मजबूत दिव्यजन कानून या कमजोर क्रियान्विति ?

– प्रो.(डॉ) डी.पी शर्मा “धौलपुरी” –

poors,-poor-personनवीन सोच के साथ नया शब्द यानी “दिव्यजन”  अर्थात एक ऐसा इंसान जो कमजोर, आश्रित एवं शारीरिक रूप  से किसी अक्षमता का शिकार हो, की तस्वीर उभर कर आँखों के सामने आती है/ बदलते आर्थिक व राजनैतिक ताने बाने एवं सामाजिक सशक्तीकरण के द्वंद्व में एक ऐसा तबका जिसको न तो अभी तक पूरी तरह से सामाजिक समानता के साथ न्याय मिला और न ही जीने के अधिकार की गारंटी के साथ राजनैतिक एवं लोक तांत्रिक प्रतिनिधित्व।/ यूँ तो भारत जैसे देश में बातें बहुत हुईं, कानून बहुत बने परंतु यथार्थ के धरातल पर कुछ गिने चुने जुझारू दिव्यजनों के अलावा ऐसे कम ही उदाहरण मिलेंगे जिनको सामाजिक न्याय अथवा संवेदनशील कानून की क्रियान्विति एवं  प्राथमिकता के वतौर उच्च पद प्राप्त हुआ हो, वर्ना अधिकतर वो दिव्यजन ही सफल हुए जिन्होंने अपने बल बूते सामाजिक वर्जनाओं एवं कानूनी दीवारों को अपनी इच्छा शक्ति से तोडा और मुकाम हासिल कर इतिहास रचा जैसे राजस्थान के पूर्व दिवंगत मुख्यमंत्री हरदेव जोशी, पूर्व केंद्रीय मंत्री एस जयपाल रेड्डी इत्यादि /

सामाजिक, राजनैतिक, संवैधानिक एवं सरकारी नजरिये से तो आज भी दिव्यजन एक  सम्माननीय शब्द सम्बोधन  के अलावा कुछ भी नहीं / ग्रामीण हिंदुस्तान की दहलीज पर तो आज भी उसकी पहचान “मात्र विकलांगता सूचक शब्द नाम ” तक ही सीमित है /  आजतक किसी भी कानून ने इन ” निःशक्त सूचक नाम संबोधनों ” को  दंडकारी नहीं बनाया/  इसके अलावा दिव्यजनों का  “स्वाभिमान” एवं “नाम” दोनों ही किसी शख्त कानून के आभाव में स्वतंत्र भारत के 69 सालों में आज भी अपने अधिकार के लिए वाट जोह रहे हैं/

राजस्थान प्रदेश इसका ज्वलंत उदाहरण है जहाँ आज तक भी दिव्यजन आयोग के अध्यक्ष  पद पर किसी  दिव्यजन को नियुक्त नहीं किया गया / आखिर क्यों ? क्या देश या प्रदेश में कोई भी ऐसा सक्षम दिव्यजन नहीं जो खुद के कानून खुद बनाने एवं उनकी क्रियान्विति स्वपीड़ा को समझते  हुए करने में सक्षम हो? तब सवाल उठता है कि नामकरण के नाम पर पहले विकलांग जन , फिर निशक्तजन बाद में योग्यजन और अब दिव्यजन नामक सभी राजनैतिक एवं सरकारी जुमले हकीकत के धरातल पर सिर्फ थोड़ी हकीकत ज्यादा फ़साना के अलावा  कुछ भी नहीं /

यूनाइटेड नेशंस के दिव्यजन अधिकार कन्वेंशन (प्रस्ताव)-2006 को अंगीकार करने वाले प्रथम दश देशों में भारत भी एक था जिसने सबसे पहले हस्ताक्षर किये / परंतु अफ़सोस कि  उसके प्रावधानों को यूनाइटेड नेशन्स की भावनानुसार लागू करने में हम पिछड़ गए/  इस प्रस्ताव/ कन्वेंशन के आर्टिकल ४, ६, ८, ९ एवं १० में यह स्पष्ठ व्यवस्था दी गयी है कि इस कन्वेंशन से जुड़ने वाले सभी राष्ट्रों को ऐसे कानून, नीतियां एवं प्रशासनिक व्यवस्था एवं मानदंड बनाने तथा अपनाने होंगे जो दिव्यजनों के सामाजिक समानता के अधिकार, मानवीय दृष्टिकोण एवं राष्ट्र की मुख्यधारा में जुड़ने के उनके सपने को साकार करते हुए उन्हें समान अवसर, समान अधिकार एवं अधिकार संरक्षण की गारंटी देते हों/ लेकिन इसे सामाजिक विडम्बना ही कहा जायेगा कि ऐसा प्रभावी रूप से आज तक हो न सका /

अभी हाल में जामडोली-जयपुर  के विमंदित गृह की दुर्दशा एवं सरकारी नजरिये के साथ साथ संवैधानिक पदासीन व्यक्ति के कथन  ” ये विमंदित बच्चे तो हमेशा बीमार ही रहते हैं ” सरकार की संवेदनसीलता  की  पोल खोल  देते हैं /  हमने विकसित देशों जैसे अमेरिका से लेकर विकाशशील देश साउथ कोरिया एवं चीन तक देखा है जहाँ सार्वजनिक वाहनों बस , रेल एवं एयरपोर्ट सेवाओं में दिव्यजन के लिए अलग से लाइन , काउंटर, रैंप एवं अन्य आवश्यक सपोर्ट सुविधाएँ एक विशेष तंत्र द्वारा निशुल्क मुहैय्या कराई जाती है / अभी हाल में ( सितम्बर २०१६) मेरे स्वयं के द्वारा पासपोर्ट नवीनीकरण के लिए जयपुर पासपोर्ट कार्यालय में ये अनुभव किया गया कि वहां दिव्यजन की सुविधाएँ सरकारी प्रावधान में तो हैं परंतु कार्यालय में न तो कोई सूचनार्थ बोर्ड लगाया गया है और न ही कोई गाइड की व्यवस्था की गयी है / एक अफसर ने तो यहाँ तक कह दिया कि यदि एक दिव्यजन और उसकी शारीरिक विकलांगता स्पष्ठ रूप से दिखाई देते हुए भी हम उसको ये सुविधाएँ ( सिर्फ अलग लाइन में लगना  एवं प्राथमिकता से उसकी फीस जमा कराना  मात्र ) इसलिए नहीं  दे सकते क्योंकि उसके पास विकलांग प्रमाणपत्र नहीं है/ इससे स्पष्ठ हो जाती है आज सामाजिक असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा एवं कागज की परतों के बीच दम  तोड़ते कानून की दुर्दशा की /

भारत सरकार ने अनेकानेक दिव्यजन कानून यथा ” पर्सन्स विथ डिसेबिलिटी एक्ट “, नेशनल ट्रस्ट एक्ट एवं अन्य तो बना रखे हैं  परन्तु इन कानूनों की वाध्यकारी क्रियान्विति कैसे होगी ये सोचने का वक्त न तो सरकार के पास है और न ही सरकारी अहलकारों ( अफसरों ) के पास/ आखिर हो भी तो क्यूँ , उनका न तो कोई  संगठित वोट बैंक है और न ही उचित प्रतिनिधित्व / यूँ तो उनकी कुल आबादी  आज तकरीबन 2. 68 करोड़ ( जनगणना 2011 )  है  परंतु संगठित नहीं /  अगर ऐसा होता तो शायद संसद एवम विधान सभाओं के गलियारों में उनकी दबी हुयी आवाज भी आज प्रखर  होती और उनके नाम की कल्याणकारी योजनाएं , थोडी ही सही परंतु हकीकत का रूप ले लेती, वजाय फ़साना बनने के /

भारत के दिव्यजन  कानून के अधिकतर प्रावधान अमेरिकन डिसेबिलिटी एक्ट से लिए गए  हैं/ पहली बार जब ये क़ानून  सन 1995 में नरसिंह राव सरकार के कार्यकाल में तत्कालीन  सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री सुश्री ममता बनर्जी ने संसद के पटल पर रखा तो इसे बिना बहस के ध्वनि मत से पारित कर दिया गया /क्योंकि शायद सबको मालूम होगा कि ये कानून जब क्रियान्विति की धरती पर उतरेगा तब भी और आज भी किसी विशेष महत्व के व्यक्तियों के लिए नहीं है / शायद यही सोचकर बिना बहस एवं विश्लेषण के इसको पारित कर दिया और नतीजतन आज भी ये बिना दन्त वाला ( कमजोर बाध्यकारी ) कानून आज तक कई संवैधानिक संसोधन के दौर से गुजरने के बावजूद न तो प्रभावी रूप से दिव्यजनों की हालात को सुधार  पाया और न कोई ऐतिहासिक सामाजिक सुधार को सुनिश्चित कर पाया /

आज हम स्मार्ट सिटी  मॉडल को अपनाने के लिए बावले हो रहे हैं / प्रयास स्वागत योग्य है परन्तु मेरा वैश्विक अनुभव कहता है कि बिना दृष्टिकोण  परिवर्तन के, बिना सामाजिक चेतना के ये स्मार्ट सिटी मॉडल्स सफ़ेद हाथी ही सावित होंगे भारत जैसे विकाशशील देश में हकीकत के धरातल पर आते आते  / अभी तक तो हमारा समाज जीवन की मूलभूत सुविधाओं के लिए ही जद्दोजहद कर रहा है ऐसे में दिव्यजन की सुविधा की बात स्मार्ट सिटी में करना पुनः एक खयाली पुलाव के आलावा कुछ नहीं / आज तक हम दिव्यजनों के लिए सार्वजनिक स्थानों पर रैंप एवं विशेष टॉयलेट  जैसी मूलभूत  सुविधाएँ उपलब्ध नहीं करा पाए तो स्मार्ट सिटी में क्या  स्मार्ट होगा ये सोचनीय है / आज हमें हमारे कानून, सामाजिक प्राथमिकताएं, लागूकरण की योजनाएं, क्षमता एवं द्रष्टिकोण में अमूल चूल परिवर्तन करने की आवश्यकता है ताकि कानूनों एवं योजनाओं की मजबूती उनकी  ईमानदार क्रियान्विति में भी दृष्टिगत हो /

पिछली साल  राजस्थान पत्रिका के मीडिया एक्शन ग्रुप की दिव्यजन कल्याण की पहल को सामाजिक आंदोलन से चेतना जगाने एवं शोषण की परतों से धूल उड़ाने के मिशन के रूप में  शुरू किया था / इसको मूर्त रूप देने वाले साहसी मिशन कर्मी बहादुरी, निश्वार्थ सामाजिक एवं लोकतान्त्रिक सेवा के सच्चे सन्देश वाहक थे परंतु कितने लोग जाग्रत हुए एवं कितनों ने अपनी सोच को संवेदनशील बनाया, ये ज्वलंत प्रश्न है हम सभी के सामने आज / अभी कुछ महीने पहले  आरबीआई के तत्कालीन गवर्नर ने भारतीय अर्थव्यवस्था को एक विशेष प्रकार के दिव्यजनों की ओर  इंगित करते हुए मुहावरा सार्वजानिक रूप से बोला, तब उसकी विश्व व्यापी आलोचना हुई कि आखिर हमारा व्यवहार कब भाषायी दृष्टि से सभ्य एवं संभ्रांत बनेगा / आज विश्व समुदाय, यूनाइटेड नेशन्स, विकसित एवं विकासशील देश सभी एक मत से भाषा, रंग, लिंग, शारीरिक निःशक्तता एवं धर्म के आधार पर मानव-मानव में विभेद के ख़िलाफ़ हैं / कहते हैं कि किसी भी व्यक्ति की  विकलांगता तो प्रायः स्थायी होती  है परंतु सकलांगता स्थायी नहीं/ कोई भी व्यक्ति कभी भी किसी हादसे का शिकार होकर विकलांगता को प्राप्त कर सकता है तो फिर समाज में इतनी अशहिष्णुता दिव्यजनों के प्रति क्यों/ सकलांगता का अभिमान किस लिए?  अभी कुछ महीने पहले एक सामयिक अशहिष्णुता के लिए आंदोलन करने वाला समाज सदियों से दिव्यजनों के प्रति अशहिष्णुता पर खामोश क्यों?

एक शायर ने ठीक ही कहा है कि –

न बस में जिंदगी उसके, न काबू मौत पर उसकाl

मगर इंसान फिर भी कब, खुदा होने से डरता है ll

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Prof D P SharmaAbout the Author

Prof.(Dr.) DP Sharma

International consultant/adviser (IT), ILO (United Nations)-Geneva

 PhD [Intranet-wares], M.Tech [IT], MCA, B.Sc, DB2 &WSAD-IBM USA, FFSFE-Germany, FIACSIT- Singapore , AMIT, AMU MOE FDRE under UNDP and Ex. Academic  Faculty Ambassador for Cloud Computing Offering (AI), IBM-USA ,  External Consultant & Adviser (IT), ILO [ An autonomous Agency of United Nations]- Geneva

Contact – : Email: dp.shiv08@gmail.com ,  WhatsApp:   +917339700809

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Disclaimer : The views expressed by the author in this feature are entirely his own and do not necessarily reflect the views of INVC NEWS.

19 COMMENTS

  1. I appreciate you thoughts

    Its nice Dr Sharma

    But what can be done

    We human civilization is always like that
    Weak people are always exploited and ignored

    Anyways Congra and keep on writing

    The best

  2. गहन शोध कियागया विचार, आप बाधाई के पात्र हैं।
    अतुलनीय,

  3. Dear Dr Sharma,
    I fully endorse your above article also committed to be with you by all means in your noble mission.
    Wishing you all luck.

    Thanks & Regards
    Rajesh Sinha

  4. Dear Dr.sharma D.P.
    Views expressed in the article are excellent, mind blowing and highlighting reality.
    Unfortunately, persons with disability might be subject to various negative attitudes and barriers within the education system. First and foremost, the lack of accessibility and resources provided in mainstream education is already a major obstacle for students with disability although some improvements may be noted.

    Another major challenge is the attitude of peers. Even children could have stereotypical ideas and misconceptions about disability and these persons. These could be exhibited bluntly such as calling persons with disability names. It could also be manifested in another form of harassment, like moving away from the person with disability, which is often the result of fear or lack of knowledge. The effect of this may result in feelings of insecurity and having a sense of inadequacy which may lead persons with disability to experience isolation, lack of motivation to learn, and in some cases absenteeism from school.

    The attitudes portrayed by teachers and other school professionals, also have a great impact on the development of the student with disability, as much as any other student. Therefore, schools and professionals have a great responsibility in creating an accessible, safe and welcoming environment that promotes inclusion and equality. Through the curriculum, the education system should take into consideration these person’s needs and challenge bullying and stereotypical attitudes towards them. Students, including persons with disability, have different ways of learning and as much as possible the educational system has to adopt different teaching methods accordingly through different subjects and resources. The educational system needs to acknowledge and praise skills in various subjects including arts and sports in order to enhance the self-concept and self-esteem of the students, including students with disability.
    visit
    http://vikaspedia.in/education/parents-corner/guidelines-for-parents-of-children-with-disabilities/legal-rights-of-the-disabled-in-india

    Laws are poweful… implementing system is useless, non sensitive and hopeless.

    Good luck for your mission.

    Dr. G.R.Kulkarni

    • Dear Prof Kulkarni

      You analysis with wishes are true gift for me. In such a tight schedule and serious commitments you spared time and wrote a long narratives on such a burning issue

      Appreciate and thanks

  5. Dr. Sharma
    I got a shared link from our Indian friend Professor Ramalingamaiya but I cant read.
    Finally I took support from technology translation

    Views are mind blowing and thought provoking. Keep up

    Are you changing your domain? from IT to Rehabilitation of people with disability

    Pawlo

    • Dear Dr. Pawlo
      Thanks for your views
      Only once I saw you during my Vancouver-North America visit for Keynote address in an International conference in April 2013

      As stated, Would you please shared his email address of Prof Ramaling who shared with you

      Thanks

  6. Dear Prof Sharma
    Congra
    Great views with real observation and analysis of ground reality of the world
    The Best
    Rakesh Khurana
    Dean

    Harvard Business School (HBS)
    Harvard University Leadership Development Center-USA

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