भी अच्छी-खासी है। परंतु कभी भी देश के सभी राजनैतिक दलों की सभी महिलाओं को महिला आरक्षण के मुद्दे पर एकजुट होकर देश की महिलाओं की संयुक्त आवाज़ बनते हुए नहीं देखा गया होगा। इसकी भी एकमात्र वजह यही है कि प्रत्येक राजनैतिक महिला महिलाओं के अधिकारों या कल्याण हेतु लड़ाई लडऩे के बजाए इस बात में अधिक दिलचस्पी रखती है कि उसका व्यक्तिगत राजनैतिक भविष्य कैसे और कितना सुरक्षित रह सकता है अत: उसे देश की महिलाओं के अधिकारों के लिए अपनी अलग राह अिख्तयार करने की ज़रूरत ही क्या है? और महिलाओं की इसी स्वार्थपूर्ण सोच तथा राजनैतिक रूप से उनके बिखराव का लाभ पुरुष समाज उठाता है। परिणामस्वरूप महिलाओं को महिला आरक्षण के संबंध में संसद से लेकर सडक़ों तक बहस,चर्चा व अनेक प्रकार की लोकलुभावन बातें तो ज़रूर सुनाई देती हैं परंतु महिला आरक्षण कहीं दूर-दूर तक कहीं नज़र नहीं आता।
ऐसे में यदि हम केवल पुरुष समाज पर इस बात का दोष मढ़ दें कि केवल पुरुष ही महिला विरोधी मानसिकता रखता है तो ऐसा हरगिज़ नहीं बल्कि दरअसल महिलाएं ही महिलाओं की पुरुष से भी बड़ी दुश्मन तथा विरोधी हैं। यदि महिलाओं में परस्पर विश्वास तथा भरोसे की भावना होती एक महिला दूसरी महिला का सम्मान केवल महिला होने के नाते करती तो आज न तो वृंदावन में असहाय वृद्ध महिलाओं का हुजूम देखने को मिलता न ही भारतीय महिलाओं की संभवत: इतनी दुर्दशा देखने को न मिलती।
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निर्मल रानी
लेखिका व् सामाजिक चिन्तिका
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं !
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