कवि निहाल सिंह की ” नारी तुम तलवार उठा लो ” व अन्य कविताएँ

कवि निहाल सिंह
कवि निहाल सिंह

कवि निहाल सिंह की तीन कविताएँ

 

नारी तुम तलवार उठा लो

ऑंसू को अंगार बना लो, 
नारी तुम तलवार उठा लो |
अब नही राम जो ले आए, 
सिया को रावण से जीतकर |
लाज द्रोपदी की दुशाष्न से, 
कृष्ण बचा ले चीर भेजकर |
इन हस्तो को डाल बना लो, 
नारी तुम तलवार उठा लो |
ओज फिरंगी का देख कभी, 
यूँ सामने उसके झुकी नही |
जब तलक रही सॉंस हृदय में, 
तुम लड़ती रही झुकी नही |
स्वयं को मणि का रूप बना लो, 
नारी तुम तलवार उठा लो |
प्रेम किया मीरा बनकर के, 
पदमा बनकर के जौहर किया |
अंतरिक्ष में पहुॅंची कल्पना, 
बछेंद्री ने तय शिखर किया |
ऑंखों की फिर जोत जला लो, 
नारी तुम तलवार उठा लो |
दिल पूछता है
दिल पूछता है कहाँ गए दिन सुहाने, 
रूठ गए है वो या फिर टूट गए है |
वो जाड़ो की नरम यामिनी में तीक्ष्ण-
सॉंसो पर घण्टों चखो को सेकते थे |
और सुबहा को देर तक चाय के साथ-
समूचा कुल बैठकर बातें करते थे |
दिल पूछता है कहाँ गए दिन सुहाने, 
रूठ गए है वो या फिर टूट गए है |
वो गर्मी की तीव्र धूॅंप में रेत के, 
तपते धोरे दिन ढ़लने तक जलते थे |
और बीच खेतों में दूर तक धूल के, 
ऊॅंचे- ऊॅंचे गुब्बारे नित उड़ते थे |
दिल पूछता है कहाँ गए दिन सुहाने, 
रूठ गए है वो या फिर टूट गए है |
वो बारिश की ऋतु में काग़ज़ की क़श्ती-
को आहिस्ता से नीर पर छोड़ते थे |
फिर कई देर तक उसको उफनते उदक, 
कि सतह पर तैरते हुए देखते थे |
दिल पूछता है कहाँ गए दिन सुहाने, 
रूठ गए है वो या फिर टूट गए है |
पुजारी बाबा
तड़के शीघ्र ही वो उठ जाते थे, 
उठके ठाकुर जी को नहलाते थे |
फिर कुछ देर परे शंख बजाते थे, 
शंख बजते ही बच्चें उठ जाते थे |
सर्व पूर्व आरती लेते उसके
पश्चात प्रसाद ग्रहण करते थे |
अनुग्रह की आकांक्षा में भिनसार, 
उठकर घंटियाँ बजाते रहते थे |
बाबा कहते थे की जो ठाकुर जी, 
के दरबार में नित्य दिन आता है |
वो यातना को छोड़कर के अपने, 
सहगमन आमोद लेकर जाता है |
मैं कहता की बाबा मुझपर भी तो, 
आप थोड़ा परोपकार कीजिए |
बूॅंदी के संग  जरा सा ये देसी-
घी का चूरमा भी दे दीजिए |

परिचय
कवि निहाल सिंह 
गाॅंव- दूधवा-नागलियां
जिल्ला- झुन्झुनू ,राजस्थान

Disclaimer : The views expressed by the author in this feature are entirely her / his own and do not necessarily reflect the views of invc news.


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