यह सच है कि गंगा की बीमारी तो एक सदी से अधिक पुरानी है; एक साल में उसके स्वस्थ होने की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। किंतु क्या यह भी सच नहीं कि ’नमामि गंगे’ की उम्र भले ही एक साल हो, किंतु गंगा के प्रति व्यवहार में दोगलेपन की हमारी उम्र तो काफी हो गई। यह दोगलापन समाज के स्तर पर भी है और सरकार के स्तर पर भी। नदी के नाम पर कर्ज बढाने, जनमत की उपेक्षा करने और व्यवहार के नाम पर नीतिगत् प्रश्नों से दूर भागने की सरकारी प्रवृति को लेकर प्रश्न कई हैं और अनुभव कई।
176 वर्षीय चुनौती
गौर कीजिए कि गंगा से छेङछाङ का इतिहास पूरे 176 साल पुराना है और छेङछाङ करने वालों से विरोध का इतिहास, 103 वर्ष पुराना। राजस्व कमाने हेतु वर्ष-1839 में गंगा पर ऊपरी और निचली गंग नहर योजना बनी। इसी कार्य के लिए 1847 में भारत का पहला इंजीनियरिंग काॅलेज स्थापित किया गया – थाॅमसन काॅलेज आॅफ सिविल इंजीनियरिंग, रुङकी। आज इसी को हम आई आई टी, रुङकी के नाम से जानते हैं।
प्रवाह बाधित करने का पहला औपचारिक प्रयास वर्ष-1912 में भीमगौङा बांध (हरिद्वार) के रूप में सामने आया। आस्था के प्रश्न को सामने रख संतों द्वारा इसका विरोध भी उसी समय शुरु हुआ। इस विरोध की कमान जल्द ही भारत रत्न पंडित मदनमोहन मालवीय ने संभाली और जीत हासिल की। प्रदूषण की शुरूआत 1932 में तब हुई, जब कमिशनर हाॅकिन्स ने बनारस का एक गंदा नाला गंगा में जोङने का आदेश दिया। इसके बाद से गंगा और इसकी सहायक धाराओं से नाले ही नाले जोङे जाते रहे हैं।
साढे 29 वर्षीय कोशिश
ग्ंागा प्रदूषण मुक्ति की औपचारिक शुरुआत जनवरी, 1986 में गंगा कार्य योजना से हुई। वर्ष 2014 तक खर्च मात्र 4,168 करोङ ही हुए, किंतु इस दौरान 25 हजार करोङ से अधिक रुपये गंगा को अविरल-निर्मल बनाने के नाम पर जारी हुए। खर्च पैसे से 927 परियोजनााओं के जरिए 2,216 एमएलडी की क्षमता भी हासिल हुई। फिर भी गंगा साफ नहीं हुई। बीते 29 वर्ष और पांच महीनों को सामने रखकर यह जांचना मौजूूं होगा कि ’नमामि गंगे’ के प्रयासों की दिशा ठीक है अथवा इसमें सुधार चाहिए;
’नमामि गंगे’ ने गंगा कार्ययोजना के अनुभवों से कुछ सीखा या राह वही है ? अतीत के आइने को सामने रख यह जांच जरूरी है; आइये, जांचें।
नमामि गंगे का एक साल
सचिव स्तरीय समूह का गठन; गंगा संरक्षण के कार्य को पर्यावरण मंत्रालय से अलग कर जल संसाधन मंत्रालय में जोङना; गंगा मंथन, राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन की स्थापना, राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण का पुनर्गठन, प्राधिकरण तथा उच्च स्तरीय समूह की क्रमशः दो-दो बैठकें, केन्द्र, राज्य और जिला स्तरीय व्यवस्था का ऐलान, नीरी और देहरादून के वन शोध संबंधी संस्थान को गंगा के काम में जोङने की कोशिश और प्रधानमंत्री श्री मोदी द्वारा 8 नवबंर, 2014 को अस्सी घाट पर श्रमदान। प्रस्तावित बजट: 10 जुलाई, 2014 को आम बजट में 2,037 करोङ रुपये की घोषणा; नमामि गंगे कोष में अब तक जमाराशि: 53 करोङ, 70 लाख। ताजा जानकारी के मुताबिक 13 मई, 2015 को 20,000 करोङ रुपये के बजट को मंजूरी। समयावधि: पांच साल (वर्ष 2015-16 से 2019-2020 तक)। गौर कीजिए कि 20,000 करोङ में से 7,272 करोङ पहले से जारी परियोजनाओं की देनदारी में जायेंगे। शेष, 12,728 करोङ में से 8,000 करोङ रुपये 118 शहरों के 144 नालों पर मल शोधन संयंत्र लगाने पर खर्च होंगे।
शामिल काम एवम् कामवार बजट
गंगा के पानी, पर्यावरणीय प्रवाह और रेत खनन आदि का अध्ययन करना (600 करोङ); गंगा किनारे के 1657 ग्राम पंचायतों में 100 प्रतिशत स्वच्छता हासिल करना (1750 करोङ); जाजमरु और काशीपुर में औद्योगिक कचरा निष्पादन हेतु सामुदयिक अवजल शोधन संयंत्र लगाना (1000 करोङ); गंगा किनारे के प्रमुख घाटों पर कचरा प्रबंधन करना (50 करोङ); केदारनाथ, हरिद्वार; दिल्ली, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी और पटना के घाटों का सौंदर्यीकरण करना (250 करोङ); चारधाम और गंगासागर यात्रा के दौरान जनसुविधा विकास (150 करोङ); गंगा किनारे औषधीय पौधे लगाना तथा डाॅल्फिन, कछुआ और घङियाल का संरक्षण करना (150 करोङ); गंगा किनारे के ढाई करोङ लोगों के बीच जन-जागरूकता अभियान चलाना (128 करोङ), घाटों पर निगरानी हेतु टास्क फोर्स की चार बटालियन बनाना (400 करोङ) और जिलों में जरूरतानुसार विकास करना, राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन के क्षेत्रीय कार्यालय खोलना, पीआईयू तथा परियोजना रिपोर्ट तथा अन्य काम (250 करोङ)।
टिप्पणी
गौर करें कि इसमें कार्यों के प्रकार पांच हैं: जहां शौचालय नहीं हैं, वहां शौचालय बनाना; जहां शौचालय हैं, वहां मल शोधन संयंत्र लगाना, फैक्टरी इलाके में अवजल शोधन संयंत्र लगाना; घाटों की सफाई-सुंदरता-निगरानी तथा जैवविविधता की बढोत्तरी के प्रयास। निस्ंसदेह, जैवविविधता की बढोत्तरी का कदम नया है और अच्छा भी। 1657 ग्राम पंचायतों मंे 100 फीसदी स्वच्छता का मतलब यदि सिर्फ शत-प्रतिशत घरों को शौचालय मुहैया कराने तक सीमित है, तो यह अंततः नदी को मदद करने की बजाय, कष्ट बढाने वाला ही कदम साबित होगा। यदि इसका मतलब, ग्रामीण कूङे का 100 फीसदी स्वावलंबी और वैज्ञानिक निष्पादन है, तो इस प्रस्ताव की तारीफ करनी चाहिए। घाटांे की सफाई और निगरानी से नदी को मदद मिलती है; सो मिलेगी। किंतु सौंदर्यीकरण से सिर्फ स्थानीय नागरिक और पर्यटक आकर्षित होते है, नदी को कोई मदद नहीं मिलती। जनसहभागिता सुनिश्चित करने का ऐलान इस योजना में भी है, लेकिन कोई स्पष्ट और ठोस प्रस्ताव सामने नहीं है। यदि गंगा में जलपरिवहन के लिए इलाहाबाद से कोलकोता तक हर सौ किलोमीटर पर बैराज बनाने का मूल प्रस्ताव यदि अभी भी कायम है, तो उक्त सभी आशायें, निराशा में बदलेंगी; क्योंकि गंगा पलटकर वार करेगी। नदी जोङ परियोजना के नदी विनाश के साथ-साथ विवाद भी बढायेगी।
कहना होगा कि अन्य कदम गंगा अविरलता-निर्मलता को लेकर कोई बहुत आशा नहीं जगाते; क्यांेकि उनका मकसद, शौचालय बढाना, कचरा शोधन की क्षमता बढाना और निवेशकों के लिए पैसा कमाने के रास्ते खोलना मात्र साबित होने वाला है। गंगा कार्य योजना के अनुभव बताते हैं कि ऐसे काम चलेगा नहीं। गंगा का इलाज, बीमारी के मूल पर ध्यान देने से होगा। उमा भारती जी ने अपने एक बयान में स्वयं कहा कि वह सुनिचित करंेगी कि शोधन के पश्चात् भी मल या अवजल गंगा में न डाला जाये। गंगा को यही चाहिए। गंगा के लिए कानून बनाने के लिए राज्यों से राय की बात भी उन्होने कही है। किंतु ये सिर्फ बयान हैं। हम भूल गये हैं कि नदी को बयान, पैसा और कार्यक्रम बाद में, व्यवहार का सिद्धांत और नीति पहले चाहिए। क्या इस एक साल में कोई नीति बनी ? औपचारिक रूप से कोई सि़द्धांत तय किए गये ? बांध, बैराज, तटबंध, नदी की जमीन, नदी के प्रवाह और प्रदूषण को लेकर भारत में आज भी कोई नीति नहीं है। इसीलिए नदी कार्यक्रमों को लेकर भारत में विरोध हैं, विवाद हैं और असफलतायें हैं।
नीतिगत मांग
गंगा के तीन मूल संकट हैं: शोषण, प्रदूषण और अतिक्रमण। चैथा संकट, जलवायु परिवर्तन के असर के रूप मंे तापमान का बढना, ग्लेशियर का पिघलना और वर्षा का अनियमित होना है। इन संकट के मद्देनजर गंगा नीति की मांग है कि गंगा की जमीन चिन्हित कर अधिसूचित की जाये। गंगा की जमीन का भू-उपयोग बदलने की अनुमति न हो। गंगा को बांध-बैराजो और तटबंधों से न बांधा जाये। रेत खनन, पत्थर चुगान और गाद निकासी को लेकर तट से दूरी, गहराई और परिस्थिति पर स्पष्ट नीति हो। अमृत, मल और अवजल को आपस में न मिलने दिया जाये। ताजे पानी को नहर में डालने की बजाय, नदी में आने दिया जाये। शोधन पश्चात् का खेती-बागवानी के उपयोग योग्य पानी, नहरों में डाला जाये। गंगा जलग्रहण क्षेत्र में कुछ काल बाद अजैविक खेती की अनुमति न हो। क्षेत्र को जैविक और बागवानी क्षेत्र में बदलने के लिए सरकार प्रोत्साहन का नीतिगत निर्णय करें। जलसंचयन ढांचों की सुरक्षा तथा भूजल निकासी की अधिकतम गहराई सुनिश्चित करने हेतु हेतु ठोस नीति पर काम हो। नदियों को जोङने की बजाय, समाज को नदियों से जोङने की नीति पर काम हो।
ये सभी ंिबदु गंगा और उसकी सहायक नदियों पर ही नहीं, भारत की प्रत्येक नदी पर लागू हों। इसी से नदियों को पानी मिलेगा और कचरा, नदियों से दूर रखा जा सकेगा; बढती गाद और बाढ से उपजते कष्ट कम होंगे।
चेतावनी
दुनिया की कंपनियां, पानी के बाजार में दो अरब डाॅलर तक निवेश करने की तैयारी कर चुकी हैं। भारत में भी वे पानी बाजार बनाने और कब्जाने के रास्ते बनाने के लिए लिए कुछ भी करने की तैयारी में लग गई हैं। नदी और भूजल प्रदूषित ही न हो; हमारा जोर इसकी रोकथाम पर नहीं है। पहले मलीन बनाना और फिर मलीनता को साफ करने के लिए पैसा लगाना’ हमारा जोर इस पर है। यह कुचक्र बढाने वाला काम है। विदेशी निवेश को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी द्वारा दर्शाई भूख उन्हे ऐसा करने का मौका भी दे रही है। ऐसे में बाजार,ं अपनी नीति-रणनीति हमारे नदी और पानी पर थोपेगा ही। इससे आगे चलकर साफ पानी और नदी के लिए हमारी जेबें कटेंगी, गरीब गंदा पानी पीकर मरेगा या फिर बिल ने देने की वजह से आत्महत्या कर। अपनी अन्य उलटबांसियों के कारण सुखाङ और बाढ से तो हम मरेंगे ही।
चेतावनी स्पष्ट है कि यदि नदी के पक्ष में कोई स्पष्ट नीति व सिद्धांत तय नहीं किए गये, तो तय मानिए कि बकौल सुप्रीम कोर्ट, गंगा वाकई 200 साल में भी साफ नहीं होगी। क्यों ? क्योंकि वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि वर्ष 2100 तक हिमालयी ग्लेशियर पिघलकर समाप्त हो जायेंगे। जब मूल स्त्रोत ही नहीं बचेगा, तो बिना प्रवाह दिए गंगा या गंगा का गंगत्व बच पायेगा; यह सोचना ही दिवास्वप्प्न है। तब गंगा में पानी कम, कचरा ज्यादा बहेगा। गंगा सफाई हेतु राजग सरकार का बजट दो हजार, 37 करोङ से बढकर, 20 हजार करोङ तक जा पहुंचा है। आगे चलकर यह दो लाख करोङ तक पहुंचेगा; तब भी हम गंगा का गंगत्व लौटा न सकंेगे। यह सिर्फ और सिर्फ नीतिगत संकट तथा उसे लागू करने की इच्छाशक्ति के अभाव की वजह से होगा। क्या स्वयं को राष्ट्रवादी कहने वाली कोई सरकार यह चाहेगी ? सरकार भी तय करे और समाज भी।
अरुण तिवारी
लेखक ,वरिष्ट पत्रकार व् सामजिक कार्यकर्ता
1989 में बतौर प्रशिक्षु पत्रकार दिल्ली प्रेस प्रकाशन में नौकरी के बाद चौथी दुनिया साप्ताहिक, दैनिक जागरण- दिल्ली, समय सूत्रधार पाक्षिक में क्रमशः उपसंपादक, वरिष्ठ उपसंपादक कार्य। जनसत्ता, दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, अमर उजाला, नई दुनिया, सहारा समय, चौथी दुनिया, समय सूत्रधार, कुरुक्षेत्र और माया के अतिरिक्त कई सामाजिक पत्रिकाओं में रिपोर्ट लेख, फीचर आदि प्रकाशित।
1986 से आकाशवाणी, दिल्ली के युववाणी कार्यक्रम से स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता की शुरुआत। नाटक कलाकार के रूप में मान्य। 1988 से 1995 तक आकाशवाणी के विदेश प्रसारण प्रभाग, विविध भारती एवं राष्ट्रीय प्रसारण सेवा से बतौर हिंदी उद्घोषक एवं प्रस्तोता जुड़ाव।
इस दौरान मनभावन, महफिल, इधर-उधर, विविधा, इस सप्ताह, भारतवाणी, भारत दर्शन तथा कई अन्य महत्वपूर्ण ओ बी व फीचर कार्यक्रमों की प्रस्तुति। श्रोता अनुसंधान एकांश हेतु रिकार्डिंग पर आधारित सर्वेक्षण। कालांतर में राष्ट्रीय वार्ता, सामयिकी, उद्योग पत्रिका के अलावा निजी निर्माता द्वारा निर्मित अग्निलहरी जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रमों के जरिए समय-समय पर आकाशवाणी से जुड़ाव।
1991 से 1992 दूरदर्शन, दिल्ली के समाचार प्रसारण प्रभाग में अस्थायी तौर संपादकीय सहायक कार्य। कई महत्वपूर्ण वृतचित्रों हेतु शोध एवं आलेख। 1993 से निजी निर्माताओं व चैनलों हेतु 500 से अधिक कार्यक्रमों में निर्माण/ निर्देशन/ शोध/ आलेख/ संवाद/ रिपोर्टिंग अथवा स्वर। परशेप्शन, यूथ पल्स, एचिवर्स, एक दुनी दो, जन गण मन, यह हुई न बात, स्वयंसिद्धा, परिवर्तन, एक कहानी पत्ता बोले तथा झूठा सच जैसे कई श्रृंखलाबद्ध कार्यक्रम। साक्षरता, महिला सबलता, ग्रामीण विकास, पानी, पर्यावरण, बागवानी, आदिवासी संस्कृति एवं विकास विषय आधारित फिल्मों के अलावा कई राजनैतिक अभियानों हेतु सघन लेखन। 1998 से मीडियामैन सर्विसेज नामक निजी प्रोडक्शन हाउस की स्थापना कर विविध कार्य।
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