शरद कुमार सक्सेना की कविताएँ
१- नव सृजन
विचार किया तो पाया
मूर्ति का सांचा
तो मूर्ति से कम श्रद्धा का
अधिकारी नहीं
जो तरल द्रव
आकर्षक मूर्ति में ढाल देता है |
कम से कम प्रगतिशील समाज से
ऐसी आशा कर सकते हैं |
सृजन शिल्पी को देंखें
छेनी हतौड़े
वह पत्थर को तराश कर
देवता की मूर्ति बना देता है
बिलकुल बोलती सी |
हम सृजनकार और सांचों को
सम्मान देते हैं
क्यों कि कारण का
कारक महत्वपूर्ण है
पर आज समय के साथ हम
बदल गए हैं साथ में
हमारे उपमान भी |
हम सब चाहते हैं
महामानव अवतरित हो
अपने समाज में
पर हमारे यहाँ नहीं
पड़ोस के घर में
क्यों? इसलिए की
यह जन्म सा पीड़ादायक है ,
क्यों की कृष्ण जन्म के लिए
देवकी वासुदेव सी
पीड़ा सहनी पड़ती है ,
और कारागार की यातना से
गुजरना है किसी महामानव को जन्म देना l
यह पुरातन घटना है
पर हमारे लिए ये सबक बने ,
की सृजन कभी मुक्त नहीं रहा है
पीड़ा से और संघषों से
तो चलो हम अपने उपमान बदल दें ,
और कहें की
कृष्ण जन्म की तैयारी हैl|
२- अर्ध्य
सूर्य को अर्ध्य
देते तुम्हारे हाथ
पुष्प जल अर्पित कर
जोड़ लेते हैं अपने आपको
मानो अमूर्त ईश्वर से
रिश्ता जोड़ लिया हो
और मांगते हैं ,
सूर्य से उसका प्रकाश
जो प्रकाशित करदे
तन मन को |
बहुत सा प्रकाश
ढलक कर नहला देता है तुम्हे ,
एक आभा छा जाती है
तुम्हारे चेहरे पर
एक अमूर्त विश्वाश की ,
एक सुदूर ऊर्जामय
श्रधा का केंद्र बिंदु मानो ,
स्वयं मन में उतर आया हो l
3- प्यार की परिभाषावक्त की स्याही से
जिंदगी की कलम से लिखा
अपनी आँखों से
देखे कुछ सपने
भावना के अक्षर टांक दिए
वक्त के आँचल पे
अब सपनों को
तुम्हारी आँखों से देखता हूँ
अक्षर मिल कर शब्द
बन जाते हैं स्वयं
और शब्द इबारत गढ़ते हैं ,
इबारत स्वयं बोलती है ,
मन गूँज गूँज उठता है
वक्त के बीते क्षण
वापस यात्रा करते हुए
कहते जाते हैं
मेरे भविष्य की आशा
और मुझे ही ना मालूम सी
मेरे प्यार की ” परिभाषा “
४- भाव
जब स्मृतियों का जादूगर
वक्त की किताब के पन्ने
पलटता जाता है ,
भाव
कभी शब्द के
कभी स्पंदनों के
कभी आँख की नमी के रूप में
बह निकलते हैं
5- शक्ति
किसी बियाबान जंगल में
गंतव्य हीन इंसान से
उसकी प्रगति क्या पूछना l
जंगल की आग से
हिंसक जानवरों से
सप्रयास बचा जीवन ही
प्रगति का एकमात्र निशान
शेष रह जाता है
प्रगति पंथ के
आरम्भ व अंतिम पड़ाव
एक बिंदु पर
सिमट कर रह जाते हैं
एक साँसे ढोती ज़िन्दगी के रूप में ,
मुझे जंगल और
आज के समाज की सभ्यता
एक नज़र आती है
जहाँ नैतिकता का मूल्य नहीं
बस ताक़त
जो बेबस कमजोरों पर सार्थक हो
एक मात्र कानून है
6-मैं ही मैं हूँ
हो रही बारिश
घुल रहा है ताप जग का ,
छन कर आ रही है
मधु मालती की बेल से ,
कुछ सरल बूँदें
एक सिहरन सी उठी है ,
अभी मन में
पास में बैठा हुआ है
छुप के पत्तों में
एक पंछी l
गा रहां है
चूं-चूं, ची-ची,
कुछ
समझाना चाह रहा है
देर से
जो अब तक
समझ नहीं आया
उठ रही है भाप
चाय के कप से
चुस्कियां लेते हुए ,
लॉन में बैठे हुए
अशोक के पेड़ के नीचे
एकाकी जगत में ,
बस मैं ही मैं हूँ
बस मैं ही मैं हूँ
________________________
शरद कुमार सक्सेना
लेखक व् कवि
_____________________________
संपर्क -: मो. 08853896699 , 9305088570
___________________________________
ईमेल– : sharad.saxena.advocate@gmail.com
___________________________________________
Very nice. Sharad ji.