आभार अहिल्या का
वन से गुजरते हुए राम ने देखा फलों से लदे हुए, वृक्षों से भरे सुसज्जित एक उपवन है उन वृक्षों पर नाना प्रकार के पक्षी बैठे हैं पर, बड़ी ही शांत मुद्रा में उनके कलरव का लरजता हुआ शोर नदारद है ! सदा नीरा नदी के तट पर और जलाशयों पर पक्षी तो हैं, पर शांत मुद्रा में ! मानो ध्यान मग्न से हैं उपवन अपने उदासी से आकृष्ट कम कर रहा था भयवीत ज्यादा ! ऐसी ख़ामोशी, ऐसी उदासी, इतना मुखर सन्नाटा और ये बेचैन करने वाली शांति राम को भी बेचैन कर उठी ! वे ऋषि विश्वामित्र से, अपने स्वाभाव के विपरीत प्रश्न कर बैठे, तात ! ये कैसा उपवन है जहाँ हरे भरे फलदार वृक्ष हैं पर उनका उपभोग करने वाला कोई नहीं, भांति-भांति के जलश्रोत हैंपरन्तु पानी पीने वाला कोई नहीं, पशु-पक्षी भी अपने स्वाभाव के विपरीत अपनी चंचलता को छोड़ कर खामोश हैं ऐसा क्या घटित हुआ है कि सब उदास हैं खामोश हैं ?
विश्वामित्र राम को साथ आने के लिए कह कर आगे बढ़ते जाते हैं ! थोड़ी ही दूर चलने पर उस आश्रम परिसर में एक कुटिया दिखाई दी कुटिया जीर्ण शीर्ण थी उसके सामने एक प्रौढ़ा, जो कभी रूपसी रही होगी, मगर आज भगना अवशेष के समान थकी हारी सी एक महिला ध्यान मग्न दिखाई पड़ती है ! व्यक्तियों के पदचाप की आहट से चौंक कर ध्यान टूट गया ! आँख खोलने पर सामने देखती है तो दो किशोरों के साथ एक जाना पहचाना चेहरा ऋषि
विश्वामित्र को खड़ा पाती है उन्हें देख कर भी महिला के मुख से कोई आवाज नहीं निकलती है ! वर्षों से बोलने का अभ्यास ही नहीं रहा था किसी से एक भी शब्द बोले बगैर नि:शब्द ही तो इतने सारे वर्ष चुपचाप ही तो काट दिए थे !
बोलता तो वहां का सन्नाटा था कि देखो निरपराध को दण्ड दिए जाने पर ये कायर समाज चुप रह गया और उसी ख़ामोशी के बोझ तले ये आश्रम ही नहीं ये सारा संसार ही दब गया है और फलस्वरूप एक जीती जागती प्राणी पाषाणी में परिवर्तित हो कर रह गयी ! ऋषि विश्वामित्र को देखकर चरणों में प्रणाम करने के उपरांत भी वे मौन रहीं !
इस असह मुखर मौन को तोड़ते हुए राम ऋषि से पूंछ पड़े, प्रभु आपने माता का परिचय नहीं दिया, न ही ये बताया कि इस शून्य निर्जन वन में ये अकेली क्या कर रहीं हैं, यहाँ यह भयावह नि:शब्दता क्यों है ? कुछ विचार करते हुए ससंकोच ऋषि विश्वामित्र ने राम से कहा, राम ये कथा बहुत लम्बी है, लज्जाजनक भी, यहाँ मानवता भी पतित हुई और आर्य सभ्यता भी पराजित हुई है ! ये कुलीन जनों की वासना की शिकार सुंदरियों की त्राश्दी भी है ! ये कथा निरपराध को दण्डित करने तथा अन्याय पूर्ण न्याय प्रणाली की है …..! किसकिस कथा को सुनाऊं पुत्र !
एक बार गौतम ऋषि के आश्रम में यज्ञ कार्य में भाग लेने के लिए देवराज इंद्र अनेक देवगणों के साथ पधारे ! आश्रम के कार्य व्यवस्था का सुचारू रूप से सञ्चालन करती हुई सुगढ़ ऋषि गृहणी अहिल्या के सुदक्ष सञ्चालन के साथ ही उनके अद्भुत रूप, दमकती हुई त्वचा, विश्वास से भरे हाव-भाव, सजल नयन, मीठी प्रतिभा संपन्न सुरुचि पूर्ण बोली सभी कुछ देवराज को प्रभावित कर रहे थे ! अप्सराओं के प्रसाधनों से सजे रूप एवं नाटकीय हाव-भाव को देखने वाले इंद्र इस निराभरण प्राकृतिक सौन्दर्य को देख कर कुछ इस तरह अभिभूत हुए कि अपनी मर्यादा ही भूल गए, न अपने पद की गरिमा का ध्यान रहा, न आश्रम की मर्यादा का ! सभी कुछ वासना के आवेग में डूबता चला गया ! इस निर्लज्ज षड्यंत्र में इंद्र ने चंद्रमा को भी शामिल कर लिया ! पता नहीं चंद्रमा किस लोभवश उनके षड्यंत्र में शामिल हो गए और फिर वह सब कुछ घटित हो गया जो नहीं होना चाहिए था !
जैसे ही रात के अंतिम प्रहर में मुर्गे के रूप में चंद्रमा ने बांग दी ! अभ्यासवश ऋषि गौतम सैय्या से उठ बैठे और स्नान करने के लिए नदी की ओर चल दिए ! ऋषि के जाते ही इंद्र गौतम का वेश धारण करके कुटी में पंहुच गए और कामांध होकर अहिल्या से रतिआवाहन कर उठे ! असमय प्रणय निवेदन से अचकचा कर अहिल्या चौंक उठी पर उन्हें कुछ कहने का अवसर प्रदान किये वगैर इंद्र ने उन्हें अपने अंकपाश में लेकर प्रणय व्यापार प्रारम्भ कर दिया !
अहिल्या के प्रतिरोध को अपने मीठे वचनों से शांत कर, रिझा कर काम संतुष्टि की ! इधर उसी समय नदी किनारे गौतम को आभास हुआ कि वे शायद जल्दी आ गए हैं ! थोड़ी देर बाद पुन: आऊंगा यह सोच ऋषि गौतम लौट पड़े ! कुटिया के द्वार पर पंहुचे तो वहां पर एक और गौतम को कुटिया के द्वार से निकलते देखा ! अपने सामने दो-दो गौतम ऋषि को देख कर अहिल्या भी किसी अनिष्ट कीआशंका से व्याकुल हो उठी ! ऋषि के तेज के आंगे इंद्र अपना बहुरुपिया बेश धारण न कर सके और अपने वास्तविक रूप में आ गए और अपने दुराचार के पक्ष में तर्क देते हुए बोले किसी सुन्दरी के रति प्रस्ताव को कौन ठुकरा सकता है इतना कह कर वह वहां से पलायन कर गए ! समस्त ऋषि गण व देवता कोई भी इंद्र से ये न पूंछ सका कि अगर ये सुन्दरी अहिल्या का प्रस्ताव था तो उन्हें रूप परिवर्तन की आवश्यकता ही क्यों पड़ी ?
सारे समाज के सामने अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए बिना एक क्षण गंवाए गौतम ने भी अहिल्या का परित्याग कर दिया साथ ही अपने शिशु सतानंद को भी लेकर चले गए ! सतानंद जनक के राज्य में आज महापुरोहित के पद पर आसीन है पर न राजा जनक और न ही सतानंद ने अहिल्या के सम्मान के लिए कुछ किया इस शिला समान स्त्री के सम्मान की रक्षा के लिए मैं तुम्हें यहाँ लाया हूँ ! जिसे अपनों और परायों ने रास्ते के पत्थर की तरह त्याग दिया, क्या तुम उसकी पीड़ा समझोगे, क्या तुम उसके लिए कुछ कर सकोगे राम !
सारे वार्तालाप से असम्प्रक्त सी अहिल्या मौन, सर झुकाए व आँखें मींचे खड़ी थीं एक क्षण भी गंवाएं वगैर बिना कुछ सोचे समझे आगे बढ़ कर प्रणाम करते हुए कहा माते, प्रणाम मैं दशरथ पुत्र राम आपके चरणों में शीश
झुकाता ही नहीं हूँ अपितु आपको ये विश्वास दिलाता हूँ कि जिस संसार ने आपको शिलावत त्याग दिया था वही आज ससम्मान आपको स्वविकार करेगा ! क्यों कि जहाँ नारी के सम्मान की रक्षा नहीं की जाती वह समाज पतित ही नहीं होता बल्कि अपनी सभ्यता के चरमोत्कर्ष को भी कभी प्राप्त नहीं करता !
अपने प्रति सम्मान जनक शब्द सुनकर मानो अहिल्या जीवित हो उठी और राम से बोलीं तुमने इस निर्जन वन में आने का साहस किया इस निष्कासित, निर्वासित, शापित, पाषणवत जीवन यापन करने वाली नारी को माता कहकर संबोधित किया ! सो हे राम माता कहने के लिए आशीष साथ ही आभार, तुम्हारी उस माता को जिन्होंने तुम्हें नारी का सम्मान करना ही नहीं सिखाया अपितु उसके संग हुए अपकार का प्रतिकार करने का संस्कार भी दिया ……
___________________प्रोफ़े. कान्ती श्रीवास्तव
लेखिका व् शिक्षिका
पूर्व विभागाध्यक्ष संस्कृत विभाग
, डी. वी. कालेज , उरई (जालौन)
निवास – 120/720 लाजपत नगर कानपूर
संपर्क – 9935026288 , ई-मेल – kantisrivastava27@gmail.com
लेखन – लेख, व्यंग, कहानी, कविता, लघुकथा, स्मृति चित्र ,प्रकाशन – विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में