– जावेद अनीस –
कहने को तो हम अपने आपको अभी तक के मानव इतिहास का सबसे सभ्य और विकसित समाज मानते है लेकिन दुनिया के एक बड़े हिस्से में हम अक्सर मानवता को शर्मशार कर देने वाली ऐसी छवियाँ देखते हैं जिस्में बच्चे अपने मासूम हाथों में बन्दूक, मशीनगन,बम जैसे विनाशक हथियारों को उठाये हुए बड़ो कि लड़ाईयों को अंजाम दे रहे हैं। विश्व के कई देशों में चल रहे आंतरिक उग्रवाद, हिंसक आंदोलोन, आतंकवाद गतिविधियों में बड़े पैमाने पर बच्चों का इस्तेमाल किया जा रहा है इनमें से ज़्यादातर को जबरदस्ती लड़ाई में झोंका जाता है। बड़ों द्वारा रचे गये इस खूनी खेल में बच्चों को एक मोहरे के तौर पर शामिल किया जाता है जिससे इस तरह के संगठन अपनी कारनामों को आसानी से अंजाम दे सकें। दूसरा मकसद शायद आने वाली पीढ़ी को अपने लक्ष्य के लिए तैयार करना भी होता है,एक अनुमान के मुताबिक आज पूरी दुनिया में लगभग 2,50,000 बच्चों का इस्तेमाल विभिन्न सशस्त्र संघर्षों में हो रहा है। इनमें से भी करीब एक तिहाई संख्या लड़कियों की है ।दुनिया के जिन राष्ट्रों में यह काम प्रमुखता से हो रहा है उसमें उनमें, आफगानिस्तान, सीरिया, अंगोला, लोकतांत्रिक गणराज्य कांगो, इराक, इजराइल,पिफलीस्तीन, सोमलिया, सूडान, रंवाडा, इंडोनेशिया, म्यामांर, भारत, नेपाल, श्रीलंका, लाइबेरिया, थाईलैंड और पिफलीपिंस जैसे देश शामिल हैं।
सशस्त्र संघर्षों में इस्तेमाल किये जा रहे बच्चों का जीवन बहुत ही खतरनाक और कठिन परिस्थितियों में बीतात है, यहाँ वे लगातार हिंसा के के साए में रहते हैं और उन्हें हर समय गोली या बम के शिकार होने का खतरा बना रहता है । उनका जीवन बहुत कम होता है और वे छोटी उम्र में ही कई तरह की शारीरिक व मानसिक बीमारियों का के भेंट चढ़ जाते हैं। उनका लगातार यौन शोषण होता है और कई बच्चे एच.आई.वी. एड्स का शिकार भी हो जाते हैं । यह सब कुछ दुनिया की सबसे बड़ी पंचायत संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा बच्चों को दिये गये अधिकार के हनन की पराकाष्ठा है।ऐसा नहीं है दुनिया ने इसपर ध्यान ना दिया हो 12 फरवरी 2002 को संयुक्त राष्ट्र बाल-अधिकार कन्वेंशन में एक अतिरिक्त प्रोटोकोल जोड़ा गया था, जो सशस्त्र संघर्षों में नाबालिग बच्चों के सैनिकों के तौर पर उपयोग पर प्रतिबंध लगाता है, इसके बावजूद अभी भी नाबालिग बच्चों का सशस्त्र संघर्षों में भर्ती जारी है, बच्चों के सैनिक उपयोग की निंदा और इसके अंत के लिए हर साल 12 फरवरी को पूरी दुनिया में में रेड हैंड डे नाम से एक विशेष दिन मनाया जाता है। इस आयोजन का मकसद मकसद दुनियाभर में कहीं भी हो रहे बच्चों को सशस्त्र संघर्ष में शामिल करने का विरोध जताना है।
यह एक ऐसा चलन है जो बच्चों के साथ सबसे क्रूरतम व्यवहार करता है, इसकी गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दुनिया के कई देश अपनी राष्ट्रीय सेनाओं में भी बच्चों का इस्तेमाल कर रहे हैं. ह्यूमन राइट्स वॉच ने 2010 में रिपोर्ट जारी की थी जिसके अनुसार म्यंमार की सरकारी सेना और सरकार विरोधी संगठनों के हथियारबंद दस्तों में 77 हज़ार बाल सैनिक काम कर रहे थे। श्रीलंका के तमिल टाईगर्स पर भी इस तरह के आरोप थे, तालिबान पर भी यह आरोप लगते रहे हैं कि वह अपने अपने कथित जिहाद में बच्चों का इस्तेमाल करतारहा है, और इसकी शुरुआत सोवियत-अफगान लड़ाई से हो गयी थी ,अफगान सेना के पूर्व कमांडर जनरल अतिकुल्लाह मरखेल ने कुछ वर्षों पहले बताया था कि “सोवियत संघ के साथ युद्ध में किशोरों और युवाओं को जबरदस्ती सेना में भर्ती कर उन्हें युद्ध के लिए धकेला गया था. तब उन्हें जिहाद के नाम पर तैयार किया जाता था.” और यह कारनामा अपने आप को मानव अधिकारों का सबसे बड़ा दरोगा धोषित करने वाले मुल्क संयुक्त राज्य अमरीका के संरक्षण में अंजाम दिया गया था। वर्तमान में अतिवादी संगठन बोको हराम और आईएस जैसे संगठन बच्चों का अपहरण करने उनकी हत्या करने ,स्कूलों और अस्पतालों पर हमले करने के के साथ-साथ उनका अपने आतंकवादी गतिविधियों में उपयोग को लेकर कुख्यात है. पिछले कुछ दशकों से आत्मघाती हमलों में बच्चों और युवाओं की संलिप्ता बढ़ी है, गरीबी की मजबूरी और जन्नत के लालच में बच्चे और युवा जिहादी संगठनों चंगुल में फंस कर आत्मघाती हमलावर बनने के लिए तैयार हो जाते हैं। भारत के सन्दर्भ में बात करें तो संयुक्त राष्ट्र भारत में माओवादियों द्वारा बच्चों की भर्ती करने और मानव ढाल के तौर पर उनका इस्तेमाल करने को लेकर चिंता जाहिर कर चूका है । भारत के पूर्वतर राज्यों में भी सशस्त्र समूहों द्वारा बच्चों के इस्तेमाल की खबरें आती रही हैं। पिछले दिनों हिंदू स्वाभिमान संगठन द्वारादिल्ली से सटे पश्चिमी उत्तरप्रदेश के इलाकों में इस्लामिक स्टेट से निपटने के नाम पर युवाओं और बच्चों की “धर्म सेना’ गठित कर उन्हें पारंपरिक हथियारों के प्रशिक्षण देने की खबर सामने आई थी।
सशस्त्र संघर्षों में लगाए गये बच्चों पर दोतरफा मार पड़ती है, हर देश का कानून बच्चों की हथियारबंद संघर्षों में भर्ती और उनके इस्तेमाल को एक अपराध तो मानता ही हैं साथ ही साथ इन बच्चों को भी उसी नजर से देखता है। ऐसे में कई बार यह भी देखने को मिला है कि सरकारें सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार बच्चों को वयस्कों के साथ हिरासत में रखती है और उनके खिलाफ किशोर न्याय तंत्र के तहत मामला नहीं चलाया जाता है जो कि एक तरह से उनके अधिकारों का उल्लंघन है ।
यूनिसेफ़ के अनुसार 2015 में एक करोड़ साठ लाख से अधिक बच्चे युद्ध क्षेत्रों में पैदा हुए हैं और दुनियाभर में पैदा होने वाले हर आठ बच्चों में से एक बच्चा ऐसे क्षेत्रों में पैदा हो रहा है जहां हालात सामान्य नहीं हैं. इन युद्ध क्षेत्र में पैदा हो रहे बच्चों की दयनीय स्थिति का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है, युद्ध और हथियारबंद संघर्ष वाले स्थानों पर बच्चे सबसे ज्यादा विपरीत परस्थितियों में रहने को मजबूर होते हैं, उनका भविष्य अनिश्चित होता है, ऐसे इलाकों में सशस्त्र गुट बच्चों को लड़ाई के तरीक़े सिखाकर उन्हें अपने खुनी संघर्ष में शामिल करते हैं ।
अगर हम बच्चों की सुरक्षा को लेकर गंभीर हैं तो हर साल बच्चों को लड़ाकों के तौर पर इस्तेमाल करने का विरोध करने के लिए अन्तरराष्ट्रीय दिवस मानाने के साथ-साथ दुनिया के सभी मुल्कों को एकजुट होकर बच्चों को लड़ाई में झोंककर मानवाधिकारों का उल्लंघन करने के इस चलन को रोकने के लिए ठोस कदम भी उठाने होंगें. बच्चों को इस क्रूर दुनिया से बहार निकलने के लिए जवाबदेही तय करना इसके लिए पहला कदम हो सकता है।
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जावेद अनीस
लेखक ,रिसर्चस्कालर ,सामाजिक कार्यकर्ता
लेखक रिसर्चस्कालर और सामाजिक कार्यकर्ता हैं, रिसर्चस्कालर वे मदरसा आधुनिकरण पर काम कर रहे , उन्होंने अपनी पढाई दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया से पूरी की है पिछले सात सालों से विभिन्न सामाजिक संगठनों के साथ जुड़ कर बच्चों, अल्पसंख्यकों शहरी गरीबों और और सामाजिक सौहार्द के मुद्दों पर काम कर रहे हैं, विकास और सामाजिक मुद्दों पर कई रिसर्च कर चुके हैं, और वर्तमान में भी यह सिलसिला जारी है !
जावेद नियमित रूप से सामाजिक , राजनैतिक और विकास मुद्दों पर विभन्न समाचारपत्रों , पत्रिकाओं, ब्लॉग और वेबसाइट में स्तंभकार के रूप में लेखन भी करते हैं !
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