-अशोक मिश्र –
केजरी भाई लाख टके की बात कहते हैं। अगर आदमी भूखा रहेगा, तो ईमानदार कैसे रहेगा? भुक्खड़ आदमी ईमानदार हो सकता है भला। हो ही नहीं सकता। आप किसी तीन दिन के भूखे आदमी को जलेबी की रखवाली करने का जिम्मा सौंप दो। फिर देखो क्या होता है? पहले तो वह ईमानदार रहने की कोशिश करेगा। देश, समाज, परिवार और गांव-गिरांव की नैतिकता की दुहाई देगा। अपने होंठों पर जुबान फेरेगा। भूख से लडऩे की कोशिश करेगा। और जब…भूख बर्दाश्त से बाहर हो जाएगी, तो…? तो वह मन ही मन या फिर जोर से चीख कर कहेगा, ‘ऐसी की तैसी में गई ईमानदारी। पहले पेट पूजा, फिर काम दूजा।Ó सच है कि मुरदों की कोई ईमानदारी नहीं होती है। जब आदमी जिंदा रहेगा, तभी न ईमानदार रहेगा। मरे हुए आदमी के लिए क्या ईमानदारी, क्या बेईमानी..सब बराबर है। वैसे भी भूख और ईमानदारी में जन्म जन्मांतर का बैर है। हमारे पुराने ग्रंथों में भी कहा गया है कि बुभुक्षितम किम न करोति पापम!
इस सत्य को बहुत पहले हमारे ऋषि-मुनि, त्यागी-तपस्वी समझ-बूझ गए थे। तभी तो उन्होंने कहा कि भूखे भजन न होय गोपाला। यह लो अपनी कंठी-माला। कहते हैं कि एक बार ऐसी ही स्थिति महात्मा बुद्ध के सामने आ पड़ी। उनका एक शिष्य भूखे आदमी को अहिंसा का संदेश दे रहा था। उसका ध्यान ही नहीं लग रहा था। शिष्य उस आदमी के कान पकड़कर महात्मा बुद्ध के सामने ले गया। महात्मा बुद्ध तो अंतरयामी थे। समझ गए कि भूखे भजन न होय गोपाला। फिर क्या था, पहले भर पेट उस आदमी को फास्टफूड खिलाया। जब उस आदमी ने तृप्त होने के बाद डकार ली, तो महात्मा बुद्ध बोले, अब ले जाओ। इसे जी भरकर अहिंसा का संदेश दो। बस, इत्ती सी बात को लोग बूझ ही नहीं रहे हैं। हमारे केजरी भइया ने यह बात बूझी, तो लोग हल्ला मचा रहे हैं। घर के आगे धरना प्रदर्शन कर रहे हैं। कर रहे हो विरोध-प्रदर्शन तो करते रहो, केजरी भइया की बला से।
भला बताओ, यह भी कोई बात हुई। इतनी ज्ञान-ध्यान की बात केजरी भाई कह रहे हैं और लोग हैं कि खाली-पीली विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं। ये लोग इस बात को समझ ही नहीं पाते हैं कि केंद्र से लेकर राज्यों तक, गांव से लेकर शहर तक भ्रष्टाचार, अनाचार, रिश्वत खोरी, लूट-खसोट सिर्फ इसलिए है क्योंकि केंद्र और विभिन्न राज्यों के कर्मचारियों का पेट ही नहीं भरता। इन्हें अगर इतनी तनख्वाह मिलने लगे कि वे अपनी धर्मपत्नी, अधर्म पत्नी, गर्लफ्रेंड्स या ब्वायफ्रेंड्स, अपने जायज-नाजायज बेटे-बेटियों को अमेरिका, स्वीटजरलैंड, इंग्लैंड, जापान घुमाने ले जा सकें, उन्हें बढिय़ा-बढिय़ा विदेशी कपड़े, परफ्यूम, शराब खरीदवा सकें, तो वे क्यों रिश्वत लेंगे। किसी फाइल को क्यों अटकाएंगे। चपरासी से लेकर बड़का अधिकारी तक ऑडी-फेरारी से आफिस आए-जाए, तो वह क्या सौ-पचास रुपये की टुच्ची रिश्वत लेगा।
अब आप लोग ही बताइए, बारह-पंद्रह हजार रुपये की तनख्वाह कोई तनख्वाह होती है। वैसे ढाई-तीन लाख रुपये भी कोई बड़ी रकम नहीं होती है। अरे इत्ती मामूली रकम से दिल्ली जैसी महंगी जगह में विधायकों का महीने भर गुजारा चल पाएगा? हमारे मोहल्ले में रहने वाले गुनाहगार शाम को अपनी टांके वाली प्रेमिका कल्लो भटियारिन को किसी मामूली होटल में भी लंच-डिनर कराने ले जाते हैं, तो दस-पंद्रह हजार के चपेट में आ जाते हैं। अरे विधायकों की भी कोई इज्जत है कि नहीं। किसी अरजेंट मीटिंग में जाना है और एल्लो..गाड़ी न पेट्रोल है, न पेट्रोल का पैसा। ऐसा कहीं कोई विधायक होता है। और फिर विधायकी का चुनाव कोई समाज सेवा के लिए लड़े थे क्या? होना तो यह चाहिए था कि कोई भी सांसद, मंत्री, बड़ा अधिकारी हो, तो उसे पद ग्रहण करते ही दस-बारह करोड़ रुपये उसके खाते में डाल दिए जाएं, ताकि वह ईमानदार रह सके। देश में ईमानदारी बची रहेगी, तो देश बचा रहेगा।
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अशोक मिश्र
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