– अरुण तिवारी –
क्या गजब की बात है कि जिस-जिस पर खतरा मंडराया, हमने उस-उस के नाम पर दिवस घोषित कर दिए! मछली, गोरैया, पानी, मिट्टी, धरती, मां, पिता…यहां तक कि हाथ धोने और खोया-पाया के नाम पर भी दिवस मनाने का चलन चल पङा है। यह नया चलन है; संकट को याद करने का नया तरीका।
यूं अस्तित्व में आया मानवाधिकार दिवस
संकट का एक ऐसा ही समय तक आया, जब द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत हुई। वर्ष 1939 – पूरे विश्व के लिए यह एक अंधेरा समय था। उस वक्त तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति फैं्रकलिन रुजावेल्ट ने अपने एक संबोधन में चार तरह की आज़ादी का नारा बुलंद किया: अभिव्यक्ति की आज़ादी, धार्मिक आजादी, अभाव से मुक्ति और भय से मुक्ति। छह जनवरी, 1941 को अमेरिकी कांग्रेस श्री रुजावेल्ट के उस संबोधन को ’फोर फ्रीडम स्पीच’ का नाम दिया गया। चार तरह की आज़ादी की यही अपेक्षा, आगे चलकर संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा मानवाधिकार संबंधी घोषणा का आधार बनी। संयुक्त राष्ट्र की आम सभा ने 10 दिसंबर, 1948 को मानवाधिकार संबधी घोषणा की। घोषणापत्र मंे प्रस्तावना के अलावा 39 धारायें थी। मूल मंतव्य था, मानव के मौलिक अधिकारों का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संरक्षण किया जाये। उस घोषणापत्र को दुनिया की 380 भाषाओं मंे अनुदित किया गया। एक दस्तावेज के इतनी अधिक भाषाओं में अनुदित होना, स्वयमेव एक रिकाॅर्ड बनकर गिन्नीज वल्र्ड बुक में दर्ज हो गया। घोषणापत्र, दुनिया में लागू हुआ हो या न हुआ हो, किंतु चार दिसंबर, 1950 को बैठी संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा ने घोषणापत्र जारी करने की तिथि यानी 10 दिसंबर को औपचारिक रूप से ’विश्व मानवाधिकार दिवस’ घोषित कर दिया।
सहमति के 50 साल
गौर कीजिए कि संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा आगे चलकर दो पहलुओं पर वैश्विक सहमति बनाने में सफल रही: पहला – आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार; दूसरा -राजनैतिक और नागरिक अधिकार। तारीख थी -16 दिसंबर,1966। वर्ष 2015-16, एक तरह से मानवाधिकार संबंधी वैश्विक सहमति की पचासवीं वर्षगांठ है। अतः इस वर्ष को उक्त सहमति बिंदुओं को समर्पित किया गया है। संयुक्त राष्ट्र इस विषय पर एक वर्षीय अभियान चलायेगा। इस मौके पर संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव श्री बान की मून ने सभी मानवाधिकार संरक्षण तथा मौलिक आजादी की गारंटी हेतु स्वयं को पुनर्संकल्पित करने का आहृान् किया है, किंतु क्या हमें मानवाधिकार के रूप-रंग, चाल-ढ़ाल, परिभाषा से सचमुच सही-सही परिचित करा दिया गया है ? ऐसा तो नहीं कि मानवाधिकार के नाम पर एक व्यक्ति के अधिकारों की पूर्ति के लिए हम दूसरे व्यक्ति के अधिकार की पूर्ति मंे खलल डालने के काम मंे लगे हों ? मानवाधिकार पूर्ति के लक्ष्य और लक्षणों को कई उक्तियां कही गई हैं। उनका संदेश यही है कि मानवाधिकार का उल्लंघन करने का मतलब, मानवता को चुनौती देना है। जरा सोचिए, मानवता को चुनौती देकर क्या कोई मानव, मानव बना रह सकता है ?
मानवाधिकार का मायने
यदि हम मानवाधिकार का वर्तमान उल्लंघन जारी रहने देते हैं, तो निश्चित जानिए कि भावी विवादों की नींव रखने वालों में हम भी शामिल हैं। हमंे समझना होगा कि न्याय, जब तक पानी की तरह ऊपर से नीचे की तरफ पानी की तरह प्रवाहमान नहीं होता, अधिकार की प्राप्ति एक ऐसी शक्तिशाली नदी की तरह रहेगी, जिसे हासिल करना सहज नहीं। उससे सिर्फ आका्रंत हुआ जा सकता है। कहते हैं कि युद्ध के समय कानून शांत रहता है। ऐसे में मानवाधिकार की रक्षा कानून नहीं, बल्कि हमारी संवेदना और संकल्प के ही बूते की जा सकती है। इसकी तैयारी तभी हो सकती है कि जब हम समझें कि किसी एक के प्रति हुआ अन्याय, हम में से प्रत्येक के लिए एक चेतावनी है। अतः अन्याय के खिलाफ आज ही चेतें; आज ही अपना दायित्व समझें और निभायें। जिनसे हम सहमत हैं, यदि उनसे बातचीत जारी रखना चाहते हैं, तो हमें उनकी अभिव्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करनी होगी, जिनसे हम सहमत नहीं हैं; वरना् तय मानिए कि कल को हम इस लायक नहीं बचेंगे कि हमारी सहमति और असहमति का कोई मतलब हो। असहिष्णुता को लेकर छिङी जंग में आमने-सामने खङे पक्षों को यह उक्ति अच्छी तरह याद कर लेनी चाहिए।
दरअसल, मानवाधिकार की असली समझ..असली शिक्षा वही है, जो हमें जिंदगी के वास्तविक मुद्दों से जोङती हो और उनमें ऐसे बदलाव के लिए समर्थ बनाती हो, जिनका मानवता के लिए वाकई कोई मतलब हो। हमारे रंग-रूप, वेश-भूषा, प्रांत-बोली, अमीरी-गरीबी… सब कुछ भिन्न हो सकते हैं, किंतु यदि अवसरों में समान हिस्सेदारी सुनिश्चित कर सकें, तो यही मानवाधिकार है। एक मानव द्वारा दूसरे मानवांे के अधिकारों का सम्मान किए बगैर यह हो नहीं सकता। अपनी व्यक्तिगत आज़ादी को सामूहिक तरक्की के लिए इस्तेमाल करके यह हो सकता है; किंतु क्या यह हो रहा है ? वर्ष 2015 के इस मानवाधिकार दिवस पर सोचने के लिए यह प्रश्न काफी है।
पानी और मानवाधिकार
पानी के भारतीय परिदृश्य को ही लें। परिदृश्य निश्चित ही चिंतित करने वाला है। प्राकृतिक संसाधनों को अपने हक में लाने के लिए अंग्रेजी हुकूमत ने लोगों को कुदरत के दिए इस अनुपम उपहार के हक से वंचित कर दिया। हालांकि ’जिसकी भूमि-उसका भूजल’ का निजी अधिकार पहले भी भूमालिकों के हाथ था और आज भी है, लेकिन नदियां-जंगल आदि सतही स्तोत्र हुकूमत के हो गये। ’रेल नीर’ को कोई कारखाना, किसी इलाके में जाता है, और खेती पर निर्भर लोगों के हक का सारा पानी लाकर पैसा कमाता है। दिल्ली वालों के पास पैसा है, तो वे टिहरी के हक का गंगाजल, अपने शौचालयों में बहाते हैं। जेट पंप वाला, समर्सिबल और समर्सिबल वाला टयुबवैल तथा टयुबवैल वाला किसी के भी कुआं सुखाने के लिए स्वतंत्र है। इससे मानवाधिकार संरक्षण के संकल्प की रक्षा कहां हुई ? शासन ही नहीं, स्वयं हमें भी अपनी हकदारी तो ध्यान है, जवाबदारी याद करने वाले कितने हैं ? मानवाधिकार के नाम पर, क्या हमने नदी, समुद्र, तालाब, झील और न मालूम कितने जीवों से उनके जीने का हक छीन नहीं लिया ? मानवाधिकार की संकल्पना के असल मायने क्या हम भूल नहीं गये है ? सोचिए!
कितना सहायक व्यावसायीकरण ?
गौर कीजिए कि हमारी सरकारों ने हमें पानी पिलाने के लिए जिन पीपीपी माॅडलों को चुनना शुरु किया है, उनमें सिर्फ पैसे वाले के लिए ही पानी है; जिसके पास पैसा नहीं है, उसके लिए पानी नहीं है। यह विडम्बना नहीं तो और क्या है कि निजीकरण के रास्ते आये जल व्यावासायीकरण के कड़वे वैश्विक अनुभवों के बावजूद हम सीखने को तैयार नहीं हैं। अनुभव यह है कि चैबीसों घण्टे निर्बाधित पानी की आपूर्ति के समझौते के एवज में यदि वसूली पूरी न हो पाये, तो टैक्स लगा दो, या पूर्व टैक्स को बढ़ा दो। कंपनियों के मुनाफे के लिए गरीबों से भी वसूली कहां का न्याय हैं ? इसी अन्याय के लिए बस स्टैंडों, रेलवे स्टेशनों तथा अन्य सार्वजनिक स्थलों से सार्वजनिक नल धीरे-धीरे गायब होने लगे हैं और निजी कंपनियों की बोतलें चारों तरफ सज उठी हैं। आजीविका और जीवन… दोनो केे लिए पानी जरूरी है। क्या पानी पिलाना सरकार का दायित्व नहीं है ? शिक्षा, सेहत, छत, खेती, पानी और परिवहन जैसी बुनियादी जरूरतांे की पूर्ति सरकार का दायित्व है। बुनियादी ढांचागत क्षेत्र में मुनाफाखोरी के प्रयासों को परवान चढाना सरकारों का दायित्वपूर्ति से भाग जाना है। दायित्व से भागने वाली ऐसी सरकारों को मानवाधिकार संरक्षक कैसे कहा जा सकता है ? सरकारों के इस शगल के कारण ही आज जीवन जीने का हमारा संवैधानिक अधिकार भी एक मजाक बनकर ही रह गया है।
भूजलाधिकार छीन लेगी जलनीति
भारतीय जलनीति, हमारे जलाधिकार पर स्वयंमेव एक कुठाराघात है। इसका सबसे खतरनाक कदम भूजल को निजी हक से निकालकर सार्वजनिक बनाना है। जलनीति में लिखा है – ’’भारतीय भोगाधिकार अधिनियम-1882 सिंचाई अधिनियम जैसे अन्य मौजूदा अधिनियमोें में उस सीमा तक संशोधन करना पङ सकता है, जहां ऐसा प्रतीत होता है कि अधिनियम भूमि स्वामी को उसकी भूमि के नीचे के भूजल का मालिकाना हक प्रदान करता है।’’ अपनी मंशा को और साफ करते हुए नीति कहती है कि राज्य को सेवाप्रदाता से धीरे-धीरे सेवाओं के नियामकों और व्यवस्थापकों की भूमिका में हस्तांतरित होना चाहिए। अतिदोहन रोकने के नाम पर उठाये जा रहे इस एक कदम से करोङों गरीब भ्रष्टाचार की भेंट चढने को मजबूर हो जायेंगे। जिनके पास पैसा है, वकील हैं, दलाल हैं… वे जलनिकासी की अनुमति पा जायेंगे। गरीब, मजदूर और किसान तो कलक्टर-पटवारी-पतरौल की मेज तक भी नहीं पहुंच पायेगा। भू-मालिक से जलाधिकार छीन जायेगा, बदले मंे बदहाली हाथ आयेगी। जलशुल्क न दे पाने वाले गरीबों को कंपनियों के लठैत उठा ले जायेंगे।
कानून, कर्तव्य और जलाधिकार
भूजल के अतिदोहन पर लगाम लगाने का यह ठीक रास्ता नहीं है। स्थानीय परिस्थितियों व जनसहमति के जरिए जलनिकासी की अधिकतम गहराई को सीमित कर जलनिकासी को नियंत्रित तथा जलसंचयन को जरूरी बनाया जा सकता है। यदि सरकार पानी के अनुशासित उपयोग को बढावा देना चाहती है; जलोपयोग क्षमता बढाना चाहती है, तो एक नियम बनाये और उसका लागू होना सुनिश्चित करे – ’’ जो जितना पानी निकाले, उतना और वैसा पानी संजोये भी।’’ यह सभी के लिए हो। फैक्टरी के लिए भी, राष्ट्रपति भवन, दिल्ली विश्वविद्यालय के लिए भी और किसान के लिए भी। बारिश के पानी को इकट्ठा करने के अलावा उपयोग किए पानी के दोबारा प्रयोग से भी यह किया जा सकता है। यह एक अकेला नियम लागू होकर ही मांग-उपलब्धि के अंतर को इतना कम कर देगा, कि बाकी बहुत सारे प्रश्न गौण हो जायेेंगे। हमारी जलनीति प्राकृतिक संसाधनों पर मालिकाना हक सुनिश्चित कर सके, तो दूसरे कई विवाद होंगे ही नहीं।
पब्लिक ट्रस्टीशिप के सिद्धांत के मुताबिक जंगल, नदी, समुद्र, हवा जैसे महत्वपूर्ण संसाधनों की सरकार सिर्फ ट्रस्टी है, मालकिन नहीं। ट्रस्टी का काम देखभाल करना होता है। भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी ऐसे संसाधनों को निजी कंपनी को बेचने को अन्यायपूर्ण माना है। न्यायालय की इस मान्यता के बावजूद यह बहस तो फिलहाल खुली ही है कि यदि सरकार ट्रस्टी है, तो इन संसाधनों का मालिक कौन है ? सिर्फ संबंधित समुदाय या प्रकृति के समस्त स्थानीय जीव ? दूसरा, यह कि मालिक यदि मालिक समुदाय या समस्त जीव हैं, तो क्या उन्हे हक है कि वे सौंपे गये संसाधनों की ठीक से देखभाल न करने की स्थिति में सरकार को बेदखल कर, इन संसाधनों की देखभाल खुद अपने हाथ में ले ले ? जो जवाबदारी के लिए हकदारी जरूरी मानते हैं, उन्हे आज भी इन सवालांे के जवाब की प्रतीक्षा है। लेकिन उन्हे यह कब याद आयेगा कि जवाबदारी निभाने से हकदारी खुद-ब-खुद आ जाती है ? याद रखने की जरूरत यह भी है कि कुदरत की सारी नियामतें सिर्फ इंसान के लिए नहीं हैं, दूसरे जीव व वनस्पतियों का भी उन पर बराबर का हक है। अतः उपयोग की प्राथमिकता पर हम इंसान ही नहीं, कुदरत के हर जीव व वनस्पतियों की प्यास को सबसे आगे रखें। नदी को बहने की आज़ादी चाहिए। नदी की भूमि उसे वापस लौटाकर, यह किया जा सकता है। हम यह करें। पानी के मानवाधिकार की मांग यही है।
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अरुण तिवारी
लेखक ,वरिष्ट पत्रकार व् सामजिक कार्यकर्ता
1989 में बतौर प्रशिक्षु पत्रकार दिल्ली प्रेस प्रकाशन में नौकरी के बाद चौथी दुनिया साप्ताहिक, दैनिक जागरण- दिल्ली, समय सूत्रधार पाक्षिक में क्रमशः उपसंपादक, वरिष्ठ उपसंपादक कार्य। जनसत्ता, दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, अमर उजाला, नई दुनिया, सहारा समय, चौथी दुनिया, समय सूत्रधार, कुरुक्षेत्र और माया के अतिरिक्त कई सामाजिक पत्रिकाओं में रिपोर्ट लेख, फीचर आदि प्रकाशित।
1986 से आकाशवाणी, दिल्ली के युववाणी कार्यक्रम से स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता की शुरुआत। नाटक कलाकार के रूप में मान्य। 1988 से 1995 तक आकाशवाणी के विदेश प्रसारण प्रभाग, विविध भारती एवं राष्ट्रीय प्रसारण सेवा से बतौर हिंदी उद्घोषक एवं प्रस्तोता जुड़ाव।
इस दौरान मनभावन, महफिल, इधर-उधर, विविधा, इस सप्ताह, भारतवाणी, भारत दर्शन तथा कई अन्य महत्वपूर्ण ओ बी व फीचर कार्यक्रमों की प्रस्तुति। श्रोता अनुसंधान एकांश हेतु रिकार्डिंग पर आधारित सर्वेक्षण। कालांतर में राष्ट्रीय वार्ता, सामयिकी, उद्योग पत्रिका के अलावा निजी निर्माता द्वारा निर्मित अग्निलहरी जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रमों के जरिए समय-समय पर आकाशवाणी से जुड़ाव।
1991 से 1992 दूरदर्शन, दिल्ली के समाचार प्रसारण प्रभाग में अस्थायी तौर संपादकीय सहायक कार्य। कई महत्वपूर्ण वृतचित्रों हेतु शोध एवं आलेख। 1993 से निजी निर्माताओं व चैनलों हेतु 500 से अधिक कार्यक्रमों में निर्माण/ निर्देशन/ शोध/ आलेख/ संवाद/ रिपोर्टिंग अथवा स्वर। परशेप्शन, यूथ पल्स, एचिवर्स, एक दुनी दो, जन गण मन, यह हुई न बात, स्वयंसिद्धा, परिवर्तन, एक कहानी पत्ता बोले तथा झूठा सच जैसे कई श्रृंखलाबद्ध कार्यक्रम। साक्षरता, महिला सबलता, ग्रामीण विकास, पानी, पर्यावरण, बागवानी, आदिवासी संस्कृति एवं विकास विषय आधारित फिल्मों के अलावा कई राजनैतिक अभियानों हेतु सघन लेखन। 1998 से मीडियामैन सर्विसेज नामक निजी प्रोडक्शन हाउस की स्थापना कर विविध कार्य।
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