– निर्मल रानी –
हमारा देश अपनी लोकतंात्रिक व्यवस्थाओं के प्रति कितना जागरूक है इसका अंदाज़ा केवल इस बात से लगाया जा सकता है कि आम चुनाव के समय जनता को मतदान हेतु प्रोत्साहित करने के लिए सरकार से लेकर राजनैतिक पार्टियों के कार्यकर्ताओं तक को कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं। जनता अधिक से अधिक संख्या में मतदान करे, इसके लिए अख़बारों में तरह-तरह के विज्ञापन दिए जाते हैं, रेडियो व टेलीविज़न के माध्यम से जनता को बड़ी संख्या में मतदान करने हेतु प्रेरित किया जाता है। जनता को मतदान का महत्व तथा इसके फायदे समझाए जाते हैं। इन सब के बावजूद मतदान के दिन विभिन्न राजनैतिक दल मतदाताओं की सहूलियत के लिए अथवा अपने पक्ष में मतदान कराए जाने की लालच में मतदाताओं को अपने वाहन तक उपलब्ध कराते हैं ताकि मतदाता अपने घरों से निकल कर मतदान केंद्र तक सुविधापूर्वक आ-जा सकें। इतनी कवायद करने के बावजूद हमें मतदान की समाप्ति पर यही सुनाई देता है कि कहीं 45-50 प्रतिशत तक मतदान हुआ तो कहीं-कहीं अधिकतम मतदान के रूप में 70,75 या अधिक से अधिक 80 प्रतिशत तक रिकॉर्ड मतदान होने की खबरें सुनाई देती हैं। हमारे देश में मतदान को लोकतंत्र के महापर्व की संज्ञा भी दी जाती है। अब सोचने का विषय यह है कि देश की जो आम जनता स्वेच्छा से मतदान करने में अपनी गहरी दिलचस्पी न रखती हो और उसे मतदान करने हेतु प्रोत्साहित करने के लिए अनेक यत्न करने पड़ते हों वह जनता किसी नेता,मंत्री अथवा किसी मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री का भाषण सुनने के लिए स्वेच्छा से आिखर कैसे इक_ी हो सकती है?
यही वजह है कि हमारे देश में शीर्ष नेताओं खासतौर पर प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री स्तर की रैलियों में ज़ोर-ज़बरदस्ती तथा जुगाड़बाज़ी कर भीड़ जुटाने की परंपरा बन चुकी है। हालांकि पंडित जवाहर लाल नेहरू तथा इंदिरा गांधी तक के समय में भीड़ इक_ा करने की इस कला ने इतना ज़ोर नहीं पकड़ा था। क्योंकि यह नेता केवल देश पर ही नहीं बल्कि जनता के दिलों में भी राज करते थे। इसलिए बड़ी संख्या में जनता इन्हें देखने व सुनने स्वयं भी जाती थी और अपने साथ अपने परिवार के लोगों,बच्चों तथा पड़ोसियों को भी ले जाया करती थी। परंतु जब से राजनीति में भ्रष्टाचार,सांप्रदायिकता,जोड-तोड़,अपराधीकरण जैसी अनेक विसंगतियों ने प्रवेश किया तबसे देश की जनता का मोह भी न केवल राजनीेति से बल्कि राजनेताओं से भी भंग होने लगा। और आम जनता इनकी बातें सुनना तो क्या इनकी शक्लें देखने तक के लिए समय निकालने को अपने समय का दुरुपयोग किया जाना समझने लगी। ज़ाहिर है आम जनता की राजनेताओं के प्रति इसी बेरुखी ने नेताओं को इस बात के लिए मजबूर किया कि वे स्वयं भीड़ प्रबंधन की जि़म्मेदारी अपने कार्यकर्ताओं तथा यदि सत्ता में हैं तो सरकारी मशीनरी पर डालें ताकि समाचार प्रसारण में तथा खासतौर पर चित्रों में यह दिखाया जा सके कि अमुक राजनेता को सुनने के लिए बड़ी संख्या में भीड़ इक_ा हुई और यही खबर उस नेता की लोकप्रियता का पैमाना बन सके।
दिल्ली में 2015 में हुए विधानसभा चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सात फरवरी 2015 को हुए विधानसभा चुनाव से पूर्व 31 जनवरी से लेकर 4 फरवरी के मध्य पांच जनसभाओं को संबोधित किया। मीडिया में उसी समय यह चर्चा होने लगी थी कि प्रधानमंत्री की जनसभा में भीड़ इक_ी न हो पाना भाजपा के लिए शुभ संकेत नहीं है। जागरूक मतदाताओं का प्रदेश होने के नाते राष्ट्रीय स्वयं संघ का भीड़ इक_ा करने का तंत्र भी यहां कारगर सिद्ध नहीं हो सका। लिहाज़ा नतीजा चुनाव उपरांत सामने आया कि भाजपा को दिल्ली में ऐतिहासिक हार का सामना करना पड़ा। ऐसे ही हालात अभी कुछ दिन पूर्व बहराईच में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैली के समय पैदा हुए। हालांकि सरकारी सूत्रों तथा ‘निष्पक्ष मीडिया’ ने तो यही प्रचारित किया कि विजि़बिल्टी कम होने के कारण प्रधानमंत्री का हेलीकॉप्टर अमौसी हवाई अड्डे से उडक़र बहराईच में लैंड नहीं कर सका। लिहाज़ा वे जनसभा में शिरकत किए बिना वापस आ गए और मोबाईल फोन से रैली को संबोधित किया। परंतु इस समाचार का एक दूसरा पहलू यह भी रहा कि चूंकि जनसभा में बड़ी संख्या में अपेक्षित भीड़ नहीं पहुंच सकी थी और जो भीड़ पहुंची भी थी वह मोदी विरोधी प्रदर्शन किए जाने की तैयारी में पहुंची थी। दूसरी ओर नोटबंदी के दुष्परिणाम से प्रभावित आम जनता के भारी विरोध का सामना प्रधानमंत्री को करना पड़ सकता था। इन्हीं सूचनाओं के मद्देनज़र प्रधानमंत्री ने हवा में ही अपना कार्यक्रम निरस्त कर दिया तथा वापस लखनऊ लौट आए।
प्रधानमंत्री वैसे तो पूरे देश में भीड़ जुटाने हेतु विशेष प्रबंधन कराए जाने में केवल भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में एक्सपर्ट समझे जाते हैं। परंतु मध्यप्रदेश जैसे राज्य में जहां उनके विशेष सहयोगी शिवराज का शासन है वहां के दौरे भी वे गुजरात से कुछ ज़्यादा ही करते हैं तथा यहां प्रधानमंत्री की सभा के लिए भीड़ जुटाने हेतु भी शिवराज सरकार विशेष प्रबंध कराती है। उदाहरण के तौर पर पिछली 14 अप्रैल को इंदौर जि़ले के महू क्षेत्र में एक जनसभा को प्रधानमंत्री द्वारा संबोधित किया गया था। यहां जि़ले के लगभग 250 कॉलेज के प्रधानाचार्यों को यह फरमान जारी किया गया कि प्रत्येक सरकारी व निजी कॉलेज प्रबंधन द्वारा अपनी स्वयं की बसों की व्यवस्था कर कम से कम सौ छात्र एक कॉलेज से ज़रूर भेजे जाएं। इस संबंध में आदिवासी विकास के सहायक आयुक्त का एक फरमानरूपी पत्र सभी सरकारी व निजी कॉलेज के प्रमुखों को भेज दिया गया। इस आदेश में कोष्ठक में यह भी लिख दिया गया था कि यह पत्र क्लेक्टर द्वारा आदेषित है ताकि पत्र की गंभीरता को कॉलेज प्रबंधन समझ सके। इतना ही नहीं बल्कि सरकार ने इसी रैली में भीड़ जुटाने की गरज़ से अनेक कॉलेज की अधिकांश बसों का भी अधिग्रहण तक कर लिया जिसके कारण अनेक निजी स्कूल व कॉलेज बंद करने पड़े। अफसोस की बात तो यह है कि अप्रैल के इन्हीं दिनों में मध्यप्रदेश में विभिन्न कोर्स में सैमेस्टर परीक्षाएं चल रही थीं। ऐसे में छात्रों की भीड़ जुटाने का आदेश जारी करना वह भी केवल राजनेताओं की वाहवाही के लिए तथा दुनिया को यह दिखाने के लिए कि प्रधानमंत्री के समर्थन में कैसा जनसैलाब उमड़ आया है, यह कतई न्यायसंगत नहीं है।
प्रदेश स्तर पर भी मुख्यमंत्रियों की विभिन्न क्षेत्रों में प्रस्तावित जनसभाओं के दौरान यही देखा जाता है कि उस क्षेत्र का मंत्री या विधायक भीड़ जुटाने के लिए जी तोड़ मेहनत करता है। गांव-गांव घूमकर ग्राम व वार्ड स्तर की छोटी-छोटी सभाएं कर लोगों को रैली में पहुंचने की दावत देता है। अब तो आम जनता के लिए सामूहिक भोज का भी प्रबंध किया जाने लगा है ताकि जनता भोजन का स्वाद भी रैली के उपरांत ले सके। परंतु इस प्रकार की सारी कवायद निश्चित रूप से खोखली कवायद है तथा इसमें जहां सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग होता है वहीं जनता भी अपनी पूरी श्रद्धा व आस्था से आने के बजाए ज़ोर-ज़बरदस्ती अथवा एक-दूसरे पड़ोसी या किसी स्थानीय नेता,पंच या सरपंच का लिहाज़ करते हुए और तमाम गरीब लोग खाने-पीने की गरज़ से भीड़ का हिस्सा बन जाते हैं। परंतु हमारे ‘दूरदर्शी’ नेताओं का इन बातों से क्या वास्ता? इन्हें तो किसी भी तरह से भीड़ प्रबंधन कर लोकतंत्र में अधिक से अधिक सिर गिनाए जाने का प्रदर्शन करना है और निश्चित रूप से यह आज के युग में राज करने की एक महत्वपूण ्रकला बन चुकी है।
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निर्मल रानी
लेखिका व् सामाजिक चिन्तिका
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं !
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