’राजनीति’ समाज में फैली बुराइयों को दूर करने का एक सशक्त माध्यम है। जिसका कार्य बुराइयों से लड़ना है। डॉ0 लोहिया के शब्दों में ’’जब तक दूसरी बुराई नहीं आती राजनीति अच्छाई का मार्ग सुगम करती है। इसे रूद्रा भी कहा जा सकता है।’’ इससे हटकर वर्तमान समय मंे पद और अर्थ की पिपाशा ने इसकी परिभाषा ही बदल दी है जो समाज और राष्ट्र के लिए खतरनाक संकेत है। ऐसा तब से हुआ है जब से गुण्डों ने राजनीति में दखल देना शुरू किया। जिसका दुष्परिणाम भी सामने आया है। इसके लिए वे नेता जिम्मेदार कहे जा सकते है जिन्होंने अपना रिमोट गुण्डों के हाथ सौपकर उन्हें सत्ता तक पहुँचने का रास्ता दिखाया। आज वही गुण्डें समूची सियासत को निगल जाने पर आमादा हैं।
एक समय था जब राजनीति ईमानदारी पूर्वक समाज सेवा और राष्ट्रभक्ति के माध्यम के साथ एक बड़ी ताकत होती थी। यही ताकत समाज व राष्ट्रविरोधी शक्तियों को नियंत्रित करते हुए उसके जहरीले फन को कुचलती थी। अर्थात् गुलामी के दौर में राजनीति, इन शक्तियों के दमन का दम रखती थी परन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इसकी परिभाषा क्या बदली। परिणाम यह हुआ कि राष्ट्र संक्रमण काल तक जा पहुँचा। यद्यपि गुलामी के दौर में राजनीति का सर्वप्रमुख लक्ष्य स्वतंत्रता प्राप्ति था जो आजादी के बाद उसकी रक्षा और राष्ट्रविकास के लक्ष्य में परिवर्तित हुआ। कालांतर में इसे सत्ता सुख और उसकी प्राप्ति का माध्यम बना लिया गया। जिसके परिणाम स्वरूप राजनीति में गुण्डों, माफियाओं और समाज व राष्ट्र विरोधी ताकतों का दखल हुआ जो अब एक खतरनाक मोड़ पर पहँुच चुका है।
चूंकि सत्ता सुख प्राप्ति की होड़ में लगे नेताओं को अपना दबदबा बढ़ाने के लिए गुण्डों, माफियाओं की और गुण्डों को सत्ता के संरक्षण की आवश्यकता थी। इस नाते दोनों का गठजोड़ गैर काँग्रेसी दलो के उभरने के साथ शुरू हुआ। और एक घोर अंधेरा राष्ट्रीयता के सूर्य को निगल जाने की साजिश से निकल पड़ा। परिणाम यह हुआ कि समाज में दहशत का पर्याय बने तमाम गुण्डे बाहुबल के सहारे समाज और राष्ट्र को खूनी पंजे में जकड़ने की फिराक में पड़ गये। और सत्ता सुन्दरी के मोहपाश में फंसे पद पिपाशु राजनीतिज्ञ फिर भी गुण्डों को संरक्षण देते रहे। संरक्षण ही नही उनके पालन पोषण का जिम्मा भी सम्हाल लिया। और आज उसका परिणाम सबके सामने है। सियासी संरक्षण के चलते जहां गुण्डे माफियाओं के हौसले पहले से काफी ज्यादा बढे़ वही चुनावी एहसास का बदला चुकाने के लिए नेताओं ने अपरोक्ष रूप से गुण्डों को संरक्षण देने और अराजकता को पुष्पित पल्वित करने वाली उर्बरक तैयार करने की नीतियां भी बनानी शुरू कर दी।
पहले जो नेताओं के लिए बूथ कैपचरिंग किया करते थे और मतदाताओं को धमकाते थे आज वही गुण्डें बदलते समय के साथ सत्ता सुख की अनुभूति के सपने देखना शुरू कर दिये। यही से उनका रूख सियासत की ओर हो गया। और एक-एक करके देश के तमाम आपराधिक छवि के लोग विभिन्न राजनैतिक दलों में प्रवेश करते गये। जिसके बाद राजनीति का अपराधी करण और अपराध के राजनीतिकरण का दौर भी प्रारम्भ हो गया। उत्तर-प्रदेश, ही नहीं मध्य-प्रदेश, बिहार, राजस्थान, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ सहित कई राज्यों में आपराधिक छवि वाले सैकड़ों लोग विधान सभा, विधान परिषद, लोक सभा, राज्य सभा के सदस्य बनकर माननीय होने में कामयाब हुए। इसके अलावा ब्लाक प्रमुख, नगर व जिला पंचायत अध्यक्ष पदो पर भी वे काबिज हो गये। इसी के साथ इनके नाम के साथ गुण्डा, माफिया के बजाय बाहुबली जोड़ा जाने लगा। इसमें वे गौरवन्वित भी होते रहे। आज तमाम ऐसे नाम है जो सियासी क्षितिज पर दैदीप्यमान है पूर्व की जिन्दगी मेें वे क्या थे किसी से छिपा नहीं है। तमाम नये लोग अब उसी ढर्रे पर चल रहे है। आपराधिक छवि के लोग धनबल व बाहुबल के सहारे अपनी पूर्ण दहशत फैलाकर राष्ट्र को खूनी पंजे में जकड़ लेना चाह रहे हैं।
आज स्थिति यहां तक पहुँची कि नेता और गुण्डा एक दूसरे के पूरक बन गये हैं। नेताआंे से संरक्षित बडे़ गुण्डों की तर्ज पर छुटभैये अपराधियों की सक्रियता ने जनता का सुख चैन छीन लिया है और हमारी पुलिस उन पर हाथ डालने का साहस भी नहीं जुटा पाती। आज सुबह घर से निकले व्यक्ति की शाम तक सकुशल वापसी की गारंटी नहीं है। दंगे-फसाद, दिन दहाडे़ हत्या, लूट और दुुराचार आम बात हो गयी है। वर्षो की कड़ी मेहनत के बाद जुटायी गयी धनराशि रंगदारी नाम पर वसूली जा रही है और प्रशासन मौन है। शायद इसलिए क्योंकि रंगदारी मांगने वालों के जिस्म पर या तो खादी बाना सुशोभित है अथवा माननीयों का अपरोक्ष संरक्षण।
गुण्डों के दखल का ही परिणाम है कि समाज व राष्ट्र निर्माण मंे अहम भूमिका निभाने वाली राजनीति विध्वंसक शक्तिओं की पोषक बनती जा रही है। हर अच्छे काम में व्यवधान और अनैतिक कार्य में सहयोग उसका सगल बन गया है। तमाम असहायों को न्याय एक दिवा स्वप्न बनता जा रहा है। और नेता देश व समाज को चाय की तरह उबाल कर तमाशा देख रहा है। भाई को भाई से लड़ाकर अपने चहेते शार्गिदों की फौज बनायी जा रही है। जाति, धर्म व क्षेत्र वाद को हवा देकर अलगाववाद को बढ़ावा दिया जा रहा है। गांव के नाली, खड़न्जे और बंटवारे के विवाद मंे अनैतिक हस्तक्षेप कर रही राजनीति का चेहरा गुण्डों के दखल ने विद्रूप कर दिया है। जिसका सहारा लेकर चलायंे जा रहे उद्योगों में कर चोरीं आम बात है। साथ ही घटिया उत्पाद बाजार मंे लाकर जनस्वास्थ्य से खिलवाड़ भी हो रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि गुण्डों के दखल से प्रभावित राजनीति पूजी पतियांे की पोषक और गरीबों की शोषक की भूमिका निभा रही है।
दूसरी तरफ राजनीति के प्रति अपराधियों के गहरे होते लगाव की पीछे सियासी ग्लैमर और सुरक्षा की गारण्टी को कारण माना जा सकता है। जिससे अपराध और आपराधिक कृत्य में वृद्धि होती है। चूंकि बडे़ अपराधियों की हर जगह दहशत होती है और जब उन पर खादी लबादा चढ़ जाता है, तब सियासत अंधी डगर पर बढ़ निकलती है। इससे आम जनता का राजनीति से मोह भंग भी होने लगता है। इस बीच छुटभैये अपराधियों के हौसले भी खूब बढ़ते है। रोज ब रोज घट रही घटनाओं दंगे फंसादो के पीछे किसी न किसी रूप में अपराध बोध से प्रभावित राजनीति को ही जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। अफसोस जनक बात तो यह कि सियासत के आवरण मंे ढंके समाज व मानवता विरोधी तत्वों की हनक, उनसे फैलने वाली दहशत, और उनके खौफनाक ग्लैमर से हमारी नयी पीढ़ी भी प्रभावित होती जा रही है। शराब, और नारी देह का शौक न सिर्फ उन्हें रास्ते से भटकाता है बल्कि उन्हें अपराध जगत की तरफ भी ले जाता है। तमाम शौक को पूरा करने के लिए पड़ने वाली धन की आवश्यकता उन्हें आपराधिक कृत्य के लिए विवश करती है।
आगे चलकर पुलिस की चाबुक से बचने के लिए राजनीति का सहारा लिया जाता है। मजेदार तथ्य तो यह कि राजनीति के क्षितिज पर चमकने वाले लोग जब अपराध की काली छाया से प्रभावित होगें तो वे अपराध को रोकने की दिशा में कैसे कदम उठा पायेंगे। इसके बिपरीत उनकी राहों में बाधा बनने वाले स्वच्छ छवि के नेताओं को किनारे करने के लिए छुटभैये अपराधियों की मद्द भी लेेने से नहीं चूकते। ऐसे ही नेता सरकारी खजाने के दुश्मन कहे जा सकते है। जो मौका पाने पर जनता के हक को निगलने से नहीं चूकंतेे। एक जमाना था जब बडे़ नेता रिक्शे पर बैठ कर चल देते थे। उन्हें अपराध का भय नहीं सताता था परन्तु अब लम्बे काफिले और कड़ी सुरक्षा के बिना नेता निकल भी नहीं पाते। क्योंकि उन्हंे रास्ते में लूट-मार दिये जाने का भय होता। यह भय वर्चस्व की जंग के चलते भी हो सकता है। कुल मिलाकर राजनीति का अपराधीकरण जितना खतरनाक है उससे कही ज्यादा अपराध का राजनीतिकरण भी है।
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