सुशांत सुप्रिय कहानी : मिलन
मैं कौन हूँ यह महत्वपूर्ण नहीं है । जो मैं आज आपको बताने जा रहा हूँ , महत्वपूर्ण वह है । एक बात और । यह काल्पनिक कहानी नहीं है , सच्ची घटना है । तल्ख़ हक़ीक़त है । अपने अराजक समय का दस्तावेज़ है । बच्चे , कमज़ोर-दिल महिलाएँ और भावुक पुरुष इसे न पढ़ें क्योंकि इसे पढ़ कर यदि आपका गला रुँधा या आपकी आँखें गीली हुईं तो मैं इसके लिए क़तई ज़िम्मेदार नहीं माना जाऊँगा ।
वह दिसंबर की एक सर्द शाम थी । हम छह लोग कनॉट प्लेस के ‘ वोल्गा ‘
रेस्तराँ में ब्रजेश की प्रोमोशन पार्टी के मौक़े पर इकट्ठे हुए थे । ब्रजेश यानी बंटी — मेरा छोटा भाई । ब्रजेश ‘ इंडिया बुल्स ‘ कम्पनी में मैनेजिंग डायरेक्टर बन गया था ।
ख़ुशी का मौक़ा था । मेरी पत्नी सरला और ब्रजेश की पत्नी नेहा के अलावा ब्रजेश के सहकर्मी श्री और श्रीमती श्रीनिवासन भी हमारे साथ थे । एक बूढ़ा सरदार बैरा थके हुए क़दमों से आया और हमें ‘ मेनू ‘ दे गया ।
मैंने देखा कि ब्रजेश उस सरदार वेटर को ध्यान से देख रहा था । जैसे उसे पहचानने की कोशिश कर रहा हो । अचानक वह अपनी कुर्सी से उठा और उस बूढ़े सरदार के पास पहुँच कर उसने कहा , ” सरदारजी , आप ? ”
बूढ़ा सरदार उसे ग़ौर से देख रहा था । समय जैसे वहीं ठहर गया था । अचानक उसके मुँह से निकला — ” कहीं तू बंटी तो नहीं ? ” स्मृति के मंच से जैसे बरसों पुराना झीना पर्दा सरसरा कर ऊपर उठ गया । पहचान का सूरज जैसे समय के बादलों को चीर कर बाहर निकल आया ।
” पैरीं पैन्नां हाँ जी ” कहते हुए बंटी बूढ़े सरदार के पैर छू रहा था । ” आ जा पुत्तर , आ जा ” कहते हुए सरदारजी ने उसे गले से लगा लिया था ।
हम हैरान थे । यह कैसा मिलन था ? वह बूढ़ा सरदार कौन था ? सब के मन में ये ही प्रश्न थे ।
ख़ैर । खाने का ऑर्डर ले कर वह सरदार बैरा चला गया । उसके जाते ही श्रीनिवासन जी पूछ बैठे — ” ब्रजेश , कौन है वह ? तुम उसे कैसे जानते हो ? ”
मुझे लगा , हो-न-हो , यह बूढ़ा सरदार वही व्यक्ति था जिसके बारे में ब्रजेश ने कई बार कई लोगों को बताया था । मैंने उसके मुँह से यह सत्य-कथा कई भाषाओं में कई लोगों के बीच सुनी थी ।
” बात 1983 की है ,” ब्रजेश ने कहना शुरु किया । ” मैं उस समय सोलह-सत्रह साल का लड़का था । मेरी नई-नई दाढ़ी-मूछें उगनी शुरू ही हुई थीं । हम अमृतसर में रहते थे । पंजाब में आतंकवाद उन दिनों चरम सीमा पर था । रोज़ाना दर्जनों लोग मारे जा रहे थे । गोलीबारी , बम-धमाके और कर्फ़्यू आम बातें हो गई
थीं । जनता भयभीत थी । प्रशासन नपुंसक था । पंजाब सुलग रहा था और नेता लाशों पर राजनीति कर रहे थे ।
” एक दिन मैं और पिताजी बस से अमृतसर से गुरदासपुर जा रे थे । पिताजी के एक मित्र के बेटे की शादी थी । माँ नहीं चाहती थी कि हम यह यात्रा करें । ” सुनो जी , मेरी बाईं आँख सुबह से फड़क रही है । क्या जाना ज़रूरी है ? ” उसने पिताजी से कहा ।
” बंटी की माँ , क्या बेपढ़े-लिखों जैसी बात करती है । तू फ़िकर ना कर । हमें कुछ नहीं होगा । हम कल शाम तक लौट आएँगे । ” पिताजी ने माँ को दिलासा
दिया ।
” यह वह समय था जब पंजाब से बाहर रह रहे लोग पंजाब आने से डरते-कतराते थे । यह वह समय था जब अख़बारों के मुखपृष्ठ प्रतिदिन पंजाब में दर्जनों लोगों की हत्याओं की ख़बरों से भरे होते थे । यह वह समय था जब नेता कमांडो-दस्तों के साथ चलने के बावजूद असुरक्षित थे । यह वह समय था जब आम आदमी के जीवन की कोई क़ीमत नहीं थी और उसे भगवान-भरोसे छोड़ दिया गया था । यह वह समय था जब भगवान पर से भी भरोसा उठता जा रहा था ।
” अमृतसर बस-अड्डे से हमारी बस दिन में एक बजे चली । पिताजी को आगे की सीट मिली थी । पिछली सीट पर मैं और एक अधेड़ सरदारजी बैठे हुए थे ।
” शाम पाँच बजे के क़रीब गुरदासपुर से थोड़ा पहले एक सुनसान जगह पर हमारी बस को पाँच-छह लम्बे-तगड़े नौजवानों ने हाथ दे कर रोक लिया । सब ने केसरी पगड़ियाँ पहनी थीं । लम्बी खुली दाढ़ी वाले उन युवकों में से कइयों ने कम्बल ओढ़ रखे थे । बस में घुसते ही उन्होंने बंदूक़ें , पिस्तौलें और रिवाल्वर निकाल लिए । ड्राइवर की कनपटी पर पिस्तौल तान कर वे बस को एक कच्चे रास्ते पर गाँव की ओर ले गए । एक वीरान मोड़ पर उन्होंने बस रुकवा दी ।
” सारे हिंदू थल्ले ( नीचे ) आ जाओ । ” खूँखार लगने वाले एक युवक ने गरज कर कहा । हिंदुओं और सिखों को अलग-अलग किया जाने लगा । बस में कोहराम मच गया । महिलाएँ विलाप करने लगीं । बच्चे रोने लगे । कुछ युवक बस से कूद कर भागने की कोशिश में आतंकवादियों की गोलियों का निशाना बन गए । हिंदुओं के चेहरों पर आतंक का दानव नृत्य करने लगा । मैं भी सहम गया था । आगे बैठे पिताजी ने पीछे मुड़कर मुझे देखा । वे कातर आँखें मैं आज भी नहीं भूल सकता । मैं भीतर तक हिल गया था । फिर भी मैंने उनके कंधे पर हाथ रख कर उन्हें दिलासा देना चाहा ।
” यदि वे एक-दो होते तो शायद मैं कुछ करने की हिम्मत जुटा पाता । पर वे पाँच-छह लोग थे । हट्टे-कट्टे । हथियारबंद । तभी उनमें से एक युवक ने पिताजी को पकड़ कर बस से नीचे घसीटना शुरू किया । मैंने उठ कर उसे रोकना चाहा । पर पीछे से दो युवकों ने मुझे धर दबोचा । पिताजी के साथ-साथ वे मुझे भी बस से नीचे घसीटने लगे । घूँसों और बूटों की बौछार होने लगी । मुझे लगा जैसे हमारा अंत समय आ गया था ।
अचानक मेरे बगल में बैठा अधेड़ सरदार उठा और मुझ से लिपट कर कहने लगा — ” इसे छोड़ दो । ये मेरा पुत्तर है । मेरा बेटा है । ये हिंदू नहीं , सरदार है । इसे छोड़ दो । ”
हथियारबंद युवकों ने मुझे छोड़ कर उस अधेड़ सरदार को पीटना शुरू कर
दिया — ” हराम…, अगर ये सरदार है तो इसकी पगड़ी कहाँ है ? इसका ‘ पटका ‘ कहाँ है ? झूठ बोलता है ? ”
पर वह सरदार मुझ से चिपका रहा । उसे बंदूक़ों के कुंदों से , बूटों से , घूँसों से मारा जाता रहा । मार-पीट में उसके कपड़े फट गए । उसकी पगड़ी सिर से नीचे गिर गई । उसके लम्बे बाल खुल कर चेहरे पर फैल गए । पर उसने मुझे नहीं छोड़ा । वह बार-बार कहता रहा — ” वाहे गुरु दी सौंह , गुरु नानक देव जी की क़सम , ये मेरा पुत्तर है । ये हिंदू नहीं , सरदार है । इसे छोड़ दो । इसकी जान बख़्श दो …। ”
” वह भगवान का दूत था । वह वाहेगुरु का भेजा हुआ फ़रिश्ता था । अपनी जान पर खेल कर उस अधेड़ सरदार ने मेरी जान बचा ली । श्रीनिवासन जी , मैंने जिस बूढ़े वेटर के पैर छुए यह वही सरदार है । आज अगर मैं जीवित हूँ तो इसी सरदार की बदौलत हूँ । ” यह कह कर ब्रजेश चुप हो गया ।
” और आपके पिताजी का क्या हुआ ? ” श्रीनिवासन जी खुद को रोक न
सके ।
मेरी आँखें नम हो गईं । ब्रजेश ने मेज़ पर पड़े गिलास में से पानी का एक लम्बा घूँट लिया ।
” मैं उन्हें नहीं बचा पाया । आतंकवादियों ने उन्हें भी गोली मार दी । लेकिन मैंने बाद में महसूस किया कि पिताजी उस दिन पहली बार नहीं मारे गए थे । न आख़िरी बार । नाज़ियों ने उन्हें गैस-चैम्बर में मारा था । दंगाइयों ने उन्हें देश के विभाजन के समय मारा था । वे दिल्ली , बोस्निया और गुजरात के नरसंहारों में मारे गए थे । वे हर उस जगह मरे थे जहाँ किसी बेगुनाह व्यक्ति को केवल इसलिए मारा गया था क्योंकि वह किसी धर्म , वर्ग या जाति विशेष का था । ” ब्रजेश ने रुँधे गले से कहा ।
बूढ़ा सरदार खाना ले आया था ।
” सरदार जी , आप यहाँ कब से हो ? ” ब्रजेश ने पूछा ।
” क्या बताऊँ , पुत्तर । 1983 के उस बस हादसे के कुछ महीने बाद आतंकवादी हमारे गाँव में भी आ पहुँचे । उन्होंने वहाँ भी कई लोगों को मार डाला । उन्हीं दिनों मेरे बेटे की नौकरी दिल्ली में लग गई । तो मैं भी उसके पास यहाँ चला आया … । ” सरदार जी की आवाज़ भर्रा गई थी ।
” अच्छा सरदार जी , तो अब आप अपने बेटे के पास रहते हो । ” ब्रजेश ने कहा ।
यह सुनते ही वह बूढ़ा सरदार फूट-फूट कर रोने लगा । रह-रह कर वह काँप उठता था । हम सभी अवाक् हो कर उसे देख रहे थे । ब्रजेश फुर्ती से उठा और उसने सरदार जी को बाँहों में ले कर उसे सहारा दिया ।
“… क्या बताऊँ , पुत्तर । बाप को 1947 निगल गया था । बेटे को 1984 खा गया । दंगाइयों ने उसके केश क़त्ल करके उसके गले में टायर डाल कर उसे ज़िंदा जला दिया … । ”
बूढ़े सरदार के आँसू नहीं रुक रहे थे । ब्रजेश भी रो रहा था और बूढ़े सरदार को बाँहों में भरकर दिलासा देते हुए कह रहा था — ” पापाजी , फ़िकर ना करो । आपका यह पुत्तर अभी ज़िंदा है । आपका यह बेटा आ गया है । अब आप अकेले नहीं हो । आप मेरे साथ चलो । ”
हम सब की आँखें नम हो गई थीं ।
उन्हें आपस में मिलता हुआ देख कर मुझे ऐसा लगा जैसे नदी समुद्र में मिल रही हो । जैसे सदियों से बिछड़े बाप-बेटे मिल रहे हों । जैसे दो निष्कलंक आत्माएँ मिल रही हों ।
रेस्तराँ में लगे टी. वी. पर किसी न्यूज़-चैनल पर समाचार-वाचक ख़बर पढ़ रहा था — ” आज संसद के दोनो सदनों में ‘ नानावती आयोग ‘ की रिपोर्ट पर तीखी बहस हुई … । ”
ब्रजेश और बूढ़ा सरदार — दोनो एक-दूसरे के आँसू पोंछ रहे थे ।
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