– शालिनी तिवारी –
अल्लाह ( अलइलअह ), यदि हम इसका विश्लेषण करें तो पाएगें कि अ- आब यानी पानी, ल- लब यानी भूमि, इ- इला यानी दिव्य पदार्थ अर्थात् वायु, अ- आसमान यानी गगन, ह- हरक यानी अग्नि. ठीक इसी तरह भगवान भी पंचमहाभूतों का समुच्चय है, भ- भूमि यानी पृथ्वी, ग- गगन यानी आकाश, व- वायु यानी हवा, अ- अग्नि यानी आग और न- नीर यानी जल. यह बिल्कुल सच है कि अल्लाह या भगवान ही इन पंचमहाभूतों का महान कारक है, जिससे समूचा ब्रह्माण्ड़ गतिमान है. हम सब एक दूसरे के पूरक घटक बनकर आपस में जुड़े हैं. यदि इन पंचमहाभूतों का संतुलन बिगड़ जाता है तो हमारे अन्दर भिन्न- भिन्न प्रकार का विकार उत्पन्न होने लग जाते हैं.
बड़े आश्चर्य की बात है कि आज का आधुनिक समाज, जिससे वह बना है उसी को नही जानता है. शायद मेरी इस बात पर आपको यकीन नहीं हो रहा होगा. इस बात की आप स्वयं ख़बर ले सकते हैं. बड़े बड़े स्कूलों और अंग्रेजी माध्यम में पढ़ रहे नवयुगलों से जरा पूछिए, आपको अपने आप ख़बर हो जाएगी. भारतीयता से दूर हटनें का नतीज़ा यही हो रहा है कि हम अपने मूल को ही भूलते चले जा रहें हैं. वह भारतीय संस्कृति ही थी, जो हमें आत्मकेन्द्रियता नहीं, वरन समग्रता का पथिक बनाती थी. परन्तु अन्धी भौतिकता की क्षणिक लोलुपता में हमने अपने आदर्श को ही ठुकरा दिया. आप स्वयं जवाब दीजिए, गर हम अपने मूल को ही नही जानते तो स्वयं को कितना जानते होंगे …..?
भारतीय दर्शन, सांख्य दर्शन एवं योगशास्त्र के मुताबिक पंचमहाभूतों को सभी पदार्थों का मूल माना गया है. पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु इन पंचतत्व से ही सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ बना है. आमतौर पर हम लोग इसे क्षिति-जल-पावक-गगन-समीरा कहते हैं. इतना ही नहीं, हिन्दू विचारधारा के समान ही यूनानी, जापानी और बौद्ध मतों ने भी पंचतत्व को महत्वपूर्ण माना है. समूचा ज्योतिष शास्त्र भी इसी पर टिका है, गर इन पंचतत्वों में एक का भी संतुलन बिगड़ जाता है तो हमारा दैनिक जीवन भी प्रभावित नज़र आता है. परन्तु आजकल हम लोग रोग के जड़ को खत्म करने के बजाय रोग को खत्म करना चाहते हैं. यही वजह है कि आजकल अधिकतर व्यक्ति एक बिमारी से निजात पाते ही दूसरी बिमारी से ग्रसित हो जाता है.
पृथ्वी मेरी माता, आकाश मेरा पिता, वायु मेरा भाई, अग्नि मेरी बहन, जल निकट सम्बंधी है. परन्तु आज आलम यह है कि हम इन पंच परिवार को अपना मानकर संरक्षण नहीं कर रहें हैं, नतीज़न ये पाँचों दिन-ब-दिन हमसे रूठते नज़र आ रहे हैं. ये पाँचों स्वंय बिमार भी हैं और तन्हा होकर अपनें वजूद की लड़ाई लड़ रहें हैं. हमनें अपने निजी स्वार्थ के लिए बिना विचार किए अपने मन मुताबिक बिल्ड़िंग बनाए, कारखानें लगाए, रोड़ पसारे , नदियों का पानी रोके, वृक्ष काटे और स्वयं को ही सर्वोंसर्वा मानकर इनका हर सम्भव तरीके से दोहन किए. कभी ये तो सोचा ही नहीं कि अब तक हमने इन पंचमहाभूतों को क्या दिया, जो इनसे मैं लेने जा रहा हूँ. खैर कुछ लोगों की बात भी बिल्कुल जायज़ है कि इनको समझनें के लिए कोई कोर्स तो होता नहीं है तो फिर हम इनको समझें ही कैसे ? जी हाँ, यकीनन आपको लगता होगा कि आपकी बात बिल्कुल ठीक है परन्तु जब समझने का मौका मिला था तो वह आप ही तो थे, जो हमारी अतुलनीय पावन भारतीय सांस्कृति का मज़ाक उड़ाकर पाश्चात्य सांस्कृति को अपनाने में तनिक भी देर नहीं लगाए थे, आपने अपने नव निहालों को भारतीय परम्परा वाले विद्यालय में शिक्षा हेतु न भेजकर शहर के बड़े कान्वेंट और अग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में भेजा था, जो सरेआम हमारे भारतीय संस्कार और सांस्कृति की धज्जियाँ उड़ातें हैं. फिर आज आप क्यूँ कहते हो कि क्या ज़माना आ गया है कि विद्यालयों में आधुनिक शिक्षा के साथ साथ नैतिक शिक्षा नहीं दी जा रही है ?
एक बात बिल्कुल साफ है कि समूची सृष्टि के जड़- चेतन इन्हीं पंचमहाभूतों से बनते हैं और अन्ततः इन्हीं में समाहित भी हो जातें हैं. गर हम अपने वैदिक या स्वर्ण भारत की बात करें तो हमें जन्म से ही इन पंचमहाभूतों के साथ सम्बंध स्थापित करना बताया जाता था. पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि, वायु इन सबको हम अपना मानकर इन पूजन, वंदन और संरक्षण करते थे. इतना ही नहीं, समाज का लगभग प्रत्येक व्यक्ति पंचतत्व के लिए अपना हर सम्भव योगदान देता ही था. क्योकि आज की तरह वह आधुनिक उपकरणों पर आश्रित न होकर पंचमहाभूतों पर ही पूर्णरूपेण आश्रित था.
पंचमहाभूत को वैदिक परिभाषा में वाक् कहते हैं. क्योकि इनमें सूक्ष्मतम भूत ‘आकाश’ है, उसका गुण शब्द या वाक् है. यह सूक्ष्म भूत ‘आकाश’ ही सब अन्य भूतों में अनुस्यूत होता है. इसलिए वाक् को ही पंचमहाभूत कहा जाता है. आपने सुना ही होगा कि नैनीताल हाईकोर्ट ने गंगा नदी को देश की पहली जीवित इकाई के रूप में मान्यता दी और गंगा और यमुना को जीवित मनुष्य के समान अधिकार देनें का फैसला किया. भारत ही नहीं, अपितु न्यूजीलैण्ड़ ने भी अपनी वागानुई नदी को एक जीवित संस्था के रूप में मान्यता दी थी. खैर यह कोई नई बात नहीं है, हमारा वेद सदियों पहले से ही पंचमहाभूत को जीवंत मानता आया है. इसके हजारों प्रमाण आपको मिलेगें. ऋग्वेद का एक श्लोक – ‘ इमं मे गंगे यमुने सरस्वती….’ हे गंगा, यमुना, सरस्वती मेरी प्रार्थना सुनों. यानी नदियों को जीवित मानकर हमारे वेदों में प्रार्थना की गई है. यह बिल्कुल सच है कि सनातन धर्मियों ने प्रकृति और मनुष्य के बीच कभी भेदभाव नहीं माना, क्योकि दोनों सजीव हैं.
दौर इस कदर बदला कि हम अधिकतर नवयुवक अपनें वैदिक, पौराणिक वैज्ञानिक तथ्यों को स्वीकार करने में तौहीनी महशूस करने लगे. इतना ही नहीं, प्रत्येक विषय पर अपने व्यक्तिगत मत को थोपनें और आधुनिक फूहड़पन को अपनाने में फक्र महशूस करने लगे. मुझे इससे कोई गुरेज नहीं है कि आप आधुनिकता को न स्वीकारें या फिर अपने व्यक्तिगत मत न व्यक्त करें. बसर्ते आपको यह ज्ञात होना चाहिए कि अध्यात्म एक सुपर विज्ञान है और यह भी शोध और सिद्धान्तों पर टिका है, हाँ यह बात जरूर है कि यह आम लोगों की समझ से थोड़ा परे है. अध्यात्म विज्ञान यानी वेद ही आधुनिक विज्ञान का जन्मदाता है. जिन विषयों पर आज शोध किया जा रहा है, अध्यात्म विज्ञान सदियों पहले उन पर शोध करके प्रयोग भी कर चुका है. इसके एक दो नहीं असंख्य प्रमाण एवं दर्शन हैं. अध्यात्म विज्ञान ने भी पंचमहाभूत को ही जड़-चेतन का मूल माना है.
यकीनन हम यह कह सकते हैं कि यह आधुनिक विज्ञान का ही ख़ामियाजा है कि हम जिससे बनें हैं, आज उसी से दूर होते जा रहें हैं. परिणाम भी सामने है, बाढ़, सुखाड़, प्रदूषण एवं कई अन्य प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं से आए दिन हम सब प्रभावित हो रहें हैं. क्योंकि पंचमहाभूत को संजोयें भारतीय अध्यात्म विज्ञान को हमनें सिरे से नकार दिया. अब आए दिन इन्ही पंचमहाभूतों के प्रबन्धन, संरक्षण के लिए सरकार तरह तरह की नीतियाँ एवं जागरूकता अभियान चला रही है. आज हम सबके दिमाक में सबसे बड़ी गलतफहमी यह है कि हम समझते हैं कि विज्ञान प्रत्येक विषय का हल ढ़ूढ़ सकता है. बात कुछ हद तक जायज है , लेकिन यह तभी सम्भव है, जब हम सबके बीच पंचमहाभूतों की समुचित उपस्थिति रहेगी.
आप इस बात को अच्छी तरह से गठिया लीजिए, पंचमहाभूत विज्ञान नहीं, वरन संस्कार का विषय हैं. हमारे संस्कार ही इनको संरक्षित एवं संचित कर सकते हैं. बसर्ते जरूरत यह है कि हमारे नवनिहालों को प्रारम्भिक स्तर से ही वास्तविकता को मद्देनजर रखकर शिक्षित किया जाए और आधुनिकता के साथ साथ एक नैतिकता का भी पाठ पढ़ाया जाए. ताकि वो समग्रता की सोच से एक समृद्ध राष्ट्र का निर्माण कर सकें.
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शालिनी तिवारी
लेखिका व् कवयित्री
“अन्तू, प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश की निवासिनी शालिनी तिवारी स्वतंत्र लेखिका हैं । पानी, प्रकृति एवं समसामयिक मसलों पर स्वतंत्र लेखन के साथ साथ वर्षो से मूल्यपरक शिक्षा हेतु विशेष अभियान का संचालन भी करती है । लेखिका द्वारा समाज के अन्तिम जन के बेहतरीकरण एवं जन जागरूकता के लिए हर सम्भव प्रयास सतत् जारी है ।
सम्पर्क :shalinitiwari1129@gmail.com
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