डॉ. मंसूर खुशतर
पाँच गज़ले
1.
बहारों पर तसल्लुत है ख़ेजाँ का
बुरा दिन आ गया है गुलसेताँ कारेहाई ग़म से नामुम्किन सी लगती
यही हासिल वप सईए राएगाँ कामोक़द्दर है हमारा बे पनाही
यहाँ पर जिक्र मत कीजिए अमाँ काफ़रेबो रहज़नी, शोरिश, धमाके
कोई भी उन्वाँ रख दीजे बयाँ काज़हे किस्मत, वतन को काम आयें
करें भी पेश हम नज़राना जाँ काकभी सोचा भी है, जब हम न होंगे
तो क्या होगा तुम्हारे आसताँ कासितम सहने की ताक़त अपनी ‘खुशतर’
करम है बस उसी एक मेहरबाँ का
2.
आप जब मुसकुराए ग़ज़ल हो गई
कुछ क़रीब और आए ग़ज़ल हो गईतोड़कर अपने गुलशन से ताज़ा गुलाब
मेरी ख़ातिर वह लाए ग़ज़ल हो गईलब पे फरयाद तो दिल में सौ इज़तराब
अश्क ऑखों में आए ग़ज़ल हो गईवाए महरूमियॉ, हाय मजबूरियॉ
दर्द दिल में दबाए ग़ज़ल हो गईमैंने पूछा मुहब्बत उन्हें मुझसे है
चुप रहे, मुसकुराए ग़ज़ल हो गईजब भी अंगड़ाई तौबा शिकन कोई ले
एक फितना उठाए ग़ज़ल हो गईदिल में ‘ख़ुश्तर’ जो अरमॉ थे सोए हुए
ख़ूबरू एक जगाए ग़ज़ल हो गई
3.
तुम्हारे ग़म से जो हासिल ख़ुशी है
किसी शय की नहीं मुझको कमी हैनफिक्रे कम, न ज़्यादा की हवस कुछ
रविश ऐसी सदा अपनी रही हैक़नाअत, ख़ूबतर की जुस्तुजू भी
शेआर ऐसा ही राज़े सरवरी हैरहा है ज़ेरे सर ख़ुद हाथ अपना
बसर कुछ इस तरह से मैने की हैसोकूॅ शब में, न दिन में चैन पायें
यह कैसी बेक़रारी, बेकली हैमुझे सम्झा गया कब इसके क़ाबिल
जगह महफ़िल में उनकी कब मिली हैसितमगर, पूरी करले हर तमन्ना
सदा ज़खमों से ‘ख़ुश्तर’ आ रही है
4.
आप आली जनाब, क्या कहना
आप इज़्ज़त मआब, क्या कहनाउसका ज़ोरे शबाब क्या कहना
लुत्फ़े जामो शराब क्या कहनातू किसी की ब्याज़ है जैसे
हर ग़ज़ल इन्तेख़ाब क्या कहनाएक सरापा ग़ज़ल हो वक़्ते सुख़न
ऐसी ताबीरे ख़्वाब क्या कहनाइश्क़े सद जामा चाक अपनी जगह
हुस्ने ज़ेरे नक़ाब क्या कहनाहै किताबे वफ़ा जो एक अपनी
उसका रंगीन बाब क्या कहनाअपनी नाकाम आरज़ूओं का
कीजिये ‘ख़ुश्तर’ हिसाब क्या कहना
5.
खु़द को जिसमे खो दिया मैंने वह लम्हा और था
क़त्ल का ढंग भी जुदा, का़तिल दिल आरा और थाउसने दुश्मन को भी दी मेरे बराबर की जगह
माना रबते ग़ैर भी,मेरा तो रिश्ता और थादिन मुहब्बत के किसी सूरत गुजरते ही नहीं
कुछ इसे भी थी शिकायत, मेरा शिकवा और थाबदला बदला मुझसे था उसका कुछ अन्दाज़े कलाम
कुछ अलग तर्जें बयॉ था, सख़्त लहजा और थाजिन्दगी भर जो रहा बर ख़ुद ग़लत ही का शिकार
सामना करता वह कैसे मेरा रुतबा और थापाता हर कोई यहॉ अपने किये ही का सिला
उसका अन्दाज़े दिगर, मेरा तरीक़ा और थाउनको बेख़ुद भी क्या ‘ख़श्तर’ के जिन अश्आर ने
रंगीन ग़ज़ल वह और थी, वह शीरीं नग़मा और था
________________
डॉ. मंसूर खुशतर
शायर ,सम्पादक व् समाज सेवक
डॉक्टर मंसूर खुशतर / 3 मार्च / 1986 को दरभंगा (बिहार) में पैदा हुए। इन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा आबाई कसबे में हासिल की। मौसूफ दरअसल पेशे से फिजियोथेरापिस्ट हैं। लेकिन उर्दू जुबान और शेरो अदब के साथ भी शगफ रखते हैं। इसी दिलचस्पी के तैंयी उन्होंने उर्दू जुबान में एम.ए. की डीग्री हासिल की। मंसूर खुशतर अदबी सहाफत से भी पिछले कई वर्षों से जुड़े हुए है और बयक वक्त उर्दू जुबान के दो रिसाले अपने जाति खर्च से शाय कर रहे हैं जो सह माही ‘‘दरभंगा टाईम्स’’ और सह माही ‘‘तहकीक’’ के नाम से दरभंगा से शाय होते हैं। मौसूफ की अखबार रोजनामा ‘‘कौमी तंजीम’’ से भी वाबिस्तगी है। इसके अलावह अल-मंसूर एजुकेशनल ट्रस्ट के बानी हैं जिसके जेरे एहतमाम किताबों का इजरा, मुखतलिफ अदबी और समाजी नौअयत के प्रोग्राम मुनकिद किए जाते हैं। इन्की अबतक मुखतलिफ मौजूआत पर दस से जायद तसानीफ शाय हो चुकी हैं जिसमें ‘‘लमआते तर्जी’’, ‘‘नसर निगाराने दरभंगा’’, ‘‘माजरा द स्टोरी’’, ‘‘अजमल फरीदःयादें बातें’’, ‘‘इक्कीसवीं सदी मंे उर्दू गजल’’ वगैरह काबिले जिक्र हैं। मंसूर खुशतर का एक शेरी मजमूआ भी ‘‘मुछ महफिले खुबाँ की’’ भी शाय हो चुका है।
इसके अलावह इनकी कई तहकीकी और तनकीदी मजामीन की किताबें जेरे तबा है। इन्हें अबतक दर्जनों इनआमात से भी नवाजा जा चुका है जिस में ‘‘सहाफत एवार्ड’’, ‘‘उमर फरीद एवार्ड’’ और ‘‘डान बॉस्को स्कूल एवार्ड बराए सहाफत’’ खास हैं। विक्की पिडिया, रेखता के अलावह कई वेबसाईट्स पर इनके तआरूफ का इनदराज है। दरभंगा टाईम्स के नाम से इनकी साईट भी मौजूद है। डा0 मंसूर खुशतर का तखलीकी, तहकीकी, अदबी और समाजी सरगरमियों का सफर मसलसल जारी है।
लेखक / लेखक की किताबें
(1) लमाआते तर्जी 2014
(2) नसर निगाराने दरभंगा 2014
(3) माजरा स्टोरी 2014
(4) कुछ महफिले खुबाँ की (शेरी मजमूआ) 2015
(5) अजमल फरीदःयादें, बातें
(6) उजालों के घर 2016
(7) नक्द अफसाना 2016
(8) बिहार में उर्दू सहाफतःसम्तो रफतार 2016
(9) मंजूम तबसरे 2016
(10) इक्कीसवीं सदी में उर्दू गजल 2017
(11) प्रो0 मनाजिर आशिक हरगानवीःएक नाबगह 2017
(12) उर्दू नाविल की पेशेरफत