– निर्मल रानी –
ईरानी सैन्य शक्ति द्वारा लगभग नेस्त-ो-नाबूद किए जा चुके दुर्दान्त आतंकवादी संगठन आईएसआईएस द्वारा विगत् वर्षों में दिखाई गई बर्बरता का दंश भारत के कई परिवारों को भी झेलना पड़ा। भारत से रोज़गार हेतु इराक पहुंचे जिन 40 कामगारों को 2014 में आईएसआईएस के आतंकवादियों ने अगवा कर उन्हें बंधक बना लिया था, आिखरकार दुर्भाग्यवश इन आतंकियों द्वारा इनमें से 39 भारतीय नागरिकों के मारे जाने की पुष्टि हो गई। मृतकों के शवों व उनके परिवार के डीएनए परीक्षण के बाद भारत सरकार ने मूसल शहर से उनके शवों के अवशेष मंगवा कर उनके परिजनों को सौंप दिए। मारे गए 39 भारतीयों में 27 कामगार केवल पंजाब राज्य से ही थे। शेष मज़दूर हिमाचल प्रदेश,पश्चिम बंगाल व बिहार से संबंधित थे। हालांकि केंद्र सरकार द्वारा 2014 से लेकर अब तक इन कामगारों के परिजनों को यही बताया जा रहा था कि अपहृत किए गए उनके रिश्तेदार मूसल में सुरक्षित हैं तथा उनकी खैर-खबर ली जा रही है। परंतु इस प्रकार की बातें मात्र झूठा एवं कोरा आश्वासन साबित हुईं तथा हरजीत मसीह नामक उस व्यक्ति की बात सही निकली जिसने 2014 में ही यह कह दिया था कि उसके साथी 39 भारतीय श्रमिकों की आईएसआईएस के आतंकियों द्वारा हत्या कर दी गई है। परंतु सरकार उसकी बातों को गंभीरता से नहीं ले रही थी। यहां तक कि उसके ऊपर गलत बयानी करने के लिए मुकद्दमा भी दर्ज करा दिया गया था।
बहरहाल,केंद्रीय विदेश राज्य मंत्री जनरल वी के सिंह ने पिछले दिनों जब उन 39 मज़दूरों के शवों के अवशेष उनके परिजनों को सौंपे उस समय पीडि़त परिवार के सदस्य स्वयं को बेसहारा महसूस करने लगे। निश्चित रूप से भारत से कामकाज व मज़दूरी की तलाश में विदेशों में जाकर रोज़ी-रोटी कमाने वालों की एक बड़ी तादाद है। भारतीय कामगार दुनिया के लगभग सभी देशों में जाते रहते हैं तथा वहां से पैसे कमाकर अपने देश में भेजते हैं तथा इन्हीं पैसों से उनके परिवार के सदस्यों व बुज़ुर्ग मां-बाप का जीवन यापन होता है। सोचने का विषय है कि केंद्र सरकार जिन परिजनों को चार वर्षों से यह आश्वासन देती रही कि उनके परिवार के लोग मूसल में जि़ंदा व सलामत हैं जब अचानक सरकार द्वारा उन्हें यह बताया गया कि नहीं वे तो 2014 में ही मारे जा चुके हैं और सरकार उनके शवों के अवशेष लाकर परिजनों के सुपुर्द कर रही है, ऐसे में उनके आश्रित परिजनों के दिलों पर आिखर क्या गुज़री होगी? ज़ाहिर है ऐसे वातावरण में मानवता तथा नैतिकता का यही तकाज़ा है कि उनके परिजनों को व समस्त पीडि़त परिवारों को सरकार द्वारा सांत्वना दी जाए, उनके भविष्य के विषय में उन्हें कोई ठोस आश्वासन दिया जाए,उन्हें अधिक से अधिक सरकारी सहायता देने की कोशिश की जाए। यदि यह सब कुछ संभव न हो सके तो कम से कम सरकार या उसके किसी प्रतिनिधि को इन मूसल कांड पीडि़त परिवारों के साथ ज़हरीले व कड़वे बोल बोलने का तो कोई अधिकार नहीं है।
परंतु दुर्भाग्यवश केंद्रीय विदेश राज्य मंत्री जनरल विक्रम सिंह जो अपने सैन्य सेवाकाल के अंतिम दिनों में स्वयं अपने शैक्षणिक प्रमाण पत्र में दी गई जन्मतिथि को लेकर विवादों में थे,उन्होंने अपने सख्त व कड़वे बयानों से पीडि़त परिवारों को गहरा आघात पहुंचाया। सर्वप्रथम तो उन्होंने यही कहा कि इराक के मूसल शहर में जो 39 भारतीय नागरिक आतंकवादियों द्वारा मारे गए हैं वे सभीअवैध रूप से इराक गए थे। मृतकों के परिजनों को नौकरी दिए जाने के सवाल पर भी जनरल विक्रम सिंह द्वारा दिया गया बयान शिष्टाचार से परे था। उन्होंने कहा कि नौकरी देना फुटबाल का खेल नहीं है,यह कोई बिस्कुट बांटने वाला काम नहीं है। उन्होंने अपने लहजे को तल्ख करते हुए कहा कि मैं अभी एलान कहां से करूं, जेब में कोई पिटारा तो रखा हुआ नहीं है। एक ओर तो मंत्री महोदय इस प्रकार के सख्त लहजे का इस्तेमाल कर दु:खी परिवारों के ज़ख्मों पर नमक छिडक़ने का काम कर रहे थे तो दूसरी ओर पंजाब सरकार यह घोषणा कर रही थी कि मूसल में मारे गए भारतीयों के परिवार के एक-एक सदस्य को राज्य सरकार नौकरी देगी। इसके अतिरिक्त पंजाब सरकार द्वारा पंजाब के मूसल कांड पीडि़त परिवारों को 5-5 लाख रुपये देने की घोषणा भी की गई।
उपरोक्त पूरा प्रकरण देश की राजनैतिक व्यवस्था पर किसी कलंक से कम नहीं है। निश्चित रूप से यह देश की सरकारों को ही सोचना चाहिए कि आिखर क्यों और किन परिस्थितियों में देश के श्रमिकों,कामगारों को अपना देश छोडक़र व अपने परिवारों से अलग होकर दूर-दराज़ के देशों में यहां तक कि युद्ध व संकटग्रस्त देशों में भी अपनी आजीविका कमाने हेतु जाना पड़ता है? दूसरी बात यह कि यदि किन्हीं अपरिहार्य परिस्थितियोंवश इस प्रकार की घटना हो भी जाए तो क्या भारत सरकार के पास इतनी व्यवस्था भी नहीं कि वह सहानुभूति,सौहार्द्र तथा जीवनयापन के दृष्टिगत् इनके परिजनों की सहायता कर सके? जिस सरकार के मुखिया दुनिया के कई देशों में घूम-घूम कर हज़ारों करोड़ रुपयों की मदद अन्य देशों को करते फिर रहे हों, जिस देश की सरकारें धार्मिक आयोजनों में जनता का पैसा पानी की तरह बहा रही हों, जो सरकारें अपने चुनाव संचालन में हज़ारों करोड़ रुपये खर्च करने से न हिचकिचाती हों, जो राजनेता अपने व अपने परिवार की ऐशपरस्ती पर करोड़ों रुपये प्रतिमाह खर्च करते रहते हों, क्या उस सरकार के प्रतिनिधि के मुंह से दु:खी व रोते-बिलखते परिवारों से इस प्रकार की बातें करना शोभनीय प्रतीत होता है? क्या नीरव मोदी,मेहुल चौकसी,विजय माल्या तथा ललित मोदी जैसे लोगों को ही यह अधिकार हासिल है कि वे भारत के आयकर दाताओं की खून-पसीने की कमाई के दम पर सत्ता के दिग्गजों से सांठगांठ कर विदेशों में एय्याशी करते फिरें और जब विदेशों में रोज़ी-रोटी कमाने गए भारतीय मज़दूरों की आतंकियों द्वारा हत्या कर दी जाए तो उनके परिजनों को सहयोग व सहायता देने के बजाए उनसे कड़वे शब्द बोलकर उनके दिल दुखाए जाएं?
निश्चित रूप से सरकारी नौकरियां बिस्कुट की तरह नहीं बंटतीं। परंतु जनरल विक्रम सिंह के मुंह से यह बात इसलिए और भी शोभा नहीं देती क्योंकि सेवा निवृति के बाद केंद्रीय मंत्री पद तक पहुंचने की उनकी जुगाड़बाज़ी भी पूरे देश ने बहुत गौर से देखी। जनरल साहब ने तो सचमुच अपनी चतुराई से मंत्रीपद कुछ इसी तरह हासिल कर लिया जैसे ‘बिस्कुट’ हासिल किया जाता हो। अन्ना हज़ारे के 2013 के जनलोकपाल आंदोलन में विक्रम सिंह अन्ना हज़ारे के सहयोगी के रूप में देश की जनता को दिखाई दिए थे। उस समय उनकी छवि एक स्वच्छ व भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनकारी सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में उभरी थी। परंतु उन्होंने किस चालाकी से अपने चेहरे को अन्ना के मंच से परिचित कराया और कुछ ही समय बाद 2014 के लोकसभा चुनाव से पूर्व अन्ना हज़ारे को छोडक़र उसी भ्रष्ट राजनीति का हिस्सा बन गए जिसे कल तक वह खुद कोसा करते थे। ज़ाहिर है उनकी इन चालों के पीछे उनकी महत्वाकांक्षा निहित थी जो उनके लोकसभा चुनाव लडऩे,जीतने तथा बाद में मंत्रीपद ग्रहण करने के रूप में सामने आई। बड़े दु:ख की बात है कि आज उन्हीं जनरल विक्रम सिंह ने खून-पसीने की गाढ़ी कमाई करने वाले अप्रवासी भारतीय मज़दूरों की हत्या के बाद उनके पीडि़त परिवारों को आश्वासन देने या उनकी सहायता करने के बजाए अपने कटु वचनों के द्वारा उनके ज़ख्मों पर नमक-मिर्च छिडक़ने का काम किया है।
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निर्मल रानी
लेखिका व् सामाजिक चिन्तिका
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं !
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