-डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी –
हे बुद्धि श्रमिकों- मुझे तुम पर दया आती है। बेवजह ही तुम अहं के शिकार हो गये हो। मेरी नजर में तुम स्वयं कुछ नहीं हो, अपितु एक धनाढ्य के हाथों की कठपुतलियाँ हो। वह जितना चाहेगा उतना ही काम तुम्हें करना होगा। चूँकि तुम्हारी बुद्धि का शोषण करके वह एक ऐसी धनराशि पगार के रूप में तुम्हारे हाथों पर रखता है जिसको पाकर तुम संतुष्ट हो जाते हो। हे बुद्धि श्रमिकों- अपने को समाचार सम्पादक, उपसम्पादक, सहायक सम्पादक या फिर समूह सम्पादक कहलवाने से तुम्हें क्या मिलता है…….? यही प्रति माह की सैलरी में 100/200 रूपए का अन्तर? वास्तविकता यह है कि तुम सभी तथा कथित पदाधिकारी हो- तुम तो एक बुद्धि श्रमिक हो जिसकी बुद्धि का सर्वस्व निचोड़कर पैसे वाले मालिकान हाथों पर चन्द पैसे रख और रूतबेदार पदनाम से सम्बोधित करके तुम्हारा भाव इतना बढ़ा देते हैं कि तुम वास्तविकता को भूल जाते हो।
हे बुद्धि श्रमिकों मुझे तो तुम ठीक उन श्रमिकों जैसे ही लगने लगे हो जो बड़े-बड़े शहरों में जाकर मिल कारखानों में मेहनत मशक्कत वाला काम करके घर-परिवार संचालन हेतु कुछ पैसे कमाया करते हैं। अन्तर बस इतना है कि वह अशिक्षित-अल्पशिक्षित होते हैं और तुम सुशिक्षित प्रशिक्षित आदि……..आदि हो। हे बुद्धि श्रमिकों झूठ/फरेब से अपने को दूर रखो यह सब ‘अल्पकालिक’ होते हैं। स्थायित्व लावो और अपने से सीनियर्स से वार्ता करते समय इस बात का अवश्य ध्यान दो कि जिस कालेज के तुम स्टूडेण्ट हो उसमें वह डीन रह चुका है। हमारे यहाँ की देहाती कहावत है कि नानी के आगे ननिहाल की बातें करना बेमानी ही होगी?
हे बुद्धि श्रमिकों- धन्ना सेठां के यहाँ जमीर बेंचकर अपने को औरों के आगे कुछ इस तरह मत प्रदर्शित करो कि तुम बहुत बड़े ‘ओहदेदार’ हो? क्यों भूल जाते हैं कि जिस ओहदे पर विराजमान हो उसको पाने की एवज में तुम्हें जमीर बेंचने जैसी कीमत चुकानी पड़ी है। तुम तो बस एक रिमोट चालित मानव हो जिसकी बटन धन्नासेठों के हाथों में है। हे बुद्धि श्रमिकों! पैसा कमाना है तो स्वावलम्बी बनो। परावलम्बन से प्रतिभा का निखार नहीं हो पाता है। इससे मुक्ति पावो। अपने अन्दर दृढ़ इच्छा शक्ति पैदा करो और प्रतिष्ठत बनकर जीवन जीने का प्रयास करो। अपने को परावलम्बन जैसी दास्ता से मुक्ति दिलावो। घर-परिवार से सैकड़ो/हजारों कि.मी. दूर जाकर तुम पेट पालने के लिए बुद्धि श्रमिक बन बैठे हो।
हे बुद्धि श्रमिकों! तुम सम्पादक हो विशेष संवाददाता हो- यह तुम्हारे लिए गर्व की बात अवश्य हो सकती है, लेकिन यह मत भूलो कि चन्द पैसों की एवज में तुम अपनी बुद्धि का कितना शोषण करा रहे हो। ऐसे में तुम मुझसे ही प्रश्न करते हो कि तब क्या किया जाए? तो सुनो मेरा उत्तर होगा वह कार्य जिसमें तुम्हें सुकून मिले/अपना और परिवार का पेट भरने के लिए कम पूँजी के ऐसे धन्धे हैं जिसको अपनाने से तुम काफी आनन्द में रहोगे। वर्षों पहले की बात याद आ गई। मेरे एक पड़ोसी थे- सीनियर थे। वह कहा कहते थे कि ‘‘वर्क लाइक हार्स एण्ड टेक लाइक किंग’’- मतलब यह कि जब तक काम करो तो घोड़े की तरह और भोजन करो तो राजा की तरह। वह समझाते भी थे कि काम कोई भी हो यदि लगन-निष्ठा से किया जाए तो अपेक्षित फलदायी होता है। बस एक दुर्गुण को अपने व्यक्तित्व में से निकालने जरूरी है- वह है ‘‘हीन-भाव’’।
हे बुद्धिश्रमिकों तुम सम्पादक बनकर तथाकथित श्रेष्ठजन तो बन गए हो परन्तु यह मत भूलो कि तुम्हारे अन्दर का हीन भाव तुम पर अपना बर्चस्व कायम किए है। जी हाँ यह हीनभाव ही तो है कि आप उसी पदनाम से सम्बोधित किए जा रहे हो जो आप नहीं हो अथवा जिसके योग्य नहीं हो। मैं तो कहता हूँ कि तुम अपने सेवा प्रदाता से श्रेष्ठ हो। छोड़ दो उसकी झूठी प्रशंसा तथाकथित पदनाम और खैरात स्वरूप प्रतिमाह की सैलरी माहवारी/वेतन का लेना। हे बुद्धि श्रमिकों- मैं वर्षों पूर्व से आज तक देखता आ रहा हूँ कि तुम्हारे जैसे ओहदेदार सामने वाले की भारी जेब से पैसे निकालने की फिराक में ही रहते हैं। ऐसा करने वालों के प्रति सहज ही अन्दाजा लगाया जा सकता है कि उनका सेवा प्रदाता उन्हें कितना पारिश्रमिक देता होगा? यदि पर्याप्त होता तब तुम हर किसी से ही खाने-पीने की चाहत रखते……..। खबरों आलेखों के प्रकाशन में हीला-हवाली, पीड़ितों की समस्याओं, सत्य घटनाओं से मुँह मोड़ना- इस तरह की आदतों का परित्याग करो…….।
हे बुद्धि श्रमिकों (पत्रकारों) मैं जानता हूँ कि तुम ईमानदार बनकर भूखों मरना नहीं चाहते। वैसे तुम कोई कार्य ऐसा नहीं कर रहे हो जो नया हो………। लोग करते आए हैं, उनका अनुकरण करके तुम भी जीविकोपार्जन कर रहे हो। मुझे मालूम है कि तुम्हारे अन्दर का हीन भाव नहीं निकल सकता और जिस दिन इस रोग से तुम मुक्ति पा जावोगे तब तुम भी मेरी तरह ठेले पर चाय व जलपान का छोटा व्यवसाय करके एक सर्वथा स्वतंत्र जीवन जीने लगोगे………..।।।
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