बीते 26 जून की रात मध्यप्रदेश में नरसिंहपुर जिले के गाँव मड़गुला के दलित समुदाय पर गाँव के दबंग राजपूतों ने लाठी, बल्लम, तलवार और हाकी से हमला कर दिया, इस हमले में एक व्यक्ति की मौत हो गयी करीब 17 लोग घायल हो गये. पूरा मामला खेतों में कम मजदूरी पर काम करने से इनकार कर देने का है,जिसके बाद सबक सिखाने के लिए यह हमला अंजाम दिया गया, इस गावं में इससे पहले भी इसी तरह की घटनायें होती रही हैं, 2009 में वहां इसी तरह के एक बड़ी वारदात हुई थी जब मड़गुला और आसपास के गावों के अहिरवार समुदाय के लोगों ने यह कहते हुए मृत मवेषी उठाने से मन कर दिया था कि इससे उनके साथ छुआछूत व भेदभाव का बर्ताव किया जाता है। इसके जवाब में मड़गुला गाँव के दबंगों ने पूरे अहिरवार समुदाय पर सामाजिक और आर्थिक प्रतिबंध लगा दिया था और कोटवार के माध्यम से यह एलान करा दिया गया कि अहिरवार समुदाय के जो लोग सवर्णों के यहाँ बटाईदारी करते हैं उन्हें उतना ही हिस्सा मिलेगा जितना वे तय करेंगें, इसी तरह से मजदूरी भी आधी कर दी गयी. इसके अलावा उनके सार्वजनिक स्थलों के उपयोग जैसे सार्वजनिक नल, किराना की दुकान से सामान खरीदने, आटा चक्की से अनाज पिसाने, शौचालय जाने के रास्ते और अन्य दूसरी सुविधाओं के उपयोग पर जबर्दस्ती रोक लगा दी गई थी। उस समय भी कई सारे परिवार गाँव छोड़ कर पलायन कर गये थे और प्रशासन द्वारा बहुत बाद में इनकी सुध ली गयी थी। साल 2012 में में भी आसपास के गावों में इसी तरह की घटनायें हुई थीं .
दरअसल यह केवल गाडरवारा तहसील का मसला नहीं है, मध्यप्रदेश में जातिगत भेदभाव की जड़ें कितनी गहरी है उसका अंदाजा 2010 में मुरैना जिले के मलीकपूर गॉव में हुई एक घटना से लगाया जा सकता है जहाँ एक दलित महिला ने स्वर्ण जाति के व्यक्ति के कुत्ते को रोटी खिला दी, जिस पर कुत्ते के मालिक ने पंचायत में कहा कि एक दलित द्वारा रोटी खिलाऐ जाने के कारण उसका कुत्ता अपवित्र हो गया है, गॉव के पंचायत ने दलित महिला को उसके इस ‘‘जुर्म’’ के लिए 15000 रूपये के दण्ड़ का फरमान सुनाया। इन उत्पीडन के कई रूप हैं जैसे नाई द्वारा बाल काटने को मना कर देना, चाय की दुकानदार द्वारा चाय देने से पहले जाति पूछना और खुद को दलित बताने पर चाय देने से मना कर देना या अलग गिलास में चाय देना, पंच/सरपंच को मारने पीटने, शादी में घोड़े पर बैठने पर रास्ता रोकना और मारपीट करना, मरे हुए मवेशियों को जबरदस्ती उठाने को मजबूर करना, मना करने पर सामाजिक-आर्थिक बहिष्कार कर देना, सावर्जनिक नल से पानी भरने पर रोक लगा देना जैसी घटनाऐं कुछ उदाहरण मात्र है जो अभी भी यहाँ अनुसूचित जाति के लोगों के आम दिनचर्या का हिस्सा हैं।
नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च (एनसीएईआर) और अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ मैरिलैंड की तरफ से इसी साल आयी एक रिपोर्ट के अनुसार देश के सत्ताईस प्रतिशत लोग किसी न किसी रूप में छुआछूत को मानते हैं और इस मामले में मध्यप्रदेश तिरपन प्रतिशत के साथ देश में पहले नंबर पर है। इसी तरह से स्थानीय दलित अधिकार अभियान द्वारा 2014 में जारी रिपोर्ट “जीने के अधिकार पर काबिज छुआछूत” के अनुसार मध्यप्रदेश के 10 जिलों के 30 गांवों में किये गये सर्वेक्षण के दौरान निकल कर आया है कि इन सभी गावों में लगभग सत्तर प्रकार के छुआछूत का प्रचलन है इसी तरह से भेदभाव के कारण लगभग 31 प्रतिशत दलित बच्चे स्कूल में अनुपस्थित रहते हैं.
2011 की जनगणना के अनुसार मध्यप्रदेश में अनुसूचित जाति की आबादी 15.6 % है, पिछले पांच साल के नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आकड़ों पर नजर डालें तो वर्ष 2009 से 2012 के बीच दलित उत्पीड़न के दर्ज किये गए मामलों में मध्यप्रदेश का स्थान पांचवां बना रहा, 2013 में यह एक पायदान ऊपर चढ़ कर चौथे स्थान पर पहुच गया है।इस साल की प्रमुख घटनायें ही उत्पीड़न के इस दंश को बयान करने के लिए काफी हैं , जनवरी माह में में दमोह जिले के अचलपुरा गांव में दबंगों द्वारा दलित समुदाय के लोगों को पीटा गया,इसके बाद प्रशासन और पुलिस के अधिकारियों के मौजूदगी में 12 दलित परिवार गावं छोड़ कर चले गये, क्योंकि उन्हें पुलिस और प्रशासन से अपनी सुरक्षा का भरोसा नहीं था. मई की गर्मियों में अलीराजपुर जिले के घटवानी गांव की घटना सामने आई जहाँ 200 दलित एक गंदे कुंए से पानी पीने को इसलिए मजबूर हुए क्योंकि छुआछुत की वजह से उन्हें गावं के इकलौते सार्वजनिक हैंडपंप से पानी नहीं लेने दिया जाता था. 10 मई को रतलाम जिले के नेगरुन गांव की घटना ने तो पूरे देश का ध्यान अपनी तरफ खींचा वहां दबंगों ने दलितों की एक बारात पर इसलिए पथराव किया क्योंकि दूल्हा घोड़ी पर सवार था। इसके बाद बारत को पुलिस सुरक्षा में निकलना पड़ा और दूल्हे हेल्मेट पहनवाना पड़ा तब जाकर बारात निकल पायी। मई में संपन्न हुए पंचायत चुनाव के दौरान शिवपुरी जिले के कुंअरपुर गांव में एक दलित महिला अपने गांव की उप सरपंच चुनी गई थीं, जिन्हें गांव के पूर्व सरपंच और कुछ दबंगों ने मिलकर उनके साथ मारपीट की और उनके मुंह में गोबर भर दिया । 13 जून को छतरपुर जिले के गणेशपुरा में दलित समुदाय कि एक 11 वर्षीय लड़की हैंडपंप से पानी भरने जा रही थी, इसी दौरान दबंग समुदाय के व्यक्ति ने लड़की की इसलिए पिटाई कर दी क्योंकि उसके खाने पर लड़की की परछाई पड़ गई थी।
आखिर क्या वजह है कि प्रदेश में लगातार इतने बड़े पैमाने पर दलितों के साथ अत्याचार के मामले सामने आ रहे हैं इसके बावजूद मध्यप्रदेश की राजनीति में दलित उत्पीड़न कोई राजनैतिक मुददा नही बन पा रहा हैं? शायद इसका जवाब यही है कि प्रदेश के ज्यादातर प्रमुख राजनैतिक दलों के एजेन्ड़े में दलितों के सवाल सिरे से ही गायब हैं। तभी तो मड़गुला की घटना पर बयान देते हुए गाडरवारा से भाजपा विधायक गोविन्द पटेल कहते हैं कि, “ऐसे झगड़े तो होते रहते हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है, पाकिस्तान का भी भारत से झगड़ा चल रहा है, जो घटना हुई है वह किसी भी तरह से जातिवाद की लडाई नहीं है”। इतना सब होने के बावजूद मध्यप्रदेश में दलितों को लेकर राजनीतिक, सामाजिक और प्रशासनिक स्तर पर संवेदनहीनता व्याप्त है और यह लोग दलितों की समस्या को समस्या ही नहीं मानते हैं।
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जावेद अनीस
लेखक ,रिसर्चस्कालर ,सामाजिक कार्यकर्ता
लेखक रिसर्चस्कालर और सामाजिक कार्यकर्ता हैं, रिसर्चस्कालर वे मदरसा आधुनिकरण पर काम कर रहे , उन्होंने अपनी पढाई दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया से पूरी की है पिछले सात सालों से विभिन्न सामाजिक संगठनों के साथ जुड़ कर बच्चों, अल्पसंख्यकों शहरी गरीबों और और सामाजिक सौहार्द के मुद्दों पर काम कर रहे हैं, विकास और सामाजिक मुद्दों पर कई रिसर्च कर चुके हैं, और वर्तमान में भी यह सिलसिला जारी है !
जावेद नियमित रूप से सामाजिक , राजनैतिक और विकास मुद्दों पर विभन्न समाचारपत्रों , पत्रिकाओं, ब्लॉग और वेबसाइट में स्तंभकार के रूप में लेखन भी करते हैं !
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