वर्ष 2011 की जनगणना मुताबिक 74.04 प्रतिशत भारतीयों को अक्षरज्ञानी कहा जा सकता है। वर्गीकरण करें, तो 82.14 प्रतिशत पुरुष और 65.46 महिलाओं को आप इस श्रेणी में रख सकते हैं। आप कह सकते हैं कि आगे बढने और जिंदगी की रेस में टिकने के लिए अक्षर ज्ञान जरूरी है। इस संदर्भ मंे उनके इस विश्वास से शायद ही किसी को इंकार हो कि इसमें साक्षरता की भूमिका, मुख्य संचालक की हो सकती है। किंतु क्या साक्षरता का मतलब सिर्फ वर्णमाला के अक्षरों और मात्राओं को जोङकर शब्द तथा वाक्य रूप में पढ़ लेना मात्र है ? क्या मात्र अक्षर ज्ञान हो जाने से हम हर चीज के बारे में बुनियादी तौर पर ज्ञानी हो सकते हैं ? नहीं!
अक्षर ज्ञान से कितना आगे राष्ट्रीय साक्षरता मिशन ?
आप संतुष्ट हो सकते हैं कि यह बात भारत के राष्ट्रीय साक्षरता मिशन द्वारा बहुत पहले समझ ली गई थी; इसीलिए साक्षरता मिशन के कार्यक्रम, आज अक्षर ज्ञान तक सीमित नहीं हैं; इसीलिए मिशन के संपूर्ण साक्षरता अभियान और उत्तर साक्षरता अभियान की संकल्पना की। इन अभियानों को नवसाक्षर को खासतौर पर आसपास के परिवेश और जरूरी कौशल के बारे में साक्षर और सक्षम बनाने के उद्देश्य से डिजायन किया गया है।
प्रकृति प्रेमी इस बात से संतुष्ट हो सकते हैं कि भारत सरकार के साक्षरता मिशन ने अन्य विषयों के साथ-साथ प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण को विशेष उद्देश्य के रूप में चिन्हित किया है। किंतु इस बात आप असंतुष्ट भी हो सकते हंै कि राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के कार्यक्रम इस दिशा में रस्म अदायगी से बहुत आगे नहीं बढ़ सके हैं। कहने को आज भारत के 424 एवम् 176 जिले क्रमशः संपूर्ण साक्षरता और उत्तर साक्षरता अभियानों की पहुंच में है। किंतु भारत मंे प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण मंे सामाजिक पहल की सुस्त दर बताती है कि जरूरत रस्म अदायगी से कहीं आगे बढ़ने की है। बगैर औपचारिक-पंजीकृत संगठन बनाये ऐसी पहल के उदाहरण तो और भी कम हैं।
कितने निरक्षर हम ?
दरअसल, हमें साक्षरता की आवश्यकता हवा, पानी, नमी, जंगल, पठार, पहाङ से लेकर अनगिनत जीवों और वनस्पतियों.. सभी की बाबत् है। क्या यह सच नहीं कि अक्षर ज्ञान रखने वाले ही नहीं, उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों में भी आज प्रकृति और प्राकृतिक संरक्षण के मसलों को लेकर अज्ञान अथवा भ्रम कायम हैं। नदी जोङ ठीक है या गलत ? कोई कहता है कि ’रन आॅफ रिवर डैम’ से कोई नुकसान नहीं; कोई इसे भी नदी के लिए नुकसानदेह मानता है। कोई नदी को खोदकर गहरा कर देने को नदी पुनर्जीवन का काम मानता है; कोई इसे नदी को नाला बना देने का कार्य कहता है। किसी के लिए नदी, नाला और नहर में भिन्नता भी साक्षर होने का एक विषय है। कोई गाद और रेत के फर्क और महत्व को ही नहीं समझता। कोई है, जो गाद और रेत निकासी को सब जगह अनुमति देने के पक्ष में नहीं है। कोई मानता है कि जितने ज्यादा गहरे बोर से पानी लाया जायेगा, वह उतना अच्छा होगा। किसी की समझ इससे भिन्न है।
पानी-पर्यावरण साक्षरता के विषय कई
ज्यादातर लोग आज मानते हैं कि ’आर ओ’ प्रक्रिया से प्राप्त पानी को आपूर्ति किए जा रहे पानी तथा भूजल से बेहतर हैं; जबकि कई विशेषज्ञ ’आर ओ’ प्रक्रिया से गुजरे पानी को सामान्य अशुद्धि जल से ज्यादा खतरनाक मानते हैं। वे कहते हैं कि ’आर ओ वाटर’ बाॅयलर और बैटरी के लिए मुफीद है, जीवों के पीने के लिए नहीं। उनका तर्क है कि ’आर ओ’ प्रक्रिया मंे प्रयोग होने वाली झिल्ली सिर्फ खनिजों को ही वहीं नहीं रोक लेती, बल्कि ऐसे जीवाणुओं का भी वहीं खात्मा कर देती हैं, जो हमारे भोजन को पचाने में के लिए सहयोगी हैं; जिन्हे प्रकृति ने हमें असल पानी के साथ मुफ्त दिया है। लिहाजा, ’आर ओ वाटर’ इसी तरह ’मिनरल वाटर’ के नाम पर मिल रहे बोतलबंद पानी को लेकर भी मत भिन्नता है। ’आर ओ वाटर’ और ’मिनरल वाटर’ नहीं, तो शुद्ध पानी प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ विकल्प क्या ? पानी को ठंडा करने के लिए मिट्टी का मटका, रेफ्रिजरेटर से बेहतर विकल्प क्यों है ? मिट्टी का मटका पानी को शीतल ही नहीं करता, नाइट्रेट जैसी अशुद्धि से मुक्त करने का काम भी करता है। क्या यह हमारे साक्षर होने का विषय नहीं।
तकनीकी डिग्री-डिप्लोमा प्राप्त कितने ही लोग ऐसे हैं, संचयन ढंाचे बनाने के लिए जिन्हे न विविध भूगोल के अनुकूल स्थान का चयन करना आता है और न ही ढांचे का डिजायन बनाना। यदि हमारे सरकारी ढांचें में यह निरक्षरता न होती, तो मनरेगा के ज्यादातर ढांचें बेपानी न होते। भारत की कृषि को भूजल पर निर्भर बनाना अच्छा है या नहरी जल अथवा अन्य सतही ढांचों के जल पर ? क्या इसका उत्तर, पूरे भारत के लिए एक हो सकता है ? यदि हम अनुकूल माध्यम के बारे में साक्षर होते, तो ’स्वजल’ परियोजना के तहत् उत्तराखण्ड के ऊंचे पहाङी इलाकों में इंडिया मार्का हैण्डपम्प लगाने की बजाय, चाल-खाल बनाते।अन्य प्राकृतिक संसाधनों को लेकर हमारी साक्षरता पर गौर कीजिए। कोई प्राकृतिक जंगल को सर्वश्रेष्ठ मानता है, तो किसी को इमारती जंगल बेहतर लगता है। किसी को गिद्ध, गौरैया, गाय, कौआ, बाघ, भालू, घङियाल, डाॅलफिन से लेकर अनेकानेक प्रजातियों की संख्या घटने से कोई फर्क नहीं पङता; अनेक हैं, जिन्हे फर्क पङता है। अभी दिल्ली के एक अस्थमा पीङित व्यक्ति से तीन ऐसे पौधों की खोज की, जिन्हे लगाकर हम अपने आसपास की हवा को साफ कर सकते हैं। किंतु हम में से ज्यादातर लोग यह नहीं जानते।कहना न होगा कि पानी-हवा समेत कई ऐसे प्राकृतिक संसाधन हैं, जिनके दैनिक उपयोग और संरक्षण को लेकर भारतीय समाज के हर वर्ग को साक्षर होने की जरूरत है; नेता, अफसर, इंजीनियर, ठेकेदार, किसान से लेकर शिक्षक, वकील और डाॅक्टर तक। यदि हम इनके उपयोग और संरक्षण को लेकर साक्षर हो जायें, तो न मालूम अपना और अपने देश का कितने आर्थिक, प्राकृतिक और मानव संसाधनों को सेहतमंद बनाये रखने में सहायक हो जायें !
सद्ज्ञान से स्वावलंबन
हमारी दैनिक समस्याओं को लेकर आज हमारे समक्ष पेश ज्यादातर विकल्प, खरीद-बिक्री की रणनीति पर आधारित हैं। बाजार, कभी किसी ग्राहक को स्वावलंबी नहीं बनाता। अतः सच यही है कि इन विषयों की साक्षरता और स्वयं करने का कौशल ही हमें इन मामलों में स्वावलंबी बनायेंगे। अतः हमंे सिर्फ पानी-पर्यावरण ही नहीं, बल्कि विकास को टिकाये और बेहतरी की दिशा में गतिमान बनाये रखने के हर पहलू के प्रति साक्षर होने के प्रयास तेज कर देने चाहिए। रास्ते और रणनीति क्या हो ? इस पर सभी को अपने-अपने स्तर पर विमर्श और ज़मीनी काम शुरु कर देने चाहिए। इस अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस पर इस बाबत् हम स्वयं चेतें और राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के लोक चेतना केन्द्रों को भी चेतायें।
मददगार तकनीक, साझे से समग्रता
यूनेस्को के महानिदेशक ने इस बाबत् अपने सभी सहभागी देशों से निवेदन किया है कि संपूर्ण साक्षरता लक्ष्य हासिल करने हेतु वे मोबाइल फोन समेत उपलब्ध आधुनिक तकनीक को एक ताजा अवसर के तौर पर लें। उम्मीद है कि भारत में राष्ट्रीय साक्षरता मिशन, जल संसाधन, कृषि, पर्यावरण, संचार और सूचना से संबद्ध मंत्रालय इस दिशा में कुछ सोचेंगे और संयुक्त रूप से कुछ करेंगे।
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अरुण तिवारी
लेखक ,वरिष्ट पत्रकार व् सामजिक कार्यकर्ता
1989 में बतौर प्रशिक्षु पत्रकार दिल्ली प्रेस प्रकाशन में नौकरी के बाद चौथी दुनिया साप्ताहिक, दैनिक जागरण- दिल्ली, समय सूत्रधार पाक्षिक में क्रमशः उपसंपादक, वरिष्ठ उपसंपादक कार्य। जनसत्ता, दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, अमर उजाला, नई दुनिया, सहारा समय, चौथी दुनिया, समय सूत्रधार, कुरुक्षेत्र और माया के अतिरिक्त कई सामाजिक पत्रिकाओं में रिपोर्ट लेख, फीचर आदि प्रकाशित।
1986 से आकाशवाणी, दिल्ली के युववाणी कार्यक्रम से स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता की शुरुआत। नाटक कलाकार के रूप में मान्य। 1988 से 1995 तक आकाशवाणी के विदेश प्रसारण प्रभाग, विविध भारती एवं राष्ट्रीय प्रसारण सेवा से बतौर हिंदी उद्घोषक एवं प्रस्तोता जुड़ाव।
इस दौरान मनभावन, महफिल, इधर-उधर, विविधा, इस सप्ताह, भारतवाणी, भारत दर्शन तथा कई अन्य महत्वपूर्ण ओ बी व फीचर कार्यक्रमों की प्रस्तुति। श्रोता अनुसंधान एकांश हेतु रिकार्डिंग पर आधारित सर्वेक्षण। कालांतर में राष्ट्रीय वार्ता, सामयिकी, उद्योग पत्रिका के अलावा निजी निर्माता द्वारा निर्मित अग्निलहरी जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रमों के जरिए समय-समय पर आकाशवाणी से जुड़ाव।
1991 से 1992 दूरदर्शन, दिल्ली के समाचार प्रसारण प्रभाग में अस्थायी तौर संपादकीय सहायक कार्य। कई महत्वपूर्ण वृतचित्रों हेतु शोध एवं आलेख। 1993 से निजी निर्माताओं व चैनलों हेतु 500 से अधिक कार्यक्रमों में निर्माण/ निर्देशन/ शोध/ आलेख/ संवाद/ रिपोर्टिंग अथवा स्वर। परशेप्शन, यूथ पल्स, एचिवर्स, एक दुनी दो, जन गण मन, यह हुई न बात, स्वयंसिद्धा, परिवर्तन, एक कहानी पत्ता बोले तथा झूठा सच जैसे कई श्रृंखलाबद्ध कार्यक्रम। साक्षरता, महिला सबलता, ग्रामीण विकास, पानी, पर्यावरण, बागवानी, आदिवासी संस्कृति एवं विकास विषय आधारित फिल्मों के अलावा कई राजनैतिक अभियानों हेतु सघन लेखन। 1998 से मीडियामैन सर्विसेज नामक निजी प्रोडक्शन हाउस की स्थापना कर विविध कार्य।
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