– राजबाला अरोरा –
दो मार्ग जंगल की तरफ जाते थे। एक आम रास्ता था, दूसरा बहुत कम आवागमन वाला मार्ग। युवा नेकचंद ने कम आवागमन वाले रास्ते को चुना। जंगल में उसने सुरक्षित स्थान तलाषा और जुट गया अपनी कल्पना को आकार देने। देवनगरी वहां बसाने की सोच लिए वो अपनी साइकिल पर कभी पत्थर कभी अन्य टूटी फूटी वस्तुएं ढोकर लाता। फिर उसने सीमेंट और बजरी की मदद से उन वस्तुओं को आकार देने लगता। उसने भौतिकतावादी समाज द्वारा उपभोग के बाद त्याग दी गई अनुपयोगी वस्तुओं मसलन पोर्सलिन के बैड कंडक्टर, स्विच, टूटे खंभे, बोतलों के ढक्कन खाली ड्रम, टूटी चूड़ियां, कप प्लेटें, फर्ष की टाइलें, साइकिल व मोटरसाइकिल के पुर्जे, जंग लगे पहिए, औद्योगिक कचरा, मुड़े तुड़े तारों के गुच्छे, सरिये, फटे पुराने कपड़े व बोरियां आदि जो भी उसकी नजर चढ़े, उन सबको साइकिल पर लाद कर जंगल में इकठ्ठा करता और उन वस्तुओं को कलात्मक रूप में ढाल कर नए नए बिंब और आकृतियां गढ़ता। इस प्रकार नेकचंद की अभिकल्पना आकार लेने लगी, जिसे उसने अपनी मेहनत और पसीने से सींचा और देखते देखते वहां एक देवनगरी के रूप में पत्थरों का बागीचा आकार लेने लगा जो आगे चलकर भविष्य की बेमिसाल धरोहर बनने वाली थी।
उस समय चंडीगढ़ का निमार्ण हो रहा था। स्विस मूल के फ्रेंच आर्किटेक्ट ली कार्बुजियर द्वारा हिंदुस्तान का आधुनिक शहर बसाया जा रहा था। इधर चंडीगढ़ में कंकरीट के खंभों पर विषाल भवन बनाए जा रहे थे। बाद में बहुत से भवनों का नाम तो उनके खंभों की संख्या पर ही पड़ गया। पूरा शहर आयताकार और वर्गाकार सैक्टरों और फैक्टरों में आकार ले रहा था। वहां के पुराने सत्ताईस गांव खाली कराए जा चुके थे। वहां घर छोड़कर जाने वालों ने ऐसी बहुत सी अनुपयोगी वस्तुएं थी। नेकचंद जो वहां लोक निर्माण विभाग में रोड इंसपेक्टर की नौकरी करते थे, उन गांवों में जाया करते थे।
ग्रामीणों के लेफ्ट ओवर (छोडी गई वस्तुओं) में से जो भी जमता नेकचंद उसे उठा लाता और देवलोक में आने के बाद उस वस्तु का नया अवतार हो जाता था। वस्तु या तो कलाकृति बन जाती या कलाकृति का हिस्सा बन जाती़। उन उजड़े हुए घरों ने और चंडीगढ़ में पाष्चात्य ढंग से किए जा रहे निर्माण कार्य ने नेकचंद की निर्माण क्षमता में अभिवृद्धि कर दी, जिससे उसकी कल्पनाएं तरह तरह की उड़ान भरने लगीं। नेकचंद की यह परिकल्पना ‘रॉक गार्डन’ के रूप में आज विष्व में प्रसिद्ध विशाल लोक कला परिसर में बना पत्थरों का गार्डन है।
मुझे अच्छी तरह से याद है जब मैं शादी के बाद अपने ससुराल चंडीगढ़ आई थी तो पहली बार रॉक गार्डन देखने गई थी। तब कुछ ही एकड़ में फैले इस गार्डन की अद्भुत कलाकृतियों ने मेरा मन मोह लिया था। हाल ही में दुबारा रॉक गार्डन देखने गई तो यह मुझे नए एवं विस्तारित रूप में मिला, जो और भी विस्मयकारी था। इस बार निर्जीव वस्तुओं के साथ साथ सजीव वस्तुओं का भी समावेष एक सुखद एहसास करा गया। चालीस एकड़ क्षेत्र के विषाल परिसर में फैली इस अनूठी कायनात को बनाने वाला ऊर्जावान सचमुच एक असाधारण व्यक्ति है। पता चला कि वे यहीं एक छोटे से कार्यालय में रहते हैं तो उनसे मिलने की इच्छा और भी तीव्र हो उठी।
बड़े बड़े लोहे के ड्रमों को एक दूसरे के ऊपर रख कर बड़ी ही खूबसूरती से बनाए गेट से होकर जब हम अंदर घुसे तो दूसरे गेट के द्वार पर बैठे बूढ़े दरबान ने हमें वहीं रोक दिया। परिचय देने पर उसने भीतर से आज्ञा लेकर बड़े आदर के साथ हमें अंदर जाने की इजाजत दे दी।वहां पहुंचे तो कार्यालय कक्ष के भीतर का नजारा बड़ा अजीब था। वहां चारों तरफ फैले किताबों व फाइलों के अंबार से कक्ष अटा पड़ा था। कक्ष की भीतरी छत(रूफ) पर गोल पत्थर के बटिये चिपके हुए थे। ऐसा लग रहा था मानो पत्थरों के गोल टुकड़ों से भरी चॉपकरण के आकार की सूखी नदी को उल्टा टांग दिया गया हो। वहीं कक्ष के भीतर किताबों, फाइलों के अंबार से घिरे मामूली सी कुर्सी पर बैठे एक बूढ़ी सख्सियत को देखा। कुर्सी पर बैठी सख्सियत से जब हमारा परिचय नेकचंद सैनी के रूप में हुआ तो हम आश्चर्यचकित हुए बिना न रह सके। चौरासी वर्ष की उम्र में भी वे आज भी नए नए सृजनात्मक क्रियाकलाप में जुटे हैं। जब उन्हें पता चला कि मैं ग्वालियर से उनके बारे में जानने के लिए दूर से आई हूं तो उन्हें बेहद खुशी हुई। बहुत ही आत्मीयता से उन्होंने हमारा स्वागत किया। सीधे व सरल हृदय स्वभाव के नेकचंद जी ने हमारे सामने अपना अतीत, वर्तमान सब खोल कर रख दिया। बातचीत का दौर यूं ही चलता रहा। इस बीच एक छोटी सी घटना से हमें उनके विनोदी स्वभाव का भी पता चला। हुआ यूं कि कार्यालय कक्ष की सभी दीवारों पर छोटे बडे़ आकार की कई तस्वीरें टंगी थीं, जिसमें नेकचंद जी विभिन्न महान हस्तियों से पुरस्कार लेते या अन्य किसी के साथ खड़े दिखायी दे रहे थे। तभी मेरी नजर उनकी कुर्सी के पीछे रखे एक पाकिस्तानी फौजी अफसर की वेषभूषा में चालीस-पैंतालीस की उम्र के आदमी के पोट्रेट पर पड़ी। मैंने जब उनसे इस बाबत पूछा तो उन्होंने उस पोट्रेट को अपना बताया और कहा कि मैं वहां पाकिस्तान में फौज में कर्नल था तो हमें सहसा विश्वास नहीं हुआ। आज्ञा लेकर जब वह पोट्रेट उनकी बगल में रखा तो भी कोई मेल न दिखने पर हमारी प्रश्न भरी निगाहें नेकचंद जी पर पड़ी तो वे ठठ्ठा मार कर हँस पड़े और कहा कि यह मैं नहीं हूं बल्कि यह तस्वीर मेरे एक प्रशंसक की है। मैं कभी कभी लोगों से ऐसे ही मज़ाक भी कर लेता हूं। यह पूछने पर कि ‘रॉक गार्डन बनाने की योजना किस प्रकार बनी ?’ के जवाब में उन्होंने कहा कि मेरी कोई पूर्व निर्धारित योजना नहीं थी। शायद भगवान की यही मर्जी रही होगी। उन्हीं के अदृश्य आदेशानुसार मैंने देव लोक की नगरी यहां बसाई।
क्या भारत में ऐसा रॉक गार्डन चंडीगढ़ के अलावा अंयत्र भी कहीं और है? पूछने पर उन्होंने दुःखित होते हुए कहा कि हां है,लेकिन अब वह अधूरा है। दिल्ली में डी. डी. ए. के वरिष्ठ अधिकारियों के आग्रह पर दिल्ली के नेहरू विश्वविद्यालय के सामने रॉक गार्डन बनाने के लिए 200 एकड़ क्षेत्र का चयन कर लिया गया था। वहीं एक झील व एक गंदे पानी की रिसाइकिलिंग प्लांट की भी योजना थी। आरंभिक चरण में एक करोड़ रु. भी खर्च हो गए थे, लेकिन बाद में नए अधिकारियों के आने से कार्ययोजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया और आज तक वह अधूरा पड़ा है। इसके अलावा केरल में एक छोटा सा रॉक गार्डन है। जर्मनी में दो,
चौरासी वर्ष के ऊर्जा से भरपूर जवान? नेकचंद में अप्रषिक्षित प्रतिभा होने के बावजूद उनमें कलात्मक दृष्टिकोण को परखने की क्षमता है। वह एक कलाकार होने के साथ साथ एक माली तथा एक बुततराष भी हैं। उन्होंने सुखना लेक के आस पास पड़े गोल बटियेनुमा तथा बेडौल पत्थरों को इकठ्ठा कर इन अनगढ़ पत्थरों से सजीव कलाकृतियों का निर्माण किया। नेकचंद ने फटे, पुराने कपड़े व बोरियों आदि का भी बखूबी इस्तेमाल कर सम्मोहक सपनों की ऐसी दुनिया बनाई, जिसे देख लोग दांतों तले उंगलियां दबा लेते हैं।
नेकचंद से हुई बातों का सिलसिला काफी देर तक चला। बातचीत के दौरान ज्ञात हुआ कि हिंदुस्तान पाकिस्तान के विभाजन से लेकर चंडीगढ़ तक के सफर में अनेकों बार मुसीबतों का सामना करना पड़ा, लेकिन लोगों से मिले भरपूर प्यार एवं धीरज और अपनी हिम्मत की बदौलत आज नेकचंद ‘रॉक गार्डन’ के रूप में देवलोक जैसी परिकल्पना को साकार करने में सफल हो सके । नेकचंद इसका श्रेय यहां की जनता व स्थानीय प्रषासन को देते हैं।
(अब पाकिस्तान में) लाहौर से 90 किलोमीटर उत्तर में स्थित गांव बेरियांकलां में 25 दिसंबर 1924 में जन्मे नेकचंद ने बॅंटवारे का दर्द भी झेला है। 1947 में भारत के बॅंटवारे के बाद वह दिल्ली चले आए। कुछ समय बाद ही 1951 में चंडीगढ़ में विषेष रोजगार प्रोग्राम के तहत उन्हें पी डब्ल्यू डी में रोड इंसपेक्टर की नौकरी मिल गई। बेदखली की त्रासदी झेलकर आए नेकचंद की जिंदगी ने चंडीगढ़ आकर ऐसा यू टर्न लिया कि यूं ही शगल बतौर शुरू किए गए उनके द्वारा किए गए कार्य ने विश्व प्रसिद्ध विशाल रॉक गार्डन का रूप ले लिया। आज उनका नाम विश्व विख्यात शिल्पकार के रूप में लिया जाता है।
नेकचंद जी ने बताया कि जब वह यहां आए थे, तब चंडीगढ़ आज के जैसा व्यवस्थित चंडीगढ़ नहीं था। नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में पंजाब हरियाणा की राजधानी के रूप में यहां के 27 गांवों को विस्थापित कर उसकी जगह स्विस फें्रच अर्किटेक्ट ली कॉर्बुजियर की देखरेख में एक सुंदर व आधुनिक षहर बसाने की योजना चल रही थी। इन 27 गांवों में से 24 गांव तो अपनी जगह छोड़ कर अंयत्र चले गए,लेकिन तीन गांव आज भी अस्तित्व में है। ली कॉर्बुजियर ने सरकारी भवनों के आस पास कुछ हरे भरे जंगल यूं ही छोड़ रखे थे। चंडीगढ़ हाईकोर्ट के नजदीक ऐसे ही एक जंगल में चंडीगढ़ पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट का स्टोर था,जिसके वे इंचार्ज थे। पी डब्ल्यू डी के स्टोर में सड़क निमार्ण में उपयोग में लाए जाने वाले सामान के अलावा काफी मात्रा में कबाड़ भी था।नेकचंद ने टूटे फूटे उपकरणों, व अन्य कबाड़ को जंगल में एक जगह ले जाकर इकठ्ठा करना षुरू किया। नेकचंद ने आगे बताया कि उनका वहां काम करने वाले मजदूरों के साथ उठना बैठना था। उन्ही की मदद से षाम 5 बजे आफिस से छुट्टी होने के बाद सुखना लेक (कृतिम झील) व आस पास से छोटे बडे़, गोल व बेडौल आकार के पत्थर साईकिल पर लाद कर जंगल में एक जगह इकठ्ठा करते थे। वे गांव वालों द्वारा छोड़े गए मलबे एवं कबाड़ भी मजदूरों के सहयोग से इकठ्ठा करते थे। उन सब बेकार सामानों से गारा और सीमेंट की मदद से रोज चार घंटे विभिन्न मुद्राओं में मानव, पषु, पक्षियों की आकृतियां बनाया करते थे।
श्री नेकचंद ने बताया कि इन आकृतियों को बनाने की षुरुआत 1958 में की गई। बाद में परिवार वालों का भी सहयोग मिलने लगा। अठ्ठारह साल तक इनका निर्माण कार्य गुपचुप तरीके से चलता रहा। सन 74 में हॉर्टिकल्चर महकमे के लोग जब इस जंगल को साफ करने के लिए आए तो उन्होंने इसे काफी सराहा और इसकी जानकारी चंडीगढ़ प्रषासन को दी। प्रषासन ने भी इसे बनाने की मंजूरी दे दी। वर्ष 1975 में सिटी इंसपेक्टर द्वारा जंगल में बनाए इस अवैध निर्माण को रोक दिया । तब यह षहर के एप्रूव्ड प्लान का हिस्सा नहीं था, लेकिन स्थानीय लोगों द्वारा जब जन आंदोलन कर इसका समर्थन किया तो प्रषासन ने भी रॉक गार्डन को मंजूरी दे दी। 24 जनवरी 1976 को ‘रॉक गार्डन’ का विधिवत उद्घाटन कर इसे जनता के लिए खोल दिया गया।
बहरहाल! आज ‘रॉक गार्डन’ के रूप में नेकचंद की बनाई देवलोक की दुनिया देष को समर्पित एक अभूतपूर्व सौगात है, जिसमें पारंपरिक एवं आधुनिक वास्तुषिल्प का समन्वय दिखाई देता है। पच्चीस एकड़ क्षेत्र में फैले रॉक गार्डन का निमार्ण दरअसल तीन फेज़ में बंटा है। वर्ष 1976 तक पहले फेज़ का निर्माण हो गया था। पब्लिक के प्रवेष के लिए बाहर की बाउंडरी वाल में छेद कर छोटा सा दरवाजा फिट किया गया , जिससे सिर झुका कर ही लोग भीतर प्रवेष कर सकते हैं। ऐसा लगता है मानों देवताओं के दर पर मस्तक झुका कर उन्हें प्रणाम कर रहे हों। प्रथम भाग में प्रवेष करते ही हमारा सामना विभिन्न प्रकार के कबाड़ से निर्मित मानव, पषु, पक्षी की आकृतियों वाले बुतों से होता है। कबाड़ के रूप में बिजली के टूटे फूटे उपकरण, कप प्लेट के टूटे टकड़े, सायकिल के पहिए, टायर टूटी हुई चूड़ियां आदि प्रयुक्त किए गए हैं। प्रथम फेज़ में निर्मित छोटी सी झांेपड़ी जहां से नेकचंद ने अपनी कार्य योजना की नींव रखी थी, आज भी यथावत है।
द्वितीय फेज़ तक जाने का सर्पीला रास्ता काफी तंग व ऊबड़ खाबड़ है। दीवार से लेकर चारों तरफ का माहौल ऐसा लगता है मानो हम कंकरीट से बनी तिलस्मी की दुनिया में आ गए हों। पेड़, दीवारें, लताएं सभी कुछ कंकरीट की बनी हैं, जो लोगों को भरपूर आकर्षित करती हैं। जैसे जैसे आगे बढ़ते जाते हैं, नेकचंद का तिलस्म दर्षकों में अजब सा नषा सा पैदा करता है। फिर 66 फीट की ऊँचाई से गिरते पानी के झरने के नीचे भीगते पत्थर के बने नर तथा घड़े लिए नारियों का समूह, पहाड़ों की तलहटी में अनगढ़ पत्थरों से निर्मित तालाब में तैरती मछलियां, तालाब के आस पास हरे भरे पेड़ों व लताओं के झुंड तथा चट्टानों पर उगाई गर्इ्र षैवाल से उत्पन्न प्राकृतिक सौंदर्यबोध दर्षाता बेजोड़ और बांधने वाला लैंडस्केप है। देखा जाए तो यह सैलानियों का सबसे पसंदीदा जगह है, जहां सैलानी झरने के नीचे खड़े होकर फोटो खिंचवाते हैं।
रॉक गार्डन का तीसरा फेज़ आधुनिक एवं पारंपरिक षिल्पकला का सुंदर नमूना है। यहां बीचोबीच खुले अहाते में विषाल मंच है,जहां कभी कभी सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है। सामने दर्षकों के बैठने के लिए कतारबद्व सीढ़ियां हैं, जिन पर विभिन्न ज्यामितीय आकार में सजाकर टाइलों के टूटे टुकड़े बड़ी कुशलता से चिपकाए गए हैं। अहाते में बड़े बड़े विशाल द्वार हैं, जिन पर भी ऐसी ही कारीगरी की गई है। तीसरे फेज़ में कुछ नए निर्माण कार्य के तहत फिश एक्वेरियम कक्ष तथा लाफिंग मिरर कक्ष बनाए गए हैं। वहीं लाफिंग मिरर कक्ष में बच्चों का हुजूम ज्यादा दिखाई देता है, जहां दर्पण में अपनी अजीबोगरीब आकृति देखकर बच्चे अत्यधिक खुश होते हैं। फिश एक्वेरियम में रखी छोटी बड़ी खास प्रकार की रंगीन मछलियां रॉक गार्डन के निर्जीव संसार में सजीवता का एहसास कराती हैं। वहां पर बच्चों के झूलने के लिए लंबे-लंबे झूले हैं। ऊँटों की सवारी का भी बच्चे आनन्द ले सकते हैं।
रॉक गार्डन के वास्तुशिल्प से न केवल देसी-विदेशी सैलानी प्रभावित हैं बल्कि बाहरी मुल्क के शोधकर्ता भी इस पर अध्ययन करने के लिए यहां आते हैं। भारतीय मूल के लिवरपूल युनिवर्सिटी के वरिष्ठ लेक्चरार सोमैन बंधोपाध्याय के नेतृत्व में ‘आर्ट्स एण्ड ह्यूमैनिटीज़ रिसर्च काउंसिल’(ए.एच.आर.सी) द्वारा अनुदानित परियोजना के तहत ‘भारतीय वास्तुशिल्प में आधुनिकता का स्वरूप के परिपेक्ष्य में चंडीगढ़ में रॉक गार्डन की भूमिका’ पर भी अध्ययन किया जा रहा है। इयान जैक्सन लिवरपूल के विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन करने के बाद आजकल वे अपने डॉक्टोरल डिज़र्टेशन के लिए चंडीगढ़ में ‘रॉक गार्डन’ के वास्तुशिल्प पर अध्ययन कर रहे हैं। भारतीय वास्तुकारों के लिए रॉक गार्डन की आधुनिक व परंपरागत शिल्प कला शोध का विषय हो सकती है।
रॉक गार्डन महज एक तिलस्म ही नहीं है, बल्कि यह आधुनिक व परंपरागत वास्तुशिल्प कला के भी दर्शन कराता है। रॉक गार्डन की प्रासंगिकता बजाय पढ़ने के उसे प्रत्यक्ष देखने में हैं। नेकचंद के बनाए देवलोक के संसार में विचरने पर जो आत्मीय सुख व शान्ति की अनुभूति होती है, वह अंयत्र कहीं नहीं है।
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नामः- पद्मश्री नेकचंद सैनी/ लोक कलाकार
पदः- क्रियेटिव डायरेक्टर ,रॉक गार्डन, चंडीगढ़
जन्मः- 25 दिसंबर 1924 , जन्मस्थलः-ग्राम बेरियां कलां (जो पाकिस्तान में लाहौर से 90 किलोमीटर उत्तर में स्थित है)
1951 – चंडीगढ़ आगमन
1955-56 – नेकचंद ने नाव का निर्माण किया तथा बोट क्लब की स्थापना की
1958 – देव लोक यानि पत्थरों के बागीचा का गुप्त रूप से निर्माण प्रारंभ
1975 – जगजाहिर हुआ पत्थरों का बागीचा
1976 – षासकीय स्वीकृति एवं नामकरण ‘रॉक गार्डन’
1980 – पेरिस में लॉ ग्रांड मेडिले सम्मान
1983 – रॉक गार्डन पर डाक टिकट जारी
1984 – पद्मश्री सम्मान
1990 – रॉक गार्डन को नष्ट करने के प्रशासकीय प्रयास को जन आंदोलन ने किया नाकाम
1997 – लंदन में नेकचंद फाउंडेशन का गठन
2001 – रॉक गार्डन ने अपनी रजत जयंती मनाई
2015 – 90 साल की उम्र मे Post Graduate Institute of Medical Education and Research (PGIMER) में शुक्रवार को रात में 12.11 पर स्वर्गवास हो गया !
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राजबाला अरोरा
लेखिका व् शिक्षिका
शिक्षा. एमण्एससीण् वनस्पति शास्त्र ए पीजी जर्नलिज्मए स्पेशल एजुकेटर
पता. 103 कामदगिरी अपार्टमेन्ट
जेल रोडए ग्वालियर मध्यप्रदेश 474012
मोबाइल – : 09755676602
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