शालिनी खन्ना की पाँच रचनाएं
1-
स्वतंत्रता दिवस के मद मे होकर चूर
मै भागी जा रही थी
अपना देश स्वतंत्र है ,यह सोंच
बार-बार इतरा रही थी
आगे बढते ही मैने एक युवक को देखा
आंखों मे थे आंसू ,माथे पर चिंताओं की रेखा
मैने कहा ,आज तो स्वतंत्रता दिवस है
देश स्वतंत्र है ,फिर क्यों तू इतना विवश है
उसने कहा ,कैसी आजादी ,कैसी स्वतंत्रता
यहां तो हाड तोड मेहनत के बाद भी दो जून पेट नही भरता
चोरी डकैती करने मे संस्कार आडे आते हैं
ना करूं तो अपनो के दुख दर्द बहुत सताते हैं
दिन –ब –दिन महंगाई कितनी हो रही बडी है
और आपको स्वतंत्रता दिवस की पडी है
कुछ आगे बढी ,तो मिली एक किशोरी
आंसुओं से तर थी ,सूरत उसकी भोली
मेरे टोकते ही उसके आंसुओं का बान्ध टूटा
उसके अन्दर से कुछ दरककर फूटा
बोली ,किस किसकी नज़रों से खुद को बचाउं
कैसे वहशियों से अपना पीछा छुडाउं
आते- जाते हर कोई ,बिना बात घूरता है
जीते जी हर कोई शरीर की पोस्टमार्टम करता है
आपको ही मुबारक हो ये स्वतंत्रता दिवस
मै तो कल भी परतंत्र थी ,आज भी हूं विवश
आगे बढने पर देखा ,एक बच्चा चौराहे पर खडा था
उम्र थी बिल्कुल कच्ची ,पर अक्ल का बडा था
पेट पीठ दोनो एक दूसरे से मिले हुये थे
नैन बहुत कुछ कहते थे ,पर होठ सिले हुये थे
नाजुक सी उस उम्र मे बेच रहा था पतंग
देख उसे इस हाल मे ,हुआ मेरा मोह भंग
टोकते ही मेरे ,उसनेनिकाल दिया गुबार
तुम्हे ही हो मुबारक ,ये स्वदेश का प्यार
मन और पेट जब भरा हो तभी ये आज़ादी भाती है
वरना अपनो की बीमारी और भूख बहुत सताती है
देखकर देश के ये हालात ,मै हो रही थी शर्म से पानी-पानी
स्वतंत्रता दिवस की खुशियां ,तब लगने लगी थी बेमानी….
2-
मां…आज समझ पाई हूं तुम्हे..
मां…आज समझ पाई हूं तुम्हे ,
लेकिन तब ,
जब तुम इस दुनिया मे नही हो…
याद है मुझे आज भी ,
बचपन की वो सारी बातें…
मेरे लिये अक्सर नये कपडे ,
अपने हाथों से बनाना…
और उसे पहनाकर आत्मसंतुष्टि का भाव ,
तुम्हारे चेहरे पर आना…
मुझे सजाना-संवारना ,
और फिर मेरी तस्वीर को कैमरे मे कैद करना…
सब कुछ याद है मुझे ,
पर फिर भी न समझ पाई तुझे..
धीरे-धीरे मेरा बडा होना ,
और तब तुम्हारा रोकना-टोकना…
मै खीझ-सी जाती ,
पैर पटकते हुए कमरे मे बन्द हो जाती…
शब्दों के व्यंग्य वाण चलाती ,
‘भैया को तो तुम कुछ कहती नही ,
उसके पीछे तो हाथ धोकर पडती नही…’
कह-कहकर तेरा दिल जलाती..
अब सोंचती हूं उस वक़्त क्या सोंचती होगी तुम..
आज भी याद है मुझे ,
जब बाज़ार मे एक ड्रेस बहुत पसन्द आयी थी मुझे…
पर एक मां के नजरिए से ,
तुमने देखा था उसे…
अपनी किशोर बेटी के लिये वह खुली-सी ड्रेस,
समझ नही आई थी तुझे..
मना कर दिया था उसे खरीदने से
और इस पर खूब हंगामा किया था मैने…
कई दिनो तक तुमसे बात नही की थी ,
अब सोंचती हूं तुमपर क्या बीती होगी…
मां..सब याद है मुझे ,
कुछ भी भूली नही अब तक..
वो सहेलियों के साथ मेरा घुमने जाना ,
थोडी भी देर होने पर तुम्हारा घबराना…
और वापस आने पर मेरी अच्छी खबर लेना ,
तब मेरी व्यर्थ की दलीलें देना ,
’अब ज़माना बदल चुका है मां..’
पर सच तो यह है कि आज भी ज़माना वही है,
बिल्कुल नही बदला है,
आज भी इंसान के रूप मे ,
वहशी दरिन्दे समाज मे फैले हैं..
और एक मां होने के नाते ,
इन सब बातों का ध्यान है मुझे…
तब नही समझ पाई थी तुझे ,
पर आज समझ पाई हूं ,
तब, जब मेरी बिटिया बडी हो रही है..
मां…आज समझ पाई हूं तुम्हे ,
लेकिन तब ,
जब तुम इस दुनिया मे नही हो…
3-
बहुत कुछ तुमसे था कहना ,
बहुत कुछ तुमसे था सुनना..
वो इंतज़ार का एक-एक पल ,
जब हुए थे मेरे नैन सजल..
अब आओगे , तब आओगे ,
हर आहट पर ऐसा लगता था..
आशंका से मन तब घबराता,
जब बायां नयन फडकता था..
जब यादों मे तुम आते थे ,
सच कितना मुझे रुलाते थे..
घबराकर नींद से जग जाती ,
सपनो मे जब मुझे बुलाते थे..
वो पल-पल का था घबराना ,
वो पल-पल का था शरमाना..
उन यादों का ही था वो असर ,
पागलों की तरह बस मुस्काना..
जब मिलन की बेला आयी है,
विरह का हो फिर जिक्र क्यूं..
अवसान न हो जाये समय का ,
हो बीती बातों की फिक्र क्यूं…
सुखद अहसास होता मिलन का ,
पर विरह के बिना सम्पूर्ण कहां ,
विरह-मिलन के ही पलडों पर ,
संतुलित है ये सारा जहां..
4-
यह दौडता-भागता शहर
यह दौडता-भागता शहर भरमाया-सा लगता है ,
अपनापन कहां ढूंढूं यहां , यह तो पराया-सा लगता है।
कोई कोई भूखा मरे या लुट जाए , किसी को यहां खयाल कहां,
कोई कोई जिंदा जले या डूब मरे , किसी के पास सवाल कहां?
सभी सब अपने-अपने में हैं मस्त , जग पगलाया-सा लगता है,
अपनापन कहां ढूंढूं यहां , यह तो पराया-सा लगता है।
यहां चोरी है , बेईमानी भी , झूठ का बोलबाला है ,
हर दफ्तर में रिश्वतखोरी , मंत्रालय में घोटाला है।
सच्चाई पर उठते सवाल, मन शरमाया-सा लगता है,
अपनापन कहां ढूंढूं यहां , यह तो पराया-सा लगता है।
अपने अपनो की टांग खींच रहे , ये आज के मानव हैं,
हर दिन हत्याएं ,बलात्कार , दिख रहे आज दानव हैं।
चैन करार अब मिले कहां , मन घबराया-सा लगता है ,
अपना पन कहां ढूंढूं यहां, यह तो पराया-सा लगता है।
5-
आदर्शवादी सास की बहू
‘’टी.वी.,फ्रीज़ ,वाशिंग मशीन ,स्कूटर ,
क्या करुंगी ये सब लेकर….
बस एक अच्छी-सी बहू चाहिए
और भला मुझे क्या चाहिए…
ऐसी बहू जो हर वक़्त करती रहे बडों की सेवा.
और कभी उम्मीद ना करे कि मिले किसी से मेवा’’
बोली मां….सम्पन्न घराने मे बेटे का विवाह तय कर ,
और फिर चल दी..मित्र मंडली मे अपनी आदर्शवादिता की छाप छोडकर…
पर दिल में काफी इच्छाएं थी ,काफी अरमान थे ,
हर समय सपने मे बहू के दहेज़ मे मिले ढेर सारे सामान थे .
और जब बहू घर आई ,उनकी खुशी का ठिकाना न था
हर चीज़ साथ लेकर आई थी ,उसके पास कौन सा खज़ाना न था .
हर तरफ़ दहेज़ का सामान फैला पडा था ,
पर सास का ध्यान कहीं और अडा था .
बहू ने बगल मे जो पोटली दबा रखी थी ,
इस कारण उनकी निगाह इधर-उधर नहीं हो पा रही थी .
न जाने क्या हो इसमे ,सोंच-सोंचकर परेशान थी ,
बहू ने अबतक बताया नहीं ,यह सोंचकर हैरान थी .
’’हो सकता है सुन्दर चन्द्रहार ,जो हो मां का विशेष उपहार ,
या हो कोई पर्सनल चीज़ ,या फिर किसी महंगी कार
के एडवांस पैसे ,शायद मां ने दिए हो इसे ,
पर खुद से अलग नहीं करती ,इसमे अटके हो प्राण जैसे ‘’
काफी देर तक सास अपना दिमाग दौडाती रही ,
और मन ही मन बडबडाती रही ,
’’कैसी बहू है ,जो सास से भी घुल-मिल नही पा रही ,
अपनी पोटली थमाकर बाथरूम तक नही जा रही .’’
अब हो रही थी बर्दास्त से बाहर ,
जी चाहता है ,दे दूं इसे ज़हर .
समझ मे नही आता मैं क्या करूं ,
कैसे इस दुल्हन के अन्दर अपना प्यार भरूं ‘’
बहुत हिम्मत कर करीब जाकर प्यार से बोली
बहू के समक्ष बहुत मीठे स्वर मे अपनी बात खोली ,
’’इसमे क्या है , मेरी राजदुलारी ,
इसे दबाए-दबाए तो थक जाओगी प्यारी .’’
बहू भी काफी शांत एवं गम्भीर स्वर मे बोली
आदर्शवादी सास के समक्ष पहली बार अपना मुह खोली .
’’सुना है ,ससुराल वाले दहेज़ के लिये सताते हैं .
ये लाओ ,वो लाओ मायके से ,यह हमेशा बताते हैं .
जो मेरे साथ ऐसा बर्ताव करने की कोशिश करेगा ,
वही मुझसे यह खास सबक लेगा..
उसके सामने मैं अपनी यह पोटली खोलूंगी
और इसमे रखे मूंग को उसकी छाती पर दलूंगी .’’
—————————————————
परिचय :
शालिनी खन्ना
कवियत्री एवं गत्यात्मक ज्योतिष विशेषज्ञा
निवास : – झरिया ,धनबाद ,झारखण्ड
सम्पर्क – 09470385527
——–
_____