पाश्चात्य संस्कृति का बढ़ता प्रभाव और भारतीय युवा: क्या हमारी सांस्कृतिक पहचान खतरे में है?

भारतीय युवा मन-मस्तिष्क में पाश्चात्य संस्कृति की अंधी लहरें कहीं भविष्य में हमारे अस्तित्व को भोग-विलास और भौतिकता के समंदर में डुबो तो नहीं देंगीं?

– कुश राठौर उर्फ लिंक –

भारत जो अपने अद्वितीय सांस्कृतिक वैभव और धार्मिकता के लिए विश्वभर में सम्मानित है वही भारत आने वाले वक्त में एक गहरी सांस्कृतिक संकरण की खाई की तरफ आगे बढ़ रहा है। आज के युग का भारतीय युवा अपने सांस्कृतिक अस्तित्व के लिए सबसे बड़े संकट का सामना करने जा रहा है। एक ऐसा संकट जो हमारे युवाओं के मन-मस्तिष्क में बैठी पश्चिमी संस्कृति की अंधी लहरों से उत्पन्न हो रहा है।

ये प्रायोजित अनवरत लहरें हमारी प्राचीन परंपराओं और धार्मिक मूल्यों को खंड खंड कर हमें सांस्कृतिक संकरण के एक अंधे कुए की तरफ ले जा रही हैं।और हम उसे न केवल असहाय होकर देख रहे हैं,बल्कि उसे वक्त की परिवर्तनशीलता और अपनी नियति मानते चले जा रहे हैं।भारतीय नववर्ष जो भारतीय पंचांग के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को मनाया जाता है।

 

कुश राठौर उर्फ ​​लिंक

इस लेख लेखक कुश राठौर उर्फ लिंक हैं

भारत का युवा इस भारतीय नवयुग वर्ष को मनाने के बजाय पश्चिमी कैलेंडर के एक जनवरी को नव वर्ष मनाने के मल्टीनेशनल कंपनी आधारित व्यापारिक पागलपन का शिकार होता चला जा रहा है। ऐसा लगता है कि थर्टी फर्स्ट एवं अंग्रेजी नववर्ष की रात को युवा वर्ग मांसाहार और शराब के सागर में डूबकर भारतीय संस्कृति की आत्मा को तार तार कर विस्मृत करने पर उतारू है। युवा वर्ग के लिए यह एक दिन का उत्सव नहीं बल्कि हमारी सांस्कृतिक जड़ों से काटने और पाश्चात्य संस्कृति संकरण के शिकार होने का गहरा संकेत है। क्या ये वही समाज है जिसने सदियों से अपनी सनातनी परंपराओं का पालन करके गर्व किया हो और हजारों आक्रमणों के बाद संरक्षित रखा?

हमें समझने की आवश्यकता है कि हमारी पहचान केवल विदेशी त्योहारों और आस्थाओं में नहीं बल्कि उन महान परंपराओं और आत्माओं में है जिन्होंने इस भूमि को स्वाधीनता के संघर्षों से सींचा और अक्षुण्ण रखा।जिस अंग्रेजी नववर्ष को हम इस दौर में बड़ी धूमधाम से मना कर खुशी जता रहे हैं, मत भूलो कि इसी पाश्चात्य संस्कृति ने हमारे स्वाभिमान, हमारी संस्कृति, हमारी अर्थव्यवस्था और हमारे देश के साथ हमारे बुजुर्गों के सम्मान को तार-तार किया था।हमारे देश के युवाओं का दुर्भाग्य कि बढ़ती पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के कारण वे यह नहीं जानते कि उस एक जनवरी को रानी लक्ष्मीबाई का जन्म एक युगनारी के रूप में हुआ, जिसने भारतीय स्वाभिमान को संरक्षित रखने के लिए अंग्रेजों के सामने जंग लड़ी और बलिदान दिया।

वे 1 जनवरी को महारानी लक्ष्मी बाई जैसी स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना के जन्मदिन को कैसे भूल जाता है। जिसने न केवल देश के लिए लड़ाई लड़ी बल्कि नारी शक्ति और देशभक्ति के लिए एक अनमोल मिशाल प्रस्तुत की।क्या हम उनके बलिदान को यूं ही नज़रअंदाज करके उनके आदर्शों से इतनी आसानी से मुख मोड़ सकते हैं?वास्तव में पश्चिमी प्रभाव का अंधानुकरण हमारे समाज को एक उपभोक्तावादी मशीन बना देगा, जिसमें हमारा अस्तित्व सिर्फ भोग विलास और भौतिकता के इर्द-गिर्द घूमता रह जायेगा।

आज हमारा राष्ट्रप्रेम,संस्कृति,और हमारी धार्मिकता,सनातन धर्म यह सब क्षण-प्रतिक्षण खतरे में है।जब हम संस्कृति की बात करते हैं,तो हमें याद होना चाहिए कि हमारी असल शक्ति हमारी सनातनी जड़ों में छिपी है न कि विदेशी चकाचौंध में।रानी लक्ष्मीबाई का बलिदान हमें सिखाता है कि जब तक हम अपनी सांस्कृतिक धरोहर से जुड़कर उसे गर्व से नहीं जीते तब तक हम एक सशक्त राष्ट्र बनने का सपना नहीं देख सकते।हमारी संस्कृति न केवल हमारी पहचान है बल्कि हमारी आत्मा है।अगर हमें अपने गौरवशाली इतिहास और संस्कृति को बचाना है तो हमें केवल एक बात स्मरण रखनी होगी कि,

संस्कृति की फिक्र कर नादां, मुश्किलें आने वालीं हैं,
तेरी बर्बादियों के मशबिरे हैं आसमानों में।


अस्वीकरण: इस फीचर में लेखक द्वारा व्यक्त किए गए विचार पूरी तरह से उनके अपने हैं और जरूरी नहीं कि वे INVC के विचारों को प्रतिबिंबित करते हों।


 

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