– अरुण तिवारी –
बीती दो फरवरी, 2016 को पूरे दस साल का हो गया अपना महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम
(मनरेगा)। इन दस वर्षों में 3.13 लाख करोङ का खर्च, करोङों श्रमिक दिवसों का सृजन और भ्रष्टाचार की शिकायतें मनरेगा का एक पहलू है तथा इस खर्च के कारण अनुसूचित जाति और जनजाति के श्रमिकों की संख्या में क्रमशः 20 और 17 फीसद की वृद्धि दूसरा पहलू। तीसरा पहलू यह है कि मनरेगा के तहत् 65 फीसदी से ज्यादा काम कृषि और
कृषि से जुङी गतिविधियों के रूप में हुआ। पांचवां पहलू राजनैतिक है, सो दिलचस्प भी है; तद्नुसार, एक वर्ष पूर्व प्रधानमंत्री श्री मोदी ने जिस मनरेगा को कांग्रेस की विफलता का स्मारक बताते हुए लानत-मलानत की थी, उन्ही प्रधानमंत्री जी की सरकार वाया मनरेगा आज अपनी पीठ ठोक रही है। छठा पहलू, सबसे महत्वपूर्ण और सामाजिक विन्यास में बदलाव से जुङा है। इसे आप दूसरे पहलू का प्रभाव भी कह सकते हैं। इस लेख में हम इसी छठे पहलू का विश्लेषण करेंगे; क्यांेकि इस पहलू के सामने मनरेगा का दस साला सफरनामा छोटा मालूम होता है और अन्य प्रभाव, मामूली।
कल्पना कीजिए कि क्या कभी महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के रचनाकारों ने सोचा होगा कि वर्ष 2006 में बंदरापल्ली गांव से हुई शुरुआत एक दिन सामाजिक वर्ग क्रंाति का सूत्रधार बन जायेगी ? एक अधिनियम किसी की हाथ की लकीरंे बदल सकता है; पूरे सामाजिक विन्यास को उलट सकता है; यह सच… सोच से परे हो सकता है। किसने सोचा था कि मनरेगा के आने से शहरों में मजदूरी बढ़ेगी और मनरेगा में मिली रोजगार की गारंटी, खेतों में मजदूर मिलने की गारंटी छीन लेगी ? हालंाकि भारत सरकार आज भी इसे महज एक भ्रामक तथ्य बता रही है और संप्रग सरकार में ग्रामीण विकास मंत्री रहे जयराम रमेश ने भी यही कहा, किंतु बदलता परिदृश्य यही है; खासकर उन इलाकों का, जहां खेती के लिए अभी पानी का कोई संकट नहीं है। मनरेगा के भ्रष्टाचार ने अंतिम जन को भी भ्रष्ट बनाया है। यह कटु सच है, लेकिन उससे भी बङा सकरात्मक सच यही है कि इस कानून ने अंतिम जन के पक्ष में सकरात्मक सामाजिक-आर्थिक प्रभाव दिखाने शुरु कर दिए हैं। गंावों का समाज बदलने लगा है; खासकर अंतिम जन। भूदान आंदोलन जो नहीं कर सका, वह बिना भूदान ही मनरेगा कर दिखायेगा; यह मनरेगा का सच है और आने वाले समय का भी। पूछिए कि कैसे ?
अपनी शर्तों पर श्रम का सूत्रधार
देखिए, खेतों में मजदूर नहीं मिलने का मतलब यह कतई नहीं कि भारत के खेत अब बिना बोये-काटे रह जायेंगे। इसका मतलब यह है कि जो श्रमिक वर्ग अब तक मजदूर बनकर खेतों में काम करता था, वह अब हिस्सेदार व किरायेदार बनकर खेती करना चाहता है। मनरेगा में भले ही वह अभी अपनी शर्तों पर काम न पाता हो, लेकिन खेत मालिक की शर्तों पर काम करने की बजाय, वह अब अपनी शर्तों पर और अपनी मनमाफिक खेती करना चाहता है। इसमें वह सफल भी हो रहा है; क्योंकि भूमिधरों के पास मजदूरों का कोई विकल्प नहीं है; क्योंकि मजदूर ने अपनी महत्ता को पहचान लिया है; क्यांेकि उसके परिवार का हर सदस्य खेत में काम करता है; क्योंकि उसके लिए खेती, मुनाफे का सौदा है।
गणित लगाइये। उसे किसी को मेहनताना नहीं देना होता। पट्टे की थोडी-बहुत जमीन भी उसके पास है। उसके पास जुताई के लिए बैल हैं। गोबर की खाद है। वह साग-भाजी जैसी नकदी फसल बोकर गांव के हाट में बेचने में शर्म नहीं करता। कुल मिलाकर उसके सफल होने का कारण दो हैं: पहला यह कि सामान्य मौसमी स्थिति में वह खेती में गंवाता नहीं, बल्कि कमाता है। दूसरा यह कि अब उसके पास खेती के सिवा आय के और भी साधन हैं। वह अन्तोदय या बी पी एल कार्डधारक है। गरीबी रेखा से नीचे की योजनायें, सिर्फ उसी के लिए है। दूसरों के खेतों में साल में दो बार कटिया-बिनिया से मिला अनाज उसके सालाना खर्च के लिए पर्याप्त होता है। वह खरीदकर नहीं खाता। अब तो वह सरकारी राशन मंे मिला अनाज भी गांव के परचूनिये को बेच आता है। वह कभी खाली नहीं बैठता। गांव में काम न हो, तो अब शहर में लोग उसकी जुहार करते बैठे हैं। जबकि वर्तमान भूमिधर…खासकर ब्राह्मण-क्षत्रिय जातियों उपरोक्त कई क्षमतायें नहीं रखती।
बदलेगा सामाजिक विन्यास
यदि ग्रामीण मेहनतकशों की आर्थिक सबलता का यह दौर जारी रहा, तो अगले एक दशक में मनरेगा.. मज़दूर को मालिक बनाने वाला अधिनियम साबित होगा। भारत के गांवों के सामाजिक विन्यास में इसके दूरगामी परिणाम होंगे। अब खेती उसी की होगी, जो अपने हाथ से मेहनत करेगा। विकल्प के तौर पर खेती के आधुनिक औजार गांव में प्रवेश करेगें। छोटी काश्तकारी को पछाङकर विदेशी तर्ज पर बडी फार्मिग को आगे लाने की व्यावसायिक कोशिशें तेज होंगी। इससे पलायन का आंकङा फिलहाल कम नहीं होगा। पलायन करने वाला वर्ग बदलेगा। किसान जातियों का पलायन बढेगा। उनकी आर्थिकी पर संकट बढ़ेगा। वे खेती से विमुख होंगी। नई पीढी का पढ़ाई पर जोर बढेगा। श्रमिक वर्ग के पलायन में कमी आयेगी। श्रमिक वर्ग की समृद्धि बढेगी। खेती पर उनका मालिकाना बढ़ेगा। किसान और श्रमिक जातियों के बीच वर्ग संघर्ष की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता। किंतु अब जंगलराज का जमाना जा रहा है, अतः जीत श्रम की ही होगी। कारण यह भी होगा कि खेती में श्रम के विकल्प के रूप में आईं मशीनों की भी एक सीमा है। आजादी के बाद भारत के गांवों में सामाजिक बदलाव का यह दूसरा बङा दौर है। पहला दौर, मंडल आयोग की रिपोर्ट के लागू होने का परिणाम था।
मंडल ने तोङा स्वावलंबन, बढ़ाया नकदी प्रवेश
मंडल रिपोर्ट को लेकर देश में हुए बवाल ने समाज के मन पर गहरा प्रभाव डाला था। तत्कालीन विवाद ने कालांतर में भूमिधर जातियों और आरक्षण की जद में आई कारीगर जातियों के बीच दूरी बढ़ाई। इससे जजमानी के जरिए एक-दूसरे पर निर्भरता का सदियों पुराना ताना-बाना शिथिल हुआ।
उल्लेखनीय है कि भारतीय जाति व्यवस्था में नाई, लुहार, सुनार, बढई, दर्जी, धोबी, कुम्हार, कंहार और चमार कभी भी भूमिधर जातियां नहीं थीं। खेती या मजदूरी करना, कभी इनका पेशा नहीं रहा। ये कारीगर जातियों के तौर पर समाज का हिस्सा रही हैं। खेती करने वाली जातियां ही इनकी काश्तकारी रही हैं; जिसे जजमानी कहते हैं। कारीगर जातियांे को उनकी कारीगरी के बदले भूमिधर खेती का हर उत्पाद देते थे। अनाज, फल, सब्जियां, भूसा, मट्ठा से लेकर पैसा व कपङा तक। यह पाना उनका हक था। यह बात और है कि इस हकदारी की पूर्ति न करने के अमानवीय कृत्य भी होते ही रहे हैं; बावजूद इसके इसे नकारा नहीं जा सकता कि एक-दूसरे पर आश्रित होने के कारण यह ताना-बाना लंबे समय तक समाज को एक प्रेम बंधन में गुंथे हुए था। नाई…महज नाई न होकर काका-दादा होता था। समाज का हर काम साझे की पहिए पर चलता था। जातिगत कारीगरी व्यवस्था भले ही किसी को विकास की नई अवधारणा के खिलाफ लगती हो, किंतु सदियों से भारत के गांवों की स्वावलंबी व्यवस्था यही थी। इस व्यवस्था में बाजार और नकदी की जगह नहीं थी। बाजार और नकद के बगैर भी रोजमर्रा के काम रुकते नहीं थे; अब नकद और बाजार के बगैर गांव के काम भी चलते नहीं है। तब गंाव अपनी ही दुनिया में मस्त था; अब गांव शहर की ओर ताकने लगा है।
खैर ! बीच का वह दौर ऐसा था, जब आरक्षण के विद्वेष में आकर कहीं कारीगरों ने जजमानों के यहां काम करने से इंकार किया, तो कहीं जजमानों ने परंपरागत साझे को चोट पहंुचाने का काम किया। नतीजा ? कारीगरों ने बाजार व शहर का रुख किया। गांवों में कारीगरी परंपरागत जातियों की हद से बाहर आने पर मजबूर हुई। बाजारु उत्पादों के लिए गांवों का रास्ता आसान हुआ। स्थानीय लुहार के दरवाजे जाने की बजाय, किसानों ने टाटा का फावङा थाम लिया। इससे देसी कारीगरी को गहरा धक्का लगा। वह टाटा के कमजोर.. किंतु सस्ते फावङे से उसी तरह हार गई, जिस तरह आज चीन के घटिया.. किंतु सस्ते उत्पाद भारत के कुटीर उद्योगों को नष्ट कर रहे हैं।
बाजार के प्रवेश का सबसे बडा नुकसान यह हुआ कि गंाव में ऐसे उत्पाद भी पहुंचे, पहले जिनके बिना गंाव का जीवन चलता था। इनके आकर्षण ने गांवों में नकद कमाना जरूरी बनाया। परिणामस्वरूप, गांवों से पलायन बढ़ा। दृष्टि व्यावसायिक हुई। जो गांव आवश्यकता से अधिक होने पर दूध-साग-भाजी आदि को गांव में बांटकर भी पुण्य कमाने का घमंड नहीं पालता था, वही गांव अब अपने बच्चे को भूखा रखकर भी दूध बेचकर पैसा कमाना चाहता है। मंडल विद्वेष के कारण यह गांव के मानस में आया दूरगामी बदलाव है।
मनरेगा के बदलाव रचनात्मक व प्रेरक
मनरेगा के बदलाव भिन्न हैं; कई मायने में रचनात्मक और प्रेरित करने वाले। मनरेगा जातियों में भेद नहीं करता। वह हर श्रमनिष्ठ को काम की गारंटी देता है। श्रमेव जयते ! अंतिम जन को कई और गारंटी देने आई सरकार की भिन्न योजनायें, जनजागृति के अभाव में पहले नाकामयाब रहीं। दिलचस्प है कि जेब मे मजूरी के पैसे की गारंटी से जगी जिज्ञासा और आये विश्वास जगा ने उन योजनाओं की कामयाबी की उम्मीद भी बढ़ा दी है। अब निश्चित आय की गारंटी के बूते वे स्वरोजगार की योजनाओं मे दिलचस्पी लेने लगे हैं। मनरेगा जागरुकता के नाम पर सामाजिक संगठनों के साथ हुए संपर्क ने अंतिम जन को बता दिया है कि रास्ते और भी रोने के सिवा। लौटने लगी है, सपने देखने की आजादी। ग्रामीण स्कूलों में बालिकाओं के प्रवेश की संख्या भी बढने लगी है और उनके अव्वल आने की सुनहरी लकीरें भी। कभी भूमिधरों के शिकार रहे अंतिम जन के आगे अब निहोरे करते हाथ हैं। ’’मजदूर नहीं मिलेगा’’ का भय अब भूमिधरों को दंडवत मुद्रा में ले आया है। मालिकों को अब पता चली है श्रम की कीमत। हालांकि यह बदलाव अभी ऊंट के मुंह में जीरे जैसा ही है, लेकिन इसकी गति इतनी तेज है कि यदि मनरेगा पूरी ईमानदारी और समझदारी से लागू हो सका, तो जल्द ही मनरेगा गांवों मे सामाजिक विन्यास की नई चुनौतियों व विकास का पर्याय बन जायेगा। लाइन में खङा आखिरी आदमी पहुंच जायेगा एक दिन आगे …और आगे।
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अरुण तिवारी
लेखक ,वरिष्ट पत्रकार व् सामजिक कार्यकर्ता
1989 में बतौर प्रशिक्षु पत्रकार दिल्ली प्रेस प्रकाशन में नौकरी के बाद चौथी दुनिया साप्ताहिक, दैनिक जागरण- दिल्ली, समय सूत्रधार पाक्षिक में क्रमशः उपसंपादक, वरिष्ठ उपसंपादक कार्य। जनसत्ता, दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, अमर उजाला, नई दुनिया, सहारा समय, चौथी दुनिया, समय सूत्रधार, कुरुक्षेत्र और माया के अतिरिक्त कई सामाजिक पत्रिकाओं में रिपोर्ट लेख, फीचर आदि प्रकाशित।
1986 से आकाशवाणी, दिल्ली के युववाणी कार्यक्रम से स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता की शुरुआत। नाटक कलाकार के रूप में मान्य। 1988 से 1995 तक आकाशवाणी के विदेश प्रसारण प्रभाग, विविध भारती एवं राष्ट्रीय प्रसारण सेवा से बतौर हिंदी उद्घोषक एवं प्रस्तोता जुड़ाव।
इस दौरान मनभावन, महफिल, इधर-उधर, विविधा, इस सप्ताह, भारतवाणी, भारत दर्शन तथा कई अन्य महत्वपूर्ण ओ बी व फीचर कार्यक्रमों की प्रस्तुति। श्रोता अनुसंधान एकांश हेतु रिकार्डिंग पर आधारित सर्वेक्षण। कालांतर में राष्ट्रीय वार्ता, सामयिकी, उद्योग पत्रिका के अलावा निजी निर्माता द्वारा निर्मित अग्निलहरी जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रमों के जरिए समय-समय पर आकाशवाणी से जुड़ाव।
1991 से 1992 दूरदर्शन, दिल्ली के समाचार प्रसारण प्रभाग में अस्थायी तौर संपादकीय सहायक कार्य। कई महत्वपूर्ण वृतचित्रों हेतु शोध एवं आलेख। 1993 से निजी निर्माताओं व चैनलों हेतु 500 से अधिक कार्यक्रमों में निर्माण/ निर्देशन/ शोध/ आलेख/ संवाद/ रिपोर्टिंग अथवा स्वर। परशेप्शन, यूथ पल्स, एचिवर्स, एक दुनी दो, जन गण मन, यह हुई न बात, स्वयंसिद्धा, परिवर्तन, एक कहानी पत्ता बोले तथा झूठा सच जैसे कई श्रृंखलाबद्ध कार्यक्रम। साक्षरता, महिला सबलता, ग्रामीण विकास, पानी, पर्यावरण, बागवानी, आदिवासी संस्कृति एवं विकास विषय आधारित फिल्मों के अलावा कई राजनैतिक अभियानों हेतु सघन लेखन। 1998 से मीडियामैन सर्विसेज नामक निजी प्रोडक्शन हाउस की स्थापना कर विविध कार्य।
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