– अरुण तिवारी –
किसी और नजरिए से हम पेरिस जलवायु समझौते के नफा-नुकसान की तलाश तो कर सकते हैं, किंतु यह नहीं कह सकते कि यह समझौता पृथ्वी के वायुमंडलीय तापमान में वृद्धि करेगा; अर्थात यह समझौता, तापमान वृद्धि रोकने में तो कुछ ल कुछ मदद ही करने वाला है। पेरिस जलवायु समझौते की यही उपलब्धि है। ’’पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर हो चुके हैं।’’ – तारीख 12 दिसंबर, 2015, समय शाम 7.16 मिनट पर हुई फ्रांसीसी विदेश मंत्री लारेंट फेबियस द्वारा की गई यह उद्घोषणा, तत्पश्चात् तालियों की गङगङाहट, चियर्स के शब्द बोल, सीटियांे की गूंज और इन सबके बीच कई चेहरों को तरल कर गई हर्ष मिश्रित अश्रु बूंदों का संदेश भी यही है। इसका संदेश यह भी है कि किसी न किसी को इस समझौते का लंबे समय से इंतजार था। इस समझौते को इस मुकाम तक लाने के लिए एक लंबी और मुश्किल कवायद की गई थी। इसी कवायद के चलते यूरोपीय संघ के राष्ट्रों ने राष्ट्रीय स्तर पर कार्बन उत्सर्जन में स्वैच्छिक कटौती की कानूनी बाध्यता को स्वीकारा, अमेरिका ने ’घाटा और क्षति’ की शब्दावली को और भारत-चीन ने वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस से ऊपर न जाने देने की आकांक्षा को। 134 देश, आज विकासशील की श्रेणी में हैं। उनके हक में माना गया कि विकसित की तुलना में गरीब व विकासशील देश कम कार्बन उत्सर्जन कर रहे हैं; जबकि कार्बन उत्सर्जन कटौती की कवायद में उनका विकास ज्यादा प्रभावित होगा; लिहाजा, विकसित देश घाटा भरपाई की जिम्मेदारी लें। इसके लिए ’ग्रीन क्लाइमेट फंड’ बनाना तय हुआ। तय हुआ कि वर्ष 2025 तक इस विशेष कोष में 100 अरब डाॅलर की रकम जमा कर दी जाये।
यूं बंधे भारत-चीन
वर्ष 1992 से संयुक्त राष्ट्र द्वारा की जा रही वैश्विक जलवायु समझौते की कोशिशों की नाकामयाबी को भी देखें, तो कह सकते हैं कि यह सब सचमुच आसान नहीं था। इसे मुमकिन बनाने के लिए यह सम्मेलन भारत जैसे देशों को दबाव में लाने की कोशिशों से भी गुजरा। भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील के बिना इस समझौते को अधूरा मानने की बात कही गई। इसके लिए दुनिया भर में बाकायदा हस्ताक्षर अभियान चलाया गया। तैयारी बैठकों में चले खेल से दुखी प्रतिनिधि कहते हैं कि सम्मेलन एक नाटक था; असल में अम्ब्रेला समूह के साथ मिलकर सम्मेलन और समझौते की पटकथा पहले से लिख दी गई थी। अमेरिका ने गंदी राजनीति खेली। उसके संरक्षण में 100 देशों का एक गुट अचानक सामने आया और उसने उसके मुताबिक समझौता कराने में कूटनीतिक भूमिका निभाई। कहने वाले ये भी कहते हैं कि अमेरिका नेे भारत के कंधे पर बंदूक रखकर निशाना। एक तरफ अमेरिकी विदेश मंत्री जाॅन केरी ने अपने एक साक्षात्कार में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में भारत को ही एक चुनौती करार दे दिया, तो दूसरी तरफ अमेरिकी राष्ट्रपति, भारत के नेतृत्वकारी भूमिका की सराहना करते रहे। जो खुद नहीं कह सके,उसे मीडिया से कहला दिया। मशहूर पत्रिका टाइम ने भारत की भूमिका की तारीफ की, तो न्यूयार्क टाइम्स ने भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा कार्बन बजट में भारत की अच्छी-खासी हिस्सेदारी संबंधी बयान को लेकर लानत-मलानत की। इसे दबाव कहें या फिर रायनय कौशल, अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा भारतीय प्रधानमंत्री से बैठक, फोन वार्ताओं और फ्रंास के रायनय कौशल का असर यह रहा कि जो भारत और चीन, कार्बन उत्सर्जन कम करने की कानूनी बाध्यता के बंधन में बंधने से लगातार इंकार करते रहे थे, संयुक्त राष्ट्र का पेरिस सम्मेलन, दुनिया की सबसे बङी आबादी और आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण इन दो मुल्कों को बांधने मंे सफल रहा। 1997 में हुई क्योटो संधि की आयु 2012 में समाप्त हो गई थी। तभी से जिस नई संधि की कवायद शुरु हुई थी, वह काॅन्फ्रेंस आॅफ द पार्टीज ’काॅप21’ के साथ संपन्न हुई।
क्या कहते हैं समीक्षक ?
गौर कीजिए कि पेरिस जलवायु समझौता, अभी सिर्फ एक समझौता भर है। कुल वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में से 55 प्रतिशत उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार देशों में से 55 देशों की सहमति के बाद समझौता एक कानून में बदल जायेगा। यह कानून, सहमति तिथि के 30 वें दिन से लागू हो जायेगा। इसी के मद्देनजर तय हुआ है कि सदस्य देश 22 अप्रैल, 2016 को संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय पहुंचकर समझौते पर विधिवत् हस्ताक्षर करेंगे। जाहिर है कि पेरिस जलवायु समझौते को कानून में बदलता देखने के लिए हम सभी को अभी अगले पृथ्वी दिवस का इंतजार करना है। किंतु ’काॅप21’ के समीक्षक इसका इंतजार क्यों करें ? काॅप21 के नतीजे में जीत-हार देखने का दौर तो सम्मेलन खत्म होने के तुरंत बाद ही शुरु हो गया था। किसी ने इसे ऐतिहासिक उपलब्धि कहा, तो किसी ने इसे धोखा, झूठ और कमजोर करार दिया; खासकर, गरीब और विकासशील देशों के हिमायती विशेषज्ञों द्वारा समझौते को आर्थिक और तकनीकी तौर पर कमजोर बताया जा रहा है। विशेषज्ञ प्रतिक्रिया है कि जो सर्वश्रेष्ठ संभव था, उससे तुलना करेंगे, तो निराशा होगी। जलवायु मसले पर वैश्विक समझौते के लिए अब तक हुई कोशिशों से तुलना करेंगे, तो पेरिस सम्मेलन की तारीफ किए बिना नहीं रहा जा सकता। भारत के वन एवम् पर्यावरण मंत्री श्री प्रकाश जावेङकर ने भी माना कि यह समझौता, हमें तापमान को दो डिग्री से कम रखने के मार्ग पर नहीं रखता।
विरोध के बिंदु
विज्ञान पर्यावरण केन्द्र की महानिदेशक सुनीता नारायण का स्पष्ट मत है कि वायुमंडल में विषैली गैसों का जो जखीरा तैर रहा है, वह पैसे के ऊंचे पायदान पर बैठे देशों की देन है। उन्होने अपना कार्बन उत्सर्जन घटाने का न पूर्व मंे कोई विशेष प्रयास किया है और न अब करने के इच्छुक हैं। स्वच्छ ऊर्जा के लिए उन्होने पूर्व में न उन्होने धन देकर कोई मदद की, न तकनीक। फिर भी वे उम्मीद करते हैं कि विकासशील देश, विकसित देशों की निगरानी में स्वच्छ ऊर्जा मंे कटौती के लिए बाध्य किए जायें।
समझौते को नाकाफी अथवा सौदेबाजी बताने वालों का मुख्य तर्क यह है कि जो जिम्मेदारियां, विकसित देशों के लिए बाध्यकारी होनी चाहिए थी, वे बाध्यकारी खण्ड में नहीं रखी गई। कायदे से विकसित देशों को चाहिए कि वे वायुमंडल के कार्बन खण्ड में उतना स्थान खाली करें, जितना उन्होने दूसरे देशों के हिस्से का घेर रखा है। किंतु समझौते के बाद अब विकसित देशों के लिए कार्बन उत्सर्जन कटौती लक्ष्य की कोई वैधानिक बाध्यता नहीं रह गई है। कहना न होगा कि विकसित देश, बङी चाालाकी के साथ भाग निकले। वे, जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों की क्षतिपूर्ति की अपनी जवाबदेही को विकासशील देशों के कंधे पर स्थानान्तरित करने मंे सफल रहे। सर्वाधिक विरोध इस बात का है कि ’ग्रीन क्लाइमेट फंड’ के लिए 100 अरब डाॅलर धनराशि एकत्र करना तो बाध्यकारी बनाया गया है, किंतु कौन सा देश कब और कितनी धनराशि देगा; यह बाध्यता नहीं है। समझौते में कहा गया है कि 2025 तक अलग-अलग देश अपनी सुविधा से 100 बिलियन डाॅलर के कोष में योगदान देते रहें।
गौर कीजिए कि समझौते के दो हिस्से हैं: निर्णय खण्ड और समझौता खण्ड। निर्णय खण्ड में लिखी बातें कानूनन बाध्यकारी नहीं होंगी। समझौता खण्ड की बातें सभी को माननी होंगी। विकासशील और गरीब देशों को इसमें छूट अवश्य दी गई है, किंतु संबंधित न्यूनतम अंतराष्ट्रीय मानकों की पूर्ति करना तो उनके लिए भी बाध्यकारी होगा। मलाल इस बात का भी है कि 100 अरब डाॅलर के कार्बन बजट को एक हकदारी की बजाय, मदद की तरह पेश किया है; जबकि सच यह है कि कम समय में कार्बन उत्सर्जन घटाने के लक्ष्य का पाने लिए जिन हरित तकनीकों को आगे बढ़ाना होगा, वे मंहगी हांेगी। गरीब और विकासशील देशों के लिए यह एक अतिरिक्त आर्थिक बोझ की तरह होगा। निगरानी व मूल्यांकन करने वाली अतंर्राष्ट्रीय समिति उन्हे ऐसा करने पर बाध्य करेंगी। न मानने पर कार्बन बजट में उस देश की हिस्सेदारी रोक देंगे। बाध्यता की स्थिति में तकनीकों की खरीद मजबूरी होगी। इसीलिए सम्मेलन पूर्व ही मांग की गई थी कि उत्सर्जन घटाने में मददगार तकनीकों को पेटेंटमुक्त रखना तथा हरित तकनीकी का हस्तांतरण को मुनाफा मुक्त रखना बाध्यकारी हो, किंतु यह नहीं हुआ। विकसित व अग्रणी तकनीकी देश, इन मसलों पर स्पष्ट रूपरेखा प्रस्तुत करने में आनाकानी बरतते रहे। वे चालाकी में हैं कि इस पर पेरिस सम्मेलन के बाहर हर देश से अलग-अलग समझौते की स्थिति में अपनी शर्तों को सामने रखकर दूसरे हित भी साध लेंगे। मसौदा, निश्चित तौर पर तकनीकी हस्तांतरण के मसले पर कमजोर है। नये मसौदे मंे हवाई यात्रा के अंतर्राष्ट्रीय यातायात तंत्र पर बात नहीं है। सच्चाई यह है कि कार्बन बजट के साथ-साथ अन्य बाध्यतायें न होने से अमेरिका और हरित तकनीकों के विक्रेता देश खुश हैं। राष्ट्रपति बाराक ओबामा ने राहत की सांस ली है। वे जानते हैं कि बाध्यकारी होने पर सीनेट में उसका घोर विरोध होता। सम्मेलन में नेतृत्वकारी भूमिका निभाने के लिए भारतीय प्रधानमंत्री को बार-बार बधाई के पीछे एक बात संभवतः यह राहत की सांस भी है।
भारतीय पक्ष
उक्त परिदृश्य के आइने मंे कह सकते हैं कि पेरिस सम्मेलन, आशंकाओं के साथ शुरु हुआ था और आशकांओं के साथ ही खत्म हुआ, किंतु इसमें भारत ने अह्म भूमिका निभाई; इसे लेकर किसी को कोई आशंका नहीं है; न विशेषज्ञ स्वयंसेवी जगत को और न मीडिया जगत को। इस सम्मेलन में भारत, विकासशील और विकसित देश की अंतर्रेखा खींचने मंे समर्थ रहा। वह समझौते में ’जलवायु न्याय’, ’टिकाऊ जीवन शैली’ और ’उपभोग’ जैसे शब्दों के शामिल कराने मंे सफल रहा। हम गर्व कर सकते हैं कि सौर ऊर्जा के अंतर्राष्ट्रीय मिशन को लेकर फ्रांस के साथ मिलकर भारत ने वाकई नेतृत्वकारी भूमिका निभाई। भारत ने कार्बन उत्सर्जन में स्वैच्छिक कटौती की महत्वाकांक्षी घोषणा की; तद्नुसार भारत, वर्ष 2005 के अपने कार्बन उत्सर्जन की तुलना में 2030 तक 30 से 35 फीसदी तक कटौती करेगा। इसके लिए भारत, अपने बिजली उत्पादन के 40 प्रतिशत हिस्से को कोयला जैसे जीवश्म ऊर्जा स्त्रोतांे के बिना उत्पादित करेगा। 2022 से एक लाख, 75 हजार मेगावाॅट बिजली, सिर्फ अक्षय ऊर्जा स्त्रोतों से पैदा करेगा। एक महत्वपूर्ण कदम के तौर पर भारत ने 2030 तक 2.5 से तीन अरब टन कार्बन डाई आॅक्साइड अवशोषित करने का भी लक्ष्य रखा है। इसके लिए भारत वन क्षेत्र में पर्याप्त इजाफा करेगा। भारत, इस कार्य को अंजाम देने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक कोष का गठन करेगा। भारत ने यह घोषणा, युनाइटेड नेशन्स फे्रमवर्क कन्वेंशन आॅन क्लाईमेट चेंज (यू एन एफ सी सी ) के समक्ष की है। भारत ने इस घोषणा को इंटेडेंट नेशनली डिटरमांइड कन्ट्रीब्युशन (आई एन डी सी) का नाम दिया।
इन कवायदों के बदले में भारत को ’ग्रीन क्लाइमेट फंड’ नामक विशेष कोष से मदद मिलेगी। यह पैसा बाढ़, सुखाङ, भूकम्प जैसी किसी प्राकृतिक आपदा की एवज में नहीं, बल्कि भारतीयों के रहन-सहन और रोजी-रोटी के तौर-तरीकों में बदलाव के लिए मिलेगा। अन्य पहलू यह होगा कि किंतु जीवाश्म ऊर्जा स्त्रोत आधारित बिजली संयंत्रों को विदेशी कर्ज मिलना लगभग असंभव हो जायेगा। अन्य देशों की तरह भारत को भी हर पांच साल बाद बताना होगा कि उसने क्या किया। गौर करने की बात यह भी है एक वैश्विक निगरानी तंत्र बराबर निगाह रखेगा कि भारत कितना कार्बन उत्सर्जन कर रहा है। निगरानी, समीक्षा तथा मूल्यांकन – ये कार्य एक अंतर्राष्ट्रीय समिति की नजर से होगा। असल समीक्षा कार्य 2018 से ही शुरु हो जायेगा। अंतर्राष्ट्रीय मानकों के आधार पर समीक्षा होगी।
भारतीय आशंका
अंतर्राष्ट्रीय मानक, भारत की भू सांस्कृतिक, सामाजिक व आर्थिक विविधता के अनुकूल हैं या नहीं ? समझौते के कारण भारत किन्ही नई और जटिल बंदिशों में फंस तो नहीं जायेगा ? भारत में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए वर्ष 2008 में भी राष्ट्रीय कार्ययोजना पेश की थी। अक्षय ऊर्जा, ऊर्जा दक्षता, कचरे का बेहतर निस्तारण, पानी का कुशलतम उपयोग, हिमालय संरक्षण, हरित भारत, टिकाऊ कृषि व पर्यावरण ज्ञान तंत्र का विकास – उसके आठ लक्ष्य क्षेत्र थे। गत् सात वर्षों में हम कितना कर पाये ? आगे नहीं कर पायेंगे, तो क्या हमें कार्बन बजट में अपना हिस्सा मिलेगा ? नहीं मिला, तो भारत की आर्थिकी किस दिशा में जायेगी ? कहीं ऐसा तो नहीं कि कार्बन उत्सर्जन घटाने और अवशोषण बढ़ाने की हरित तकनीकों को लेकर हम अंतर्राष्ट्रीय निगरानी समिति के इशारे पर नाचने पर मजबूर हो जायेंगे ?
भारत का प्रति व्यक्ति ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन औसत दुनिया के कई देशों की तुलना में काफी कम है, किंतु कुल उत्सर्जन में भारत, दुनिया का तीसरा बङा देश है। सकल घरेलु उत्पाद दर की दृष्टि से भी भारत, दुनिया का तीसरा अग्रणी देश है। इस रैंकिंग के आधार पर आगे चलकर भारत को कहा जा सकता है कि वह ग्रीन क्लाइमेट फंड से लेने की बजाय, उसकी तुलना में कम उत्सर्जन करने वालों को दे। यूं भी भौतिक-आर्थिक विकास और शहरीकरण की जिस मंजिल की ओर भारत आगे बढ़ चला है, उस मंजिल की राह में औद्योगिक, घरेलु और कृषि ही नहीं, वाणिज्यिक क्षेत्र की ऊर्जा मांग में बङा इजाफा होने वाला है। अपने विकास का माॅडल बदले बगैर, भारत की ऊर्जा मांग का आंकङा घटने की कोई संभावना नहीं है। फिलहाल, भारत में सबसे ज्यादा ऊर्जा उत्पादन, कार्बन उत्सर्जन का बङा स्त्रोत माने जाने वाले कोयले से ही हो रहा है। विकल्प हैं, किंतु विकल्पों के लिए जो तैयारी और वक्त चाहिए ; क्या पेश लक्ष्य हमें इतना वक्त देता है कि हम कोयला खनन और ताप विद्युत को उतने समय में अलविदा कह सकें ? पनबिजली संयंत्र, औद्योगिक संयंत्र, फसल जलाव, वाहन व कचरा अािद कार्बन उत्सर्जन के अन्य मुख्य स्त्रोत हैं। कचरे की तुलना में उसके वैज्ञानिक निष्पादन की हमारी क्षमता बेहद कम है। इन स्थितियों के मद्देनजर, क्या कार्बन कटौती के पेश लक्ष्य की पूर्ति हेतु तय समय सीमा, भारत के लिए एक मुश्किल चुनौती नहीं बनने वाली ? निस्संदेह, हवा-पानी ठीक करने का भारतीय मोर्चा भी इन तमाम आशंकाओं से मुक्त नहीं है। गौर कीजिए कि कार्बन उत्सर्जन, अब किसी सिर्फ राष्ट्रीय नहीं, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा से जुङा विषय है। क्या होगा ? कोई ताज्जुब नहीं कि वर्ष 2023 आते-आते भारत, कार्बन उत्सर्जन में कटौती की अपनी स्वैच्छिक उद्घोषणा का उल्लंघन करने पर स्वयं ही विवश हो जाये। जो कुछ होगा, वह भारत के संकल्प, विकास माॅडल, सावर्जनिक परिवहन प्रणाली की व्यापकता, सामथ्र्य और वैश्विक बाजारू शक्तियों की मंशा पर निर्भर करेगा।
कितना वाजिब आशंका का आधार ?
गौर कीजिए कि इन आशंकाओं का आधार आर्थिक है और जलवायु परिवर्तन के मसले पर विरोधी स्वरों का भी। क्या यह दुखद नहीं कि तापमान वृद्धि रोकने जैसे जीवन रक्षा कार्य में भी दुनिया, मसलों में बंट गई है। दुनिया, ’प्रदूषण करो, दण्ड भरो’ के सिद्धांत की दुहाई दे रही है। आर्थिक-सामाजिक न्याय की दृष्टि से आप इसे सही मानने को स्वतंत्र हैं, किंतु यह सही है नहीं। क्या पैसे पाकर आप, ओजोन परत के नुकसानदेह खुले छेदों को बंद कर सकते हैं ? धरती पर जीवन की नर्सरी कहे जाने वाली मूंगा भित्तियां पूरी तरह नष्ट हो जायेंगी, तब जीवन बचेगा; क्या दुनिया की बङी से बङी अर्थव्यवस्था इसकी गारंटी दे सकती है ?
प्रदूषण, जान लेता है। प्रश्न यह है कि आखिरकार कोई प्रदूषक, सिर्फ दण्ड भरकर किसी की हत्या के अपराध से कैसे मुक्त हो सकता है ? ’प्रदूषण करो और दण्ड भरो’ के इसी सिद्धांत के कारण, आज भारत में भी प्रदूषक, प्रदूषण करने से नहीं डरते। यह सिद्धांत, प्रदूषण रोकने की बजाय, भ्रष्टाचार बढाने वाला सिद्ध हो रहा है। जब तक यह सिद्धांत रहेगा, पैसे वाले प्रदूषक मौज करेंगे और गरीब मरेंगे ही मरेंगे ही। इस सिद्धांत के आधार पर जलवायु परिवर्तन के कारकों पर लगाम लगाना कभी संभव नहीं होगा। जरूरत, इस सिद्धांत को चुनौती देकर, प्रदूषकों को मुश्कें कसने की है। जरूरी है कि एक सीमा से अधिक प्रदूषण को, हत्या के जानबूझकर किए प्रयास की श्रेणी में रखने के राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय कानून बनें। कानून की पालना की पुख्ता व्यवस्था बने। आगे चलकर, धीरे-धीरे प्रदूषण सीमा को घटाकर शून्य पर लाने की समय सीमा तय हो। शून्य प्रदूषण पर पहुंचे उत्पादनकर्ता के लिए प्रोत्साहन प्रावधान भी अभी सुनिश्चित हो। जो अंग जितना अधिकतम यत्न कर सकता है, उसे उतनी क्षमता और पूरी ईमानदारी से अधिकतम उतना साझा करना चाहिए। संकट में साझे का सामाजिक सिद्धांत यही है। इसी सिद्धांत को आगे रखकर ही हमें पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते पर आगे बढ़ना चाहिए।
यूं भी हम याद करें कि योजनायें और अर्थव्यवस्थायें, उपलब्ध अर्थ के आधार पर चल सकती हैं, पर ’अर्थ’ यानी पृथ्वी और इसकी जलवायु नहीं। जलवायु परिवर्तन का वर्तमान संकट, अर्थ संतुलन साधने से ज्यादा, जीवन संतुलन साधने का विषय है। स्वयं को एक अर्थव्यवस्था मानकर, यह हो नहीं सकता। हमें पृथ्वी को शरीर और स्वयं को पृथ्वी का एक शारीरिक अंग मानना होगा। प्राण बचाने के लिए अंग एक-दूसरे की प्रतीक्षा नहीं करते। प्राकृतिक संरक्षण का सिद्धांत है। भारत को भी प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए कि दुनिया के दूसरे देश क्या करते हैं ? इसका मतलब यह कतई नहीं कि हम उन्हे उनके दायित्व निर्वाह की पूर्ति हेतु विवश करने की मुहिम से पीछे हट जायें। उन पर नजर रखें; उचित करने को दबाव बनायें; किंतु हम यह तभी कर सकते हैं, जब पहले हमने खुद उचित कर लिया हो। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने भारत के उत्सर्जन की स्वैच्छिक कटौती के भारत प्रस्ताव की घोषणा के लिए गांधी जयंती, 2015 के दिन को चुना। महात्मा गांधी ने दूसरों से वही अपेक्षा की, जो पहले खुद कर लिया। भारत के पास प्रतीक्षा करने का विकल्प इसलिए भी शेष नहीं है, चूंकि भारत की सामाजिक, आर्थिक और भौगोलिक परिस्थितियां अन्य देशों से बहुत भिन्न, विविध व जटिल हंै।
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काॅप 21: पक्ष-विपक्ष
बान की मून (संयुक्त राष्ट्र महासचिव ) – ’’यह धरती के लिए ऐतिहासिक जीत का क्षण है। इससे दुनिया से गरीबी खत्म करने का मंच तैयार होगा। यह सभी देशों के सामूहिक प्रयास का नतीजा है। कोई यह लक्ष्य अकेले हासिल नहीं कर सकता था।’’
बाराक ओबामा (अमेरिकी राष्ट्रपति) – ’’आज अमेरिकी गर्व कर सकते हैं कि सात सालों से हमने अमेरिका को जलवायु परिवर्तन से लङने में विश्व प्रमुख बनाया है। यह समझौता धरती को बचाने के हमारे प्रयासों को सफल बनायेगा।’’
अल गोर (पूर्व अमेरिकी उपराष्ट्रपति) – ’’मैं पिछले दो दशक से इस तरह के सम्मेलनों में जाता रहा हूं। मेरी नजर में यह सबसे कुशल कूटनीति का नतीजा है।’’
माइगेल एरिस कनेटे (जलवायु प्रमुख, यूूरोप) – ’’यह आखिरी मौका था और हमने इसे पकङ लिया।’’
डैविड कैमरन (ब्रितानी प्रधानमंत्री) -’’इस पीढ़ी ने अपने बच्चों को सुरक्षित धरती सौंपने के लिए अह्म कदम उठाया है। इस समझौते की खूबी यह है कि इसमें धरती बचाने के लिए हर देश को जिम्मेदारी दी गई है।’’
नरेन्द्र मोदी ( भारतीय प्रधानमंत्री, भारत सरकार) – ’’पेरिस समझौते का जो परिणाम है, उसमें कोई भी हारा या जीता नहीं है। जलवायु न्याय जीता है और हम सभी एक हरित भविष्य के लिए काम कर रहे हैं।’’
प्रकाश जावेङकर ( केन्द्रीय वन एवम् पर्यावरण मंत्री, भारत सरकार) – ’’ यह एक ऐसा ऐतिहासिक दिन है, जब सभी ने सिर्फ एक समझौते को अंगीकार ही नहीं किया, बल्कि धरती के सात अरब लोगों के जीवन में उम्मीद का एक नया अध्याय भी जोङा।..हमने आज भावी पीढि़यों को यह आश्वासन दिया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण उपजी चुनौती को कम करने के लिए हम सब मिलकर काम करेंगे और उन्हे एक बेहतर भविष्य देंगे।’’
कुमी नायडू ( कार्यकारी अधिकारी, ग्रीनपीस इंटरनेशनल) -’’कभी-कभी लगता है कि सयंुक्त राष्ट्र संगठन के सदस्य देश कभी किसी मुद्दे पर एकजुट नहीं हो सकते, किंतु करीब 200 देश एक साथ आये और समझौता हुआ।’’
स्ट्रर्न (अगुआ जलवायु अर्थशास्त्री) – ’’उन्होने अत्यंत सावधानी बरती; सभी को सुना और सभी से सलाह ली।.. यह फ्रंास के खुलेपन, राजनयिक अनुभव और कौशल से संभव हुआ।’’
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शी जेनहुआ (चीन के वार्ताकार) -’’हालांकि, यह समझौता हमें आगे बढ़ने से नहीं रोकता, किंतु समझौता श्रेष्ठ नहीं है। कुछ मामलों में काफी सुधार की जरूरत है।’’
पाॅल ओक्टिविस्ट (निकारगुआ के प्रतिनिधि) ’’हम संधि का समर्थन नहीं करते। यह वैश्विक तापमान को कम करने व प्रभावित गरीब देशों की मदद के मामले में नाकाफी है।’’
तोसी मपाने (कांगों के वार्ताकार ) – ’’ ग्रीन क्लाइमेट फंड की बात समझौते में होनी थी, किंतु यह बाध्यकारी हिस्से मंे नहीं है। उन्होने इसे कानूनी रूप नहीं लेने दिया।’’
सुनीता नारायण (महानिदेशक, विज्ञान एवम् पर्यावरण केन्द्र, दिल्ली) – ’’यह एक कमज़ोर और गैर महत्वाकांक्षी समझौता है। इसमें कोई अर्थपूर्ण लक्ष्य शामिल नहीं है।’’
जेम्स हेनसन (विशेषज्ञ) – ’’ यह समझौता, एक झूठ है। यह धोखापूर्ण है। यही इसकी सच्चाई है।…इसमें कोई कार्रवाई नहीं है, सिर्फ वादे हैं।… जब तक जीवाश्म ईंधन सस्ते मंे उपलब्ध रहेगा; यह जलाया जाता रहेगा।’’
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क्यों बदली आबोहवा ?
कुदरत ने वायुमंडल मंे मुख्य रूप से आॅक्सीजन और नाइटोजन का मुख्य घटक बनाया। सूरज की पराबैंगनी किरणों को रोकने के लिए 10 से 15 किलोमीटर की उंचाई पर आजोन गैस की सुरक्षा परत बनाई। हमने क्या किया ? हमने ओजोन की चादर को पहले कंबल, फिर रजाई और अब हीटर बना दिया। वायुमंडल मंे कार्बनडाइआॅक्साइड की मात्रा इसलिए बनाई, ताकि धरती से लौटने वाली गर्मी को बांधकर तापमान का संतुलन बना रहे। इसकी सीमा बनाने के लिए उसने कार्बन डाई आॅक्साइड के लिए सीमित स्थान बनाया। हमने यह स्थान घेरने की अपनी रफ्तार को बढ़ाकर 50 अरब मीट्रिक टन प्रति वर्ष तक तेज कर लिया। जानकारों के मुताबिक, वायुमंडल मंे मात्र एक हजार अरब टन कार्बन डाई आॅक्साइड का स्थान बचा है; यानी अगले 20 वर्ष बाद वायुमंडल में कार्बन डाई आॅक्साइड के लिए कोई स्थान नहीं बचेगा। नतीजे मंे कहा जा रहा है कि वर्ष 2100 तक दुनिया 2.7 डिग्री तक गर्म होने के रास्ते पर है। वल्र्ड वाच इंस्टीट्युट की रपट भिन्न है। वह अगले सौ वर्षों मंे हमारे वायुमंडल का तापमान पांच डिग्री सेल्सियस तक अधिक हो जाने का आकलन प्रस्तुत कर रहा है। ये आंकङे कितने विश्वसनीय है;ं कहना मुश्किल है। हां, यह सच है कि इस तापमान वृद्धि से मिट्टी का तापमान, नमी, हवा का तापमान, दिशा, तीव्रता, उमस, दिन-रात तथा मौसम से मौसम के बीच में तापमान सीधे प्रभाव में हैं। क्या होगा ?
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अरुण तिवारी
लेखक ,वरिष्ट पत्रकार व् सामजिक कार्यकर्ता
1989 में बतौर प्रशिक्षु पत्रकार दिल्ली प्रेस प्रकाशन में नौकरी के बाद चौथी दुनिया साप्ताहिक, दैनिक जागरण- दिल्ली, समय सूत्रधार पाक्षिक में क्रमशः उपसंपादक, वरिष्ठ उपसंपादक कार्य। जनसत्ता, दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, अमर उजाला, नई दुनिया, सहारा समय, चौथी दुनिया, समय सूत्रधार, कुरुक्षेत्र और माया के अतिरिक्त कई सामाजिक पत्रिकाओं में रिपोर्ट लेख, फीचर आदि प्रकाशित।
1986 से आकाशवाणी, दिल्ली के युववाणी कार्यक्रम से स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता की शुरुआत। नाटक कलाकार के रूप में मान्य। 1988 से 1995 तक आकाशवाणी के विदेश प्रसारण प्रभाग, विविध भारती एवं राष्ट्रीय प्रसारण सेवा से बतौर हिंदी उद्घोषक एवं प्रस्तोता जुड़ाव।
इस दौरान मनभावन, महफिल, इधर-उधर, विविधा, इस सप्ताह, भारतवाणी, भारत दर्शन तथा कई अन्य महत्वपूर्ण ओ बी व फीचर कार्यक्रमों की प्रस्तुति। श्रोता अनुसंधान एकांश हेतु रिकार्डिंग पर आधारित सर्वेक्षण। कालांतर में राष्ट्रीय वार्ता, सामयिकी, उद्योग पत्रिका के अलावा निजी निर्माता द्वारा निर्मित अग्निलहरी जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रमों के जरिए समय-समय पर आकाशवाणी से जुड़ाव।
1991 से 1992 दूरदर्शन, दिल्ली के समाचार प्रसारण प्रभाग में अस्थायी तौर संपादकीय सहायक कार्य। कई महत्वपूर्ण वृतचित्रों हेतु शोध एवं आलेख। 1993 से निजी निर्माताओं व चैनलों हेतु 500 से अधिक कार्यक्रमों में निर्माण/ निर्देशन/ शोध/ आलेख/ संवाद/ रिपोर्टिंग अथवा स्वर। परशेप्शन, यूथ पल्स, एचिवर्स, एक दुनी दो, जन गण मन, यह हुई न बात, स्वयंसिद्धा, परिवर्तन, एक कहानी पत्ता बोले तथा झूठा सच जैसे कई श्रृंखलाबद्ध कार्यक्रम। साक्षरता, महिला सबलता, ग्रामीण विकास, पानी, पर्यावरण, बागवानी, आदिवासी संस्कृति एवं विकास विषय आधारित फिल्मों के अलावा कई राजनैतिक अभियानों हेतु सघन लेखन। 1998 से मीडियामैन सर्विसेज नामक निजी प्रोडक्शन हाउस की स्थापना कर विविध कार्य।
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ग्राम- पूरे सीताराम तिवारी, पो. महमदपुर, अमेठी, जिला- सी एस एम नगर, उत्तर प्रदेश डाक पताः 146, सुंदर ब्लॉक, शकरपुर, दिल्ली- 92
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