प्रोमिला क़ाज़ी की पांच कविताएँ
शिव कुमार झा टिल्लू की टिप्पणी : प्रोमिला क़ाज़ी हिन्दी साहित्य जगत की रास चर्चित कवयित्री हैं. इनके काव्य विग्रह और अपरिग्रह नहीं अपितु सम्मिलन के प्रतीक हैं. संबंधों की यथार्थपरक व्याख्या इनके काव्य की सहज साधना ही तो है ..जहाँ औपचारिकताओं का कोई मोल नहीं …सहज ही है धारा के समानान्तर चलने पर प्रतिवाद का दर्शन प्रासंगिक है ..परन्तु पाठक इसे सहजता से स्वीकार करते हैं.दूसरे शब्दों में ये काव्य पाठक हेतु कदापि अग्राह्य नहीं. यही काव्य अर्चना इनकी विविधता भी हैं ..जो पाठक को दिग्भ्रमित करने का प्रयास नहीं करती. प्रकृति के जैविक तत्वों का अजैव जगत से सम्बन्ध दर्शाने में भाव से ज्यादा निर्णय की प्रधानता ही इनकी कविताओं को वर्तमान परिपेक्ष्य में अपेक्षित परिणति के साथ लोकप्रिय भी बनाया है. ( टिप्पणीकार : शिव कुमार झा टिल्लू , जमशेदपुर )
1 . दीवारे , रेशम और तुम
तुम खुरदुरी सी दीवार होते तो टेक लेती सर
तुम्हारा ठंडा स्पर्श मुझे जिला देता
एक ओक सी बनाती तुम्हारी हथेलियाँ
मै सारे झिलमिल वाले आँसू उन में भर देती
तुम्हारे सामने खत्म हो जाते मेरे सारे झगडे
और मै न देह बचती न आत्मा रहती
तुम देखते मेरा रेशा रेशा टूटते
और बुन देते मुझे रेशम सा फिर
अपने सीने के तकिये पे लिटा के
उसी रेशम से मुझे ढक देते
मै सो रहती , एक लम्बी नींद
और तुम्हारे स्वप्न भी जी लेती
यह तुम पर होता कि जागूँ या सोयी रहूँ
लेकिन धड़कन मचाती शोर इतना कि
मै सो भी ना पाती
लेकिन सत्य केवल इतना था
जो हम जानते थे
कि हम तुम कितने एक से थे
कुछ भी तो अलग नहीं थे!
हम दो सम्पूर्ण हिस्से थे
जो बिखर जाते मिलते ही
हम जोड़ ना पाते कुछ भी
लेकिन टूटता जाने क्या -क्या
इसिलए न तुम दीवार बने न मै रेशम
हम दोनों अपने अपने खाँचो में
मै और तुम बने रहे !
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2 धुंध और थकी शाम
रौशनी जहाँ
अकेले जाने से
डरती है
सहम सहम के
ज्यादा रूकती है
थोड़ा चलती है
यह ठंड
वो कोहरा
यह शक्ल
वो चेहरा
एक हो जाते है
और मौसम
उन्हें निगलता है
अलसुबह किसी रोज़ या
थकी शाम के कंधे पे
खामोश जुबान के साथ
वो धुँए की तरह बाहर आते है
अपनी उपस्तिथि दर्ज़ कर
अगले मौसम तक
टल जाते है
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3. सूर्य तर्पण
तुम जनम भर
लिपटते ही रहे
मेरे आस-पास
बांधते रहे
कभी पैर कभी हाथ
कभी मन तो कभी देह
कितने रंग तुम्हारे में ?
दर्पण देखती हूँ
हँसती हूँ
रंगों की एक कलाकृति लगती हूँ
जीने के नाटको से
ऊब गयी हूँ
धूसर होना चाहती हूँ
तुम्हारे रंग लौटाने का समय
शायद आ गया है
हे सूर्य!
तुम्हारी गर्म उन के गोले का
धागा धागा
लपेट रही हूँ
हाथ जलते है
फिर भी
पूरा होते ही तुम्हे फेंक दूंगी
तुम्हारे आकाश पर
और मुक्ति का अट्ठहास लगाउंगी !
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4. तीसरी दुनिया
अलग सी बात होती अगर
उन धुंधले पदचिन्हों के साथ
अपने कदम मिलाने की होड़ न की होती
विस्तृत से सागर को न ललकारा होता
न वक़्त के साथ ही दौड़ लगायी होती
याद आता है कभी पाषाण की उस गुफा में
चित्र उकेरना उन सब का
जो भी हुआ था कभी
और मन भर आता है उसके लिए
जो न हुआ था कभी !
बात तब की है जब न कोई आस्मां था
न तारे ही न सूरज न चाँद हुआ करता था
बस हर सरहाने आँखों का एक दीप जला करता था
कितना स्पष्ट, स्वच्छ, निर्मल संसार दिखा करता था
अपने अपने आसमान का टुकड़ा
कभी बिछाते , कभी ओढ़ लिया जाता
न कोई भूखा, न कोई अनाथ ,न अकेला
कितने कम लोग थे पर था कैसा मेला!
आज असमानों की दुनिया और चाँद सितारे
यह भागती दुनिया और लोग अकेले
बस संताप यही है अब
क्यों वक़्त से आगे की दौड़ लगायी थी
क्या पाने के लिए तीसरी दुनिया बनायीं थी?
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5 . फैसले
तितली
हर बार
हलकी सी
फूंक मारते ही
पंख समेटती
और उड़ जाती
जाने क्यों इस बार
तेज़ आँधिया भी
उड़ा नहीं पायी उसको
शायद उम्मीद से थी
इस बार
उसे सपने
जन्मने थे !
इस बार सारे फैसले
उसके अपने थे !!
अब सारे फूल
और हवाएँ
उसके खिलाफ थी !
हिंदी व् अंग्रेजी दोनों में लिखते हुए ब्लॉगिंग से अपना लिखने का सफर शुरू किया और आज लगभग बारह हिंदी व् अंग्रेजी कविता व् कहानी संग्रहों में प्रकाशित। अपना कविता संग्रह “मन उगता ताड़ सा, मन होता उजाड़ भी’ का विमोचन मार्च माह मे. ।
मनोविज्ञान में स्नातकोत्तर , लेखिका इंसानी रिश्तो को देखने , परखने , समझने के लिए सदैव तत्पर. और उनकी रचनाओ का विषय वस्तु इंसानी रिश्तो के ताने बानो के इर्द-गिर्द ही घूमता है। इसके अतिरिक्त यात्रा ब्लॉग्स लिख रही है और एक अर्धवार्षिक पत्रिका उमंग का संपादन देख रही है !
संपर्क – : E-mail …. promillaqazi @gmail.com
खूबसूरत कवितायेँ, सूर्य तर्पण सबसे अच्छी लगी. फैसले भी बहुत अच्छी।
शिव कुमार जी धन्यवाद इस खूबसूरत टिप्पणी के लिए
और आप सभी का आभार, मित्रो !
great pen work Promilla ji ..keep it up .Bless you
विगत कुछ वर्षों से मैं कवितायें गौर से पढ़ने लगी हूँ …पहले कही कही पढ़ती थी कविताओं में प्रवाह है…लेकिन यहाँ देखा तो लगा प्रोमिला जी की कविताओ के शब्द शब्द बोलतें हैं रोमांचक लगा. टिप्पणी थोड़ी गंभीर है पर सुन्दर.
टिप्पणीकार शिव कुमार झा टिल्लू जी आपकी कविताएँ भी बहुत शानदार है ,मैंने पढ़ी हैं ! आपकी टिपण्णी हमेशा की तरहा बहुत उच्च कोटी की हैं ! प्रोमिला क़ाज़ी जी आपकी कविताएँ मैंने पहले भी पढ़ी हैं पर इस अंदाज़ में नहीं ! बधाई !
शानदार कविताएँ , टिप्पणी के साथ पढ़ने में कविता का नजरिया ही बदल जाता हैं ! तीसरी दुनिया कविता सबसे ज़्यादा पसंद आई ! टिप्पणी और बाकी सभी कविताएँ बहुत ही उम्दा हैं
लीक से हटकर अच्छी कवितायें ..टिप्पणी भी बहुत मनोहारी ..जैसे किसी संग्रह की आमुख हो …..शुभकामना
बहुत सुन्दर कवितायें …काफी दिनों के बाद इस कोटि के पद्य मिले…..थोड़ा अलग है. टिप्पणी तो शानदार रचनाकार के साथ पोर्टल के संपादक को ..बधाई